आम आदमी के लिए 'न्यायपालिका' ही आखिरी आस होती है और कानून-सम्मत न्याय दिलाने के लिए उस आदमी का पहला और आखिरी सहारा 'वकील' ही तो होते हैं! हालाँकि, आप अगर सर्वे करें तो बमुश्किल कुछ ही फीसदी ऐसे मामले आएंगे, जहाँ कोई व्यक्ति वकीलों को अच्छा और न्यायप्रिय कहेगा! कहा तो यहाँ तक जाता है कि वकीलों से जितनी दूरी बनाये रखिये, उतना ही बेहतर! सभी तो नहीं, लेकिन अधिकांश वकील इसी राह पर चलने को प्रेरित होते हैं और अगर साफगोई से कहा जाए कि अदालतों में मामले सालों साल पेंडिंग क्यों रहते हैं तो ऑफ़ दी रिकॉर्ड सबसे बड़ा कारण यही सामने आएगा कि 'ऐसा वकील चाहते हैं, इसलिए'! खैर, इन बातों के अतिरिक्त, एक और काले कोट की 'खूबी' जो निखर कर सामने आयी है वह वकीलों द्वारा मारपीट के बढ़ते हुए मामले हैं. क्लायंट, पुलिस और न्यायाधीश तक इस बर्ताव का शिकार हो चुके हैं और ऐसा मामला जो हाल ही में सामने आया है, उसने न केवल वकालतनामा को, बल्कि बार कौंसिल, सरकार और उससे बढ़कर देश भर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चोट पहुंचाई है. भारतीय जनता पार्टी के तमाम बड़े नेता एक दिन पहले जेएनयू मामले पर हमलावर रूख अख्तियार किये हुए थे, लेकिन जब पटियाला हाउस कोर्ट में वकीलों ने पत्रकारों से गली-गलौच और मारपीट की घटना को अंजाम दे दिया तब टेलीविजन की बहस में कई भाजपा नेताओं को जवाब देना भारी पड़ रहा था. एनडीटीवी की बहस में विजय गोयल एंकर अभिज्ञान प्रकाश से बार-बार इस बात पर जिरह कर रहे थे कि मुद्दे को डायवर्ट करने की कोशिश हो रही है. सवाल यही था कि भाजपा के हाथ एक बड़ा मुद्दा लगा था और वकीलों की मारपीट ने इस मुद्दे को डायवर्ट करने की भरपूर कोशिश की थी. मामला यहाँ भी रूक जाता तो शायद काम चल जाता, किन्तु उसके बाद कन्हैया कुमार की पटियाला हाउस कोर्ट में पेशी के दौरान वकीलों द्वारा पीटे जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर रुख अपनाया और इस मामले में 6 वकीलों की टीम ने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपते हुए बताया कि कोर्ट में माहौल बेहद खतरनाक है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त टीम ने मामले की गंभीरता की जानकारी देते हुए कहा कि हमारे उपर भी पत्थर फेंके गए. यही नहीं टीम ने यह भी कहा कि दिल्ली पुलिस ने इस मामले में लापरवाही बरती और अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं निभाई. जाहिर तौर पर इससे कन्हैया की जान को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया था. अब यह पूरा मामला कल्पना से परे लगता है कि जो वकील संविधान और कानून को बनाये रखने के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार संस्था 'न्यायपालिका' के एक महत्वपूर्ण अंग हैं, वह मारपीट और किसी आरोपी की जान पर खतरा बन जा रहे हैं. यह बेहद शर्मनाक वाकया था, जिसके बाद उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दिल्ली पुलिस कन्हैया कुमार की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी या हम आदेश दें. इस मामले में दिल्ली जैसी जगह की पुलिस को अगर उसकी ड्यूटी समझानी पड़े और वह भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा, तो यह अपना आप में एक शर्मनाक विषय है. हालाँकि, जब सुप्रीम कोर्ट मामले में सख्त हुआ तो बार काउन्सिल को भी घुटने टेकने पड़े. सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने कहा कि यह घटना शर्मनाक है और कुछ वकीलों की वजह से देशभर के वकीलों की छवि खराब हुई है. बार काउंसिल ने मीडिया से बाकायदा माफी मांगते हुए कहा है कि दोषी वकीलों के खिलाफ कार्रवाई होगी और जरूरत पड़ी तो लाइसेंस भी रद्द किया जा सकता है. इसके लिए हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय कमेटी भी गठित की गयी है, जो तीन हफ्तों में रिपोर्ट देगी. यह कार्रवाई निश्चित रूप से मरहम का कार्य करेगी, लेकिन भविष्य में इस बात को सुनिश्चित किया जाना बेहद आवश्यक है कि कानून के रखवालों द्वारा इस प्रकार की हिंसक प्रतिक्रिया नहीं दिया जाए. इस तरह की प्रतिक्रियाओं से एक तो मुद्दा भटकता है, वहीं दूसरी ओर देश भर में कानून के प्रति भरोसा बनाये रखने में कड़ी मुश्किल पेश आती है.
आखिर, पुलिस-प्रशासन और सरकार तक से निराश, नाराज लोग कोर्ट और उससे पहले वकीलों का ही तो रूख करते हैं. अगर उन्हें वहां मारा-पीटा जाने लगा तो यह प्रहार उस व्यक्ति पर कम और लोकतंत्र की बुनियाद पर कहीं ज्यादा चोट पहुंचाता है. उम्मीद है सुप्रीम कोर्ट और बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया इस तरह के मामलों को दोबारा घटित न होने देने के लिए कड़ी प्रतिबद्धता का परिचय देगी, अन्यथा नुक्सान बड़ा होगा और बेहद बड़ा होगा. इस मामले में हालिया मामलों के अलावा उन रिफरेन्स को भी याद रखना चाहिए, जब वकीलों ने अपनी ताकत का बेजा दुरूपयोग करके इसे शर्मसार किया है. 2015 में मद्रास हाईकोर्ट की सुरक्षा का जिम्मा अब आईएसएफ के हाथ में देने की बड़ी चर्चा हुई थी. दरअसल, मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों की फौज महिलाओं और बच्चों के साथ बड़ी संख्या में 14 सितंबर को कोर्टरूम में घुस आई थी, जिससे अदालत का कामकाज ठप हो गया था. हाईकोर्ट की मदुरै बेंच के दो वकीलों के खिलाफ कोर्ट द्वारा खुद संज्ञान लेकर अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का ये वकील विरोध कर रहे थे. सवाल यह है कि 'एकता' उचित है, होनी ही चाहिए, लेकिन क्या यह समाज-विरोधी, संस्थान-विरोधी, न्याय-विरोधी भी होनी चाहिए? स्पष्ट जवाब है नहीं! लेकिन, यह जवाब जब कोई खुद से न समझे तो उसे समझाने के लिए न्याय-दंड का प्रयोग आवश्यक हो जाता है और हालिया पटियाला हाउस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने इसका कठोर संज्ञान लेकर बेहद सटीक कदम उठाया है.
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