महिला अधिकारों पर चर्चा कोई नयी नहीं है, बल्कि यह बार-बार और लगातार होने वाली चर्चाओं में शामिल है. प्रश्न उठता ही है कि आखिर इतने आन्दोलनों और बदलाव की सुगबुगाहट के बावजूद महिलाओं की हालत में अपेक्षित सुधार क्यों नहीं आ सका है, विशेषकर सामाजिक सम्बन्धों से जुड़े मामलों को लेकर! इन मामलों की स्थिति किस हद तक खराब है, यह हाल ही में सामने आयी घटनाओं के माध्यम से समझा जा सकता है. बालिका बधु नामक मशहूर टीवी सीरियल में काम करने वाली प्रत्युषा बनर्जी की आत्महत्या ने इस मामले में हो रही बहस पर सवाल उठा दिया कि क्या आधुनिक दिखना, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना भर ही महिला सशक्तिकरण मान लिया जाना चाहिए? इन मामलों में हो रही जांच की कई परतें अभी सामने आएँगी, किन्तु शुरूआती जानकारी के अनुसार इस लड़की का इसके बॉयफ्रेंड द्वारा बेजा इस्तेमाल किया गया, जबकि एक अन्य लड़की ने प्रत्युषा को प्रताड़ित करने में अपना भरपूर योगदान दिया. सवाल उठता ही है कि आखिर एक महिला ही क्यों इस तरह के हालात का शिकार हो जाती है.
इसी तरह का एक और केस सूरज पंचोली और जिया खान के आत्महत्या से जुड़ा सामने आया था. गौरतलब है कि यह वह लडकियां अथवा महिलाएं हैं, जो आधुनिक, पढ़ी लिखी और आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत मजबूत हैं. आखिर कुछ तो है, जहाँ हम चूक जा रहे हैं और असल सशक्तिकरण की बजाय महिला अधिकारों की गहन समझ विकसित नहीं कर पा रहे हैं. न केवल बॉलीवुड जैसे स्थानों पर, बल्कि समाज का नेतृत्व करने वालों के यहाँ भी घरेलु हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. बहुजन समाज पार्टी के सांसद नरेंद्र कश्यप की बहू हिमांशी कश्यप की घर के बाथरूम में सिर में गोली लगने पर संदिग्ध हालत में मौत हो जाने से लोग सन्न हैं. इस मामले में हिमांशी के चाचा ने छह लोगों के खिलाफ दहेज हत्या और प्रताड़ना का मामला दर्ज करवाया, जिसमें से कई लोग गिरफ्तार भी हुए हैं. गौरतलब है कि हिमांशी के पिता हीरालाल कश्यप बसपा के पूर्व मंत्री रहे हैं, जिनका आरोप है कि शादी के बाद से ही हिमांशी को दहेज के लिए उत्पीड़न किया जाता था और कई बार नौबत तो मारपीट तक भी पहुंच जाती थी.
आश्चर्य यह है कि दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी और जो लोग सांसद भवन में बैठकर लोगों के हितार्थ कानून का निर्माण करते हैं, उनके यहाँ ही दहेज़ प्रताड़ना अगर हो रही है तो यह शर्मनाक वाकया तो है ही, उससे भी बढ़कर महिला अधिकारों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह भी लगाती है! इन मामलों को देखने पर तीन-चार बातें बड़ी स्पष्ट रूप में सामने आती हैं कि महिला उत्पीड़न के कई मामलों में जाने-अनजाने खुद कई महिलाएं भी शामिल रहती हैं. खासकर घरेलु हिंसा जैसे मामलों में तो यह तथ्य कई बार अपने आक्रामक रूप में सामने आता है तो कॉर्पोरेट या बॉलीवुड जैसी जगहों पर महिलाएं साजिशन शिकार करती भी हैं और होती भी हैं. इन्हीं मामलों पर महिला अधिकारों की बड़ी पैरोकार इंदिरा नूई की कुछ बातें अवश्य गौर करने वाली हैं, जो हर स्तर पर महिलाओं की गैर-बराबरी का मुद्दा तो उठाती ही हैं, साथ ही साथ महिलाओं के रवैये पर भी सवाल उठाती हैं, जिसमें बदलाव लाया जाना समय की जायज मांग बन चुकी है. पेप्सीको की मुख्य कार्यकारी अधिकारी और भारतवंशी इंदिरा नूयी को ‘‘स्वीटी’’ या ‘‘हनी’’ बुलाया जाना पसंद नहीं है, लिहाजा नूयी इस बात की पुरजोर वकालत करती हैं कि कार्यक्षेत्र और समाज में महिलाएं बराबरी का दर्जा पाने की हकदार हैं. हालाँकि, स्वीटी या हनी जैसे शब्द आम प्रचलन में हैं और यह केवल महिलाओं के लिए ही प्रयोग में नहीं आते, बल्कि लडकियां भी अपने बॉयफ्रेंड को 'बाबू' 'बेबी' जैसे शब्दों से बुलाती ही हैं, किन्तु इंदिरा जी का बयान इस मायने में जरूर सटीक है कि महिलाओं को सिर्फ 'शोपीस' ही नहीं समझना चाहिए! उनका कहना है कि एक व्यक्ति के तौर पर महिलाओं का सम्मान किया जाना चाहिए. नूई की इस मांग से भला किसे ऐतराज हो सकता है, किन्तु यह मांग कोई आज की तो है नहीं और यही कई लोगों के लिए चिंतन-मनन की बात भी है. ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के सहयोग से आयोजित ‘वुमेन इन द वर्ल्ड’ शिखर सम्मेलन में पत्रकारों और लेखकों की मौजूदगी में नूयी ने साफ़ कहा कि, ‘‘हमें अभी भी बराबरी का दर्जा मिलना बाकी है." जाहिर तौर पर अगर इंदिरा नूई जैसे शख्सियत इस औरतों की गैर-बराबरी का मुद्दा उठाती हैं तो जरूर इसमें उनका दर्द भी छुपा हुआ है. यह और कुछ न होकर औरतों को एक खिलौना या 'भोग्य' के रूप में देखे जाने से सम्बंधित भी हो सकता है, जिसका हनी, स्वीटी, बेब जैसे संबोधनों से स्वाभिमान को ठेस भी पहुंचाया जाता है, तो महिलाओं के साथ सामान्य लोगों के तौर पर बर्ताव न करने से भी सम्बंधित हो सकता है.
इस सम्मेलन में और भी कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठे, जिसमें समान वेतन की मांग को लेकर ‘‘लड़कों की जमात’’ में शामिल होने के लिए कई सालों से हो रही महिलाओं की मांग भी शामिल हुई. इस सम्बन्ध में इंदिरा नूई ने कहा कि महिलाओं ने अपनी डिग्री, स्कूलों में अच्छे ग्रेड से कार्यक्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है, जिसके कारण पुरूष समकक्षों ने हमें ‘‘गंभीरता’’ से लिया है, किन्तु इस सफर में अभी लम्बा रास्ता तय करना बाकी है. इसके लिए महिलाओं को वेतन में बराबरी की जरूरत है, जिसके लिए महिलाएं अब तक लड़ाई लड़ रही हैं. एक और जो सबसे महत्वपूर्ण बात नूई ने कही, वह महिला अधिकारों से जुड़ी बेहद सटीक बात है. नूयी ने खेद जताते हुए कहा कि कार्यक्षेत्र में महिलाएं अन्य महिलाओं की मदद नहीं करतीं, जो कि उन्हें अधिक से अधिक करना चाहिए. इसके लिए उन्होंने महिलाओं से आपसी सहयोग को और मजबूत करने को कहा. उन्होंने इस पर भी ध्यान दिलाया कि महिलाएं अक्सर दूसरी महिलाओं से मिली जानकारियों और अनुभवों को सकारात्मक रूप से नहीं लेतीं. लेकिन, यही प्रतिक्रिया पुरूषों से मिलने पर लोग उसे स्वीकार करने से नहीं हिचकते. जाहिर है, अगर प्रोफेशनल रूप से बिजनेस के शीर्ष पर पहुंची एक महिला ऐसे सार्वजनिक बयान देती है तो इसे उसका व्यापक अनुभव ही माना जाना चाहिए. वैसे भी, महिलाओं की आपसी और गैर-जरूरी जलन को कई जगहों पर पुरुष न केवल महसूस कर लेते हैं, बल्कि उसका इस्तेमाल करने में भी संकोच नहीं करते हैं. जाहिर है, इस स्थिति से बचने के लिए तो महिलाओं को ही आगे आना होगा और अगर वास्तव में महिला सशक्तिकरण को मजबूत रूप में सामने लाना है तो यह काम महिलाओं को ही एकजुट होकर करना होगा. इस तरह के प्रयास समाज के कई क्षेत्रों से हो भी रहे हैं, किन्तु वह प्रतिरोध की तुलना में अपेक्षाकृत कमजोर ही हैं.
मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे 'भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन' के तहत मुस्लिम महिलाओं ने कई मूलभूत अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू की है, किन्तु उनकी संख्या जहाँ करोड़ों में होनी चाहिए, वहीं वह 1 लाख भी नहीं है. जाहिर है, अगर हमें समाज की बेड़ियों को तोडना है और खुद के लिए एक नयी राह बनानी है, खुद को कमजोर नहीं पड़ने देना है, खुद को आत्महत्या की राह पर नहीं धकेलना है तो इसके लिए 'संगठन' के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं! भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. बी.आर.आंबेडकर ने भी तो समाज के दलित बंधुओं को 'शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो' का ही मन्त्र दिया था, जिसने समाज में काफी हद तक परिवर्तन भी किया है. अब क्या डॉ. आंबेडकर का यही मन्त्र देश की समस्त महिलाओं को नहीं अपनाना चाहिए? सोचिये, समझिए और जुट जाइये असल बदलाव लाने में, क्योंकि जब तक पूरे समाज में बदलाव नहीं आएगा तब तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता या आर्थिक उन्नति से कुछ ख़ास नहीं बदल पाएगा. यह पूरा समाज आपस में गूंथा हुआ है और बदलाव भी समाज की परिधि में ही होगा, बस डॉ.आंबेडकर का शिक्षा, संगठन और संघर्ष का मन्त्र देश की महिलाएं अब आत्मसात कर लें!
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