यूपीएससी परीक्षा का परिणाम हर साल की भांति इस साल भी काफी चर्चित रहा है तो कई अनसुलझे सवालों को भी यह प्रतिष्ठित परीक्षा जन्म देती है, जिसका जवाब मिलना बेहद कठिन प्रतीत होता है. ऐसा नहीं है कि टीना डाबी, अतहर और जसमीत जैसी प्रतिभाओं पर किसी को कोई संदेह है, बल्कि यह तो हमारे देश के गौरव को बढ़ाने वाले बच्चे हैं, पर क्या वाकई हम इन श्रेष्ठ प्रतिभाओं को अपने देश के बारे में सही सोच विकसित करने की राह पर ले जा रहे हैं? क्या वाकई, जिस-जिस सामान्य बैकग्राउंड से उठकर यह बच्चे देश सेवा का जज्बा लिए यूपीएससी परीक्षा के कठोर हर्डल्स को क्रॉस करने का कारनामा किया है, वह जज्बा बाद में भी इनमें कायम रहने वाला है? इससे पहले कि इस मुद्दे पर आगे चर्चा करें, हाल ही में घटित एक-दो ख़बरों की ओर ध्यान देना लाजमी रहेगा. इस प्रतिष्ठित परीक्षा परिणाम के मात्र दो-चार दिन पहले ही एक आईएएस अधिकारी की तस्वीर सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुई थी. इस तस्वीर में ट्रेनी आईएएस जगदीश सोनकर अस्पताल के अंदर मरीज के बेड पर पैर रखे हुए नजर आ रहे थे. जब सोशल मीडिया में लोग जबरदस्त तरीके से आईएएस के इस तरीके की आलोचना करने लगे तो बाद में उन्होंने इसके लिए माफ़ी भी मांगी. बताते चलें कि तस्वीर में, बिस्तर पर मां और बच्चा था जबकि डीएम बेड पर पैर रखकर हाथ पीछे किए उनसे बात कर रहे थे. लोग चर्चा करने लगे कि 'आईएएस की नई नौकरी के रुतबे के गुमान' में वो भूल गए कि जिस अंदाज़ में वो खड़े हैं, वो किसी को भी शोभा नहीं देता. आप इस घटना को कृपया अपवाद नहीं मानियेगा, क्योंकि ऐसा करने से आप भारत में 'आईएएस लॉबी' की उस सोच को पकड़ने से वंचित रह जायेंगे, जो खुद को 'शासक' और आम जनता को 'शासित वर्ग' मानने की सोच से ग्रसित हो जाता है.
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जहाँ तक मुझे जानकारी है, इन परीक्षाओं की शुरुआत अंग्रेज़ों के ज़माने में भारतीयों पर शासन की नियति से की गयी थी. अब चूंकि देश आज़ाद है, किन्तु चूंकि प्रणाली वही 'विशिष्ट वर्ग' पैदा करने वाली है तो 'रूतबे का गुमान' होना स्वाभाविक ही है. सच कहें तो आप किसी भी उस आम व्यक्ति से मिल लीजिए, जिनका पाला 'आईएएस अधिकारियों' से पड़ा हो, आप को सच का ज्ञान तत्काल ही हो जायेगा! न केवल जनता से, बल्कि ऑफिस के अपने कनिष्ठों से भी कई मामलों में उनका व्यवहार 'विशिष्टता' का बोध लिए होता है, जिससे 'गुटबाजी' और 'उत्पादकता' पर सीधा प्रभाव पड़ता है. चूंकि, देश की शासन व्यवस्था चलाने के लिए हमें तेज-तर्रार और सक्षम व्यक्तियों की जरूरत भी पड़नी ही है, ऐसे में हम बजाय कि शुरू से ही आम भारतीयों में से कुछ को चुनकर विशिष्ट बनाएं, क्यों न प्रशासनिक नौकरियों में परफॉर्मेंस के आधार पर ऐसी व्यवस्था विकसित करें, जिससे 'विशिष्टता का रोग' लगे वगैर 'सक्षम प्रतिभाएं' सामने आ सकें! सिर्फ आईएएस ही नहीं, बल्कि तमाम दूसरी सरकारी नौकरियों में भी एक बड़ी ख़ामी आज के हालात में दिखती है, वह है प्रतिस्पर्धा का अभाव. मतलब, एक बार आप अगर सरकारी 'दामाद' बन गए तो फिर आप बन ही गए. आप परफॉर्म करते हैं, नहीं करते हैं, भ्रष्टाचार करते हैं, जनता आपके खिलाफ नाराज है, लेकिन कोई भी आपका बाल बांका नहीं कर सकता है! आज 21वीं सदी में इस तरह का सिस्टम हमारे सरकारी तंत्र को 'कम सक्षम' बनाता है, जिसका परिणाम समूचा देश भुगतता है. हमारे देश में सरकारी नौकरी को लेकर इसलिए भी एक खास क्रेज है. सभी चाहते हैं कि किसी भी जुगत से उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाये, क्योंकि मोटा पैसा, काम का कोई खास दबाव नहीं और सबसे बड़ी बात कि 'प्रतिस्पर्धा' की मगजमारी ख़त्म!
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इसीलिए कुछ हज़ार या कुछ सौ सरकारी नौकरियों के लिए लाखों आवेदन आते हैं. संघ लोक सेवा आयोग के वर्तमान परिणामों को ही ले लीजिए. इसमें कुल 1078 उम्मीदवारों को परीक्षा में सफलता मिली है, जिसमें जनरल कैटेगरी के 499 उम्मीदवारों, ओबीसी कैटेगरी के 314 उम्मीदवारों, एसी कैटेगरी के 76 उम्मीदवारों और एसटी कैटेगरी के 89 उम्मीदवार शामिल हैं. पर क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस 1078 उम्मीदवारों में शामिल होने के लिए कितने परीक्षार्थी शामिल हुए होंगे? लगभग साढ़े चार लाख उम्मीदवारों ने इस परीक्षा का फॉर्म भरा था. यह तो खैर, 'विशिष्ट नौकरी' यूपीएससी का ही एग्जाम था, पिछले दिनों कहीं चपरासी की भर्ती निकली थी, तो कई पीएचडी होल्डर लाइन में खड़े मिले थे. जाहिर है, सरकारी नौकरी की मारामारी और उसके बाद के आराम में 'किस कदर' गहरा सम्बन्ध है, इस बात से आप खुद समझ सकते हैं. अगर यही टीना डाबी, अतहर या जसमीत इसी काबिलियत के साथ प्राइवेट सेक्टर की टीसीएस, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट में जाते तो क्या होता, जरा कल्पना कीजिये! निश्चित रूप से वहां भी उनको बड़ी पोजिशन मिलती, आईएएस की नौकरी से ज्यादा पैसा भी मिलता (सीधे रास्ते वाला पैसा), किन्तु वहां परफॉर्मेंस की नापजोख साल-दर-साल, छमाही-दर-छमाही और क्वार्टर-दर-क्वार्टर की जाती और अगर इसमें सुधार नहीं दिखता तो 'नौकरी' पर खतरा मंडराने लगता! शायद यही वजह है कि पब्लिक सेक्टर की कंपनियां डूब जाती हैं, सरकारी बैंकों का 'एनपीए' बढ़ जाता है, उनको सब्सिडी देना पड़ता है ज़िंदा रखने के लिए, तो प्राइवेट सेक्टर एक के बाद दूसरा मुकाम छूने लगता है. 'विशिष्ट रोग' से ग्रसित 'आईएएस लॉबी' को यह समझना होगा कि उनके 'यूपीएससी सिलेक्शन' के बाद भी उन्हें परफॉर्म करना चाहिए, अन्यथा जनता के द्वारा दिया गया 'टैक्स' ही बर्बाद होता है.
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खबरों के अनुसार, मोदी सरकार भी तमाम 'नौकरशाहों' के परफॉर्म न कर पाने की वजह से परेशान है और अपने दो साल के कार्यकाल में ही 72 बाबुओं को बर्खास्त कर दिया है. वित्त मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक, पिछले दो वर्षों के दौरान जिन 33 अधिकारियों को जबरन (प्रीमैच्योरली) रिटायर किया गया है, उनमें 7 क्लास वन अधिकारी भी शामिल हैं. यही नहीं, विभागीय कार्रवाई की वजह से बर्खास्त हुए 72 अधिकारियों में भी 6 क्लास वन अधिकारी हैं. कर विभाग के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जहाँ अधिकारियों पर गाज गिरी है. इससे पहले लोगों के मन में ऐसी धारणा बन गई थी कि कर अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही नहीं होती, लेकिन अब इस मिथक को तोड़ा जा रहा है और तोडा जाना भी चाहिए. आखिर हमें इस बाबत तो सोचना ही पड़ेगा कि भारत की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं हम भर्ती करते हैं, किन्तु वह 'सरकारी अधिकारियों का नकारापन' में क्योंकर तब्दील हो जाता है? चाहे वो ब्लॉक लेवल हो या डिस्ट्रिक्ट लेवल या फिर देश की राजधानी ये लोग वातानुकूलित कमरों में बैठ के सिर्फ राजनीति करते हैं, जबकि काम को लेकर कोई जवाबदेही तय नहीं की जाती है. यहाँ तक कि मंत्रियों और नेताओं को भी बहुत बार बरगला देते है. ज़रा गौर कीजियेगा, अगर कोई मंत्री अपने एरिया में दौरे पर है तो ऐन वक्त पर उस एरिया का कायाकल्प कर दिया जाता है अधिकारियों द्वारा, ताकि मंत्री जी को पता न चले की कितनी बदहाली है इस जगह में! अक्सर हम मंत्रिओं और नेताओं को ही गलत ठहराते हैं, लेकिन हम भूल जाते हैं कि मंत्रियों के साथ-साथ ये सरकारी अधिकारी भी उतने ही गुनहगार हैं हर एक भ्रष्टाचार और नकारेपन के लिए! बल्कि, कई मामलों में मंत्रियों से भी ज्यादा!
अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के द्वारा सरकारी अधिकारियों को जोरदार चेतावनी दी गयी कि उन के साथ राजनीति न करें, बल्कि काम करने में सहयोग करें. हालाँकि, अरविन्द केजरीवाल खुद भी एक आईआरएस अधिकारी रहे हैं और उनकी टिपण्णी इस मामले में निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं कि वह इस विभाग की मानसिकता को दर्शाती है. यह बात गारंटी से कही जा सकती है कि अगर सरकारी कार्यों में 'ऊपरी आमदनी' पूरी तरह बंद कर दी जाए, प्राइवेट सेक्टर की तरह 'परफॉर्मेंस और प्रतिस्पर्धा' का माहौल तैयार किया जाए और ऐसा न करने वालों को 'दामाद' बनाने की बजाय नौकरी से निकाल दिया जाए तो कोई कारण नहीं कि आने वाले समय में भारत, विश्व की अग्रिम पंक्ति में खड़ा नज़र न आए. इसके साथ-साथ देश भर में मच रही आरक्षण की मारकाट भी समाप्त होने की दिशा में कदम बढ़ा देगी, इस बात में दो राय नहीं!
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