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रूकना चाहिए पशुओं पर अत्याचार! Human civilization and animal, Cruelty, Hindi Article, Mithilesh

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जब से मानव ने सभ्यता सीखनी शुरू की और अपना विकास करना प्रारम्भ किया, लगभग तभी से उसने जानवरों के महत्व को भी समझ लिया था. उसने कुत्तों की वफ़ादारी को देखा और उसे अपना साथी बना लिया, जिससे उसे सुरक्षा मिली तो अपने भोजन और भूख की समस्याओं से निपटने के लिए उसने गाय और भैंस पालने शुरू कर दिए. सामान ढोने में उसने खच्चर तथा गधे को इस्तेमाल किया और अपनी यात्राओं को सुगम बनाने के लिए मानव ने घोड़े तथा ऊंट को चुना. साफ़ तौर पर मानव सभ्यता के विकास में पशुओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. इसी क्रम में, बैल तथा भैसों से कृषि का काम कराना शुरू किया और इस तरह ये जानवर इनके सुख-दुःख के साथी बन गए. लेकिन जैसे-जैसे मानव आधुनिक होता गया उसकी निर्भरता जानवरों पर कम होती गयी और इनकी जगह मशीनों ने ले लिया. आज जानवरों को उन्हीं चंद लोगों द्वारा पाला जाता है जो इनसे अपनी आजीविका चलाते हैं. जाहिर है कि इनमें अधिकांश किसान ही हैं. हालाँकि, बढ़ती महंगाई की वजह से अब किसानों के लिए भी पशुपालन समस्या बन गया है और असल समस्या तब शुरू होती है जब ये जानवर बूढ़े हो जाते हैं और किसान पर एक तरह से बोझ बन जाते हैं. ऐसे में कई बार गरीब किसान इन पशुओं को कसाई के हाथों बेचने को भी मजबूर हो जाता है, जो अनैतिक कार्य तो है किन्तु किसान की बेबशी से तुलना करने पर हमें एक भारी उलझन में डाल देता है. 
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Shaktiman horse in uttrakhand
एक तरह से देखा जाये तो ये काम पशु उत्पीड़न के अंतर्गत आता हैं क्यूंकि जब तक गाय ने हमें दूध दिया तब तक उसे हमने पाला लेकिन जब वो बूढी हो गयी तो उसे कसाई को दे दिया. ऐसे ही बैल जब तक जवान और स्वस्थ रहता है तब तक लोग उसे पालते हैं और जैसे ही वो बूढ़ा होता हैं तो उसे बेकार समझ कर या तो छोड़ देते हैं या कसाई के हाथों में दे देते हैं. ये तो हो गयी गांव की बात लेकिन अगर हम शहरों की बात करें तो वहां तो हालात और भी ख़राब हैं. शहरों में लोग सुबह -सुबह गायों को खुल्ले छोड़ देते हैं ताकि वो दिनभर घूम-घूम के इधर-उधर से अपना पेट भरे, और शाम के समय वापस आ के दूध दे. लोगों के द्वारा पॉलीथिन में रख कर फेंका गया खाना जो कि कई पशु पॉलीथिन सहित ही खा लेते हैं, जिनसे उन्हें गम्भीर बीमारियां हो जाती हैं और असमय ही उनकी मौत हो जाती है. वैसे तो पशुओं के लिए हमारे देश में तमाम एनजीओ काम करते हैं फिर भी इनकी दशा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया हैं. कुछ ही दिनों पहले उत्तराखंड के 'शक्तिमान घोड़े' के ऊपर हुए अत्याचार को लेकर काफी हंगामा मचा था, क्योंकि ये मामला था ही इतना संवेदनशील! सरेआम पुलिस के घोड़े की इतनी पिटाई की जाती है कि उसकी टांग टूट जाती है और इलाज के बावजूद घोड़ा मर जाता है. 
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Neelgaay in Bihar, violence on animals
इसके लिए सम्बंधित दोषी व्यक्ति की सोशल मीडिया पर खूब खिंचाई भी हुई थी, लेकिन यह मामला पशुओं पर अत्याचार का एक प्रतीक बन गया और अभी ताजा मामला है बिहार का जहाँ सरकार के आदेश पर 200 नीलगायों को गोली मारी गयी है. इसको ले कर भी तमाम संगठनों के साथ महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने मोर्चा खोल दिया है. जाहिर है यह एक ऐसा मामला है जो बेहद क्रूर है,  वहीं बिहार सरकार का तर्क है कि नीलगायों की वजह से किसानों की फसलों को हर साल भारी नुकसान होता है, इसलिए इन्हें मारना आवश्यक हो गया था. इसके जवाब में मेनका गांधी का कहना है कि आज नीलगाय मारा है, कल सुरक्षा के नाम पर शेर और हाथी मारे जायेंगे. देखा जाये तो दोनों के तर्क कुछ हद तक सही लगते हैं, किन्तु असल उपाय इन दोनों तर्कों से हटकर है और वह है जीव-संरक्षण का! क्या नुक्सान पहुंचाने वाली नीलगायों को पकड़कर घने जंगल या पशु अभ्यारण्य में नहीं छोड़ा जा सकता था? पर सवाल वही है कि हम अक्सर आसान रास्ता चुनते है, कुछ-कुछ शॉर्टकट जैसा, बेशक उस रास्ते पर नैतिकता कुचली जाए, क्या फर्क पड़ता है. इसी तरह शहरों में गायों को खुला छोड़ने वालों पर कार्रवाई करनी चाहिए तो कसाईखानों पर लगाम लगाने की आवश्यकता है. मानव सभ्यता के विकास में जो पशु लाखों साल से हमारे कंधे से कन्धा मिलाकर चल रहे हैं, अगर हम उन्हें ही आधुनिकता के नाम पर मार देते हैं तो फिर हमें किसी भी तरह सभ्य इंसान कहलाने का हक़ नहीं बनता है!
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- मिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली.



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