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सरकार ने सांतवे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला कर लिया है. अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस 'पे कमीशन' से सरकार मार्किट में 'मनी फ्लो' बढ़ाना चाहती है, जो काले-धन पर सख्ती की कारण कम हो गया है. आज आप किसी भी मार्किट में निकल जाओ, मनी फ्लो की दिक्कत साफ़ नज़र आती है, वह चाहे कोई व्यापारी हो, रियल स्टेट डीलर हो या फिर कोई और! ऐसे में सरकार ने एक तीर से दो निशान साधने की कोशिश तो जरूर की है, लेकिन इसमें कितनी सफलता मिलेगी, यह आने वाला वक्त ही बताएगा! सरकार की पहली मंशा तो यही रही होगी कि अगर सरकारी कर्मचारियों की सेलरी बढ़ेगी (7th pay commission) तो वह उसी अनुपात में मार्किट में खर्च भी करेंगे और फिर 'लिक्विडिटी' की समस्या काफी हद तक सॉल्व होगी. चूंकि, अधिकांश सेलरी लेने वाले कर्मचारी मिडिल-क्लास उपभोक्ता हैं, जिनकी सामान्य जरूरतें तो पूरी हो रही हैं और उन्हें अतिरिक्त पैसा मिलते ही, या तो वह सेविंग की तरफ जायेंगे अथवा 'लग्जरी गुड्स' पर खर्च करने को तरजीह देंगे, मतलब अगर किसी की पास बाइक है तो वह 'कार' की ओर जायेगा. दोनों ही कंडीशन्स में सरकार द्वारा लगभग 1 लाख करोड़ का अतिरिक्त बोझ झेलने के बावजूद पूरा पैसा 'मार्किट' में नहीं आ पाएगा, तो दूसरी समस्या 'सरकारी कर्मचारी' असंतुष्ट होकर खड़ी कर रहे हैं. बेशक उनकी मांग अनुचित हो, लेकिन इसके लिए वह काफी तर्क-कुतर्क गढ़ रहे हैं. जाहिर है, सरकार दोहरी समस्या में घिर गयी लगती है. पर इस समस्या से अलग जो और बड़ी समस्या नज़र आती है, वह असमानता उत्पन्न करती हुई नीतियों को लेकर है. आज देश में कई करोड़ युवा बेरोजगार हैं, उनके लिए नौकरियों की अवसर नहीं हैं, तो फिर ऐसे में भला किस एंगल से सरकारी कर्मचारियों की वेतन-वृद्धि को जायज़ ठहराया जा सकता है.
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हमारे देश में कॉलेज की पढाई ख़त्म होते ही अधिकांश युवा बस एक ही ख्वाब देखते हैं कि जैसे-तैसे और कैसे भी बस एक बार सरकारी नौकरी लग जाये तो बस लाइफ सेटल हो जाये! वहीं दूसरी तरफ हमारे देश में ही सरकारी कर्मचारियों को इस नजर से भी देखा जाता रहा है, जैसे वो हमारे देश पर बोझ हों. थोडा ठेठ भाषा में कहा जाए तो काम-धाम कुछ करते नहीं बस मुफ्त की पगार उठाते हैं! काफी हद तक यह सही बात है कि ये लोग आम जनता के द्वारा दिए गए टैक्स पर मलाई काटते हैं. हालाँकि, इस बात को हम जनरलाइज नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा नहीं है कि सारे ही सरकारी कर्मचारी कामचोर हैं. जाहिर है, देश का सारा काम तो वह करते ही हैं, लेकिन इस बीच कामचोरों, रिश्वतखोरों और सिस्टम को बदहाल करने वालों की संख्या ज्यादा है और इन्हीं की वजह से काम करने वालों को भी नफरत का शिकार होना पड़ता है. जाहिर है, एक बड़ा कारण सार्वजनिक-क्षेत्र के कर्मचारियों की कार्य करने की क्षमता (कम्पीटेंसी) का कम होना भी है, खासकर प्राइवेट-सेक्टर की एम्प्लॉयीज की तुलना में! खैर ये काम करें न करें लेकिन मोदी सरकार ने अपने केंद्रीय कर्मचारियों की सैलरी में 23 फीसदी (7th pay commission) तक के बढ़ोत्तरी को मंजूरी दे दी है, जिसे वर्तमान हालातों के अनुसार अगले 3 साल तक टाला जाना चाहिए था. जी हाँ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई बैठक में 7वें वेतन आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया है. लेकिन आलम ये है कि केंद्रीय कर्मचारियों की यूनियंस इसे अब तक का सबसे खराब 'वेतन आयोग' बता रही है. कहा जा रहा है कि केंद्रीय कर्मचारी सातवें वेतन आयोग की बढ़ोत्तरी से खुश नही हैं. अब भाई, सारा टैक्स का पैसा इन्हीं को दे दो, तब कहीं ये खुश होंगे! वैसे भी, अब तक विकास-कार्यों से कमीशन भी इन्हीं की जेब में जाता रहा है. हालाँकि, मोदी सरकार में घूसखोरी पर कुछ लगाम लगने की बात सामने जरूर आ रही है, किन्तु मोदी सरकार की सख्ती कितनी कारगर साबित हो रही है, यह धीरे-धीरे सामने आने लगेगा!
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इस सन्दर्भ में, केंद्रीय विभागों के कर्मचारियों को मिलाकर बने नेशनल जॉइंट काउंसिल ऑफ एक्शन का कहना है कि सरकार ने उन्हें बेवकूफ बनाया है. काश, इन सरकारी कर्मचारियों को समझ होती कि 'भ्रष्टाचार' शब्द की उत्पत्ति इन्हीं के 'टेबल' के नीचे से हुई है और अभी विद्यमान है तो यह ऐसी बातें न कहते! यह बात ठीक है कि वेतन में तकनीकी रूप से 14 फीसदी बढ़ोतरी की गई है, लेकिन सभी अलाउंस को जोड़ कर यह 23 फीसदी बैठता है, जो किसी लिहाज से कम नहीं है. अगर पांचवी तक पढ़ाने वाले एक सरकारी शिक्षक की सेलरी इन पैमानों पर जोड़ी जाए, तो सांतवे वेतन आयोग (Seventh pay commission) की बाद यह तकरीबन 60 हजार के पास बैठेगी, जबकि उससे ज्यादा मेहनत करने वाला, उससे ज्यादा बढ़िया बच्चे मार्किट को देने वाला एक प्राइवेट शिक्षक 10 हजार भी बमुश्किल से पाता है. अगर ग्राउंड की बात करें, तो प्राइवेट शिक्षकों को कई जगह 5 हजार और 3 हजार प्रतिमाह से काम चलाना पड़ता है. बावजूद इसके 'सरकारी विद्यालयों' की क्या हालत है, यह किसी से छुपी बात नहीं है. एक अपना अनुभव बताऊँ तो, मेरे एक रिश्तेदार ने अपने 6 साल के बच्चे का पहली कक्षा में एडमिशन करने की लिए केंद्रीय विद्यालय का टेस्ट दिलाया. फिर आजकल इसमें 'कूपन-सिस्टम'[भी चल रहा है और संयोगवश उनके बच्चे का सिलेक्शन हो गया. सिलेक्शन हो जाने के बाद उनके घर में इस बात की चर्चा ने जन्म ले लिया कि वह अपने बच्चे को केंद्रीय विद्यालय में कराएं या न कराएं, क्योंकि वहां के पढाई की क्वालिटी, मोहल्ले की प्राइवेट स्कूल से भी कम है. यह हालत जब केंद्रीय विद्यालयों की हो, जवाहर नवोदय विद्यालयों की हो तो फिर दुसरे सरकारी स्कूलों के बारे में कुछ कहने को बचता ही नहीं है. न केवल स्कूल, बल्कि यह हाल कमोबेश हर एक सरकारी-क्षेत्र का है.
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जहाँ भी हम पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर की क्वालिटी में तुलना करने लगते हैं, यही हालात दिख जाते हैं. इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, किन्तु जो सबसे बड़ा कारण है, वह सिर्फ एक है और वह यह कि 'एक बार सरकारी जॉब में लग गए तो फिर आपको कोई माई का लाल भी नहीं निकाल सकता है.' आप ताउम्र 'सरकारी दामाद' बन कर रहेंगे, काम करें, न करें, इसको लेकर कुछ ख़ास जवाबदेही नहीं है. हाँ, बीच-बीच में थोड़ा बहुत आप अपने आका को तेल जरूर लगाते रहें, हालाँकि, यह भी आवश्यक नहीं होता है! बहुत आश्चर्य नहीं होता है कि क्यों तमाम सरकारी-क्षेत्र बदहाल हैं. बावजूद इसके अगर सरकारी कर्मचारी संघ यह कहता है कि छठवें वेतन आयोग ने 52 फीसदी, पांचवे वेतन आयोग ने 40 फीसदी (Seventh pay commission) की बढ़ोतरी की थी और सातवें वेतन आयोग द्वारा सिर्फ 23 फीसदी की मामूली बढ़ोत्तरी की गयी है, तो फिर इससे बढ़कर कोई दूसरी 'बेशर्मी' नहीं! अरे भाई, देश की अन्य बरजोगरों की फ़िक्र करो न करो, लेकिन प्राइवेट सेक्टर की कम्पेरिजन में प्रोडक्टिविटी तो दो कम से कम! यह भी बात सामने आ रही है कि इन लोगों को नई पेंशन नीति भी मंजूर नहीं है और इसे हटाकर पुरानी पेंशन नीति लागू करने की मांग कर रहे हैं. अगर आंकड़ों की बात करें तो, इस बढ़ोत्तरी के साथ छोटे कर्मचारी का मूल वेतन अब 7 हज़ार से बढ़कर 18 हज़ार हो जायेगा और सबसे बड़े अधिकारी का वेतन 90 हज़ार से बढ़कर ढाई लाख तक हो जायेगा. जहाँ नए आईएएस (IAS) अधिकारी का मूल वेतन 23 हज़ार रुपये था अब उनको 56 हज़ार रुपये मिलेगा. इसके बावजूद अगर केंद्रीय कर्मचारी हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहे हैं, तो इससे उनकी मानसिकता समझी जा सकती है.
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अर्थव्यवस्था को सुधारने का दम भरने वाली मोदी सरकार इस बात को देखना शायद भूल गयी है कि सातवें वेतन आयोग के लागू हो जाने के बाद देश के खज़ाने पर सालाना 1 लाख 2 हज़ार एक सौ करोड़ रु का भार पड़ेगा जो जीडीपी का क़रीब 0.7% है. इसमें वेतन बढ़ोत्तरी पर 39,100 करोड़ खर्च होगा, भत्तों पर 29,300 करोड़ खर्च होगा और पेंशन पर 33,700 करोड़ रुपए खर्च होंगे. सरकार अपने ऊपर इतना भार ले रही है, जिसकी भरपाई देश की आम जनता ही करने वाली है. सरकारी कर्मचारियों के महासंघ ने हड़ताल पर जाने का ऐलान किया है, जिसमें रेलवे, पोस्ट और सेना की ऑर्डिनेंस फैक्टरी के कर्मचारी शामिल हैं. अगर रेलवे कर्मचारी भी इस हड़ताल में शामिल होते हैं तो ये 42 साल बाद पहला मौका होगा जब रेलवे कर्मचारी हड़ताल करेंगे. गौर करने लायक बात ये भी है कि हमारे देश के आम आदमी और एक सरकारी नौकरी वाले इंसान के तनख्वाह में वैसे ही काफी अंतर है. प्राइवेट सेक्टर की बात करें तो उसमें भी उन्हीं कुछ लोगों की तनख्वाह (Seventh pay commission) ज्यादा है जो काम करते हैं और कंपनी को फायदा पहुँचाते हैं. फिर ऐसे में क्या जरुरत आ पड़ी जो इतनी जल्दी सातवें वेतन आयोग को लागू किया जा रहा है. समझना मुश्किल है कि इससे कौन सी अर्थव्यवस्था में बदलाव आ जायेगा कि महंगाई कम हो जाएगी. अगर सच में कुछ करना ही था तो उन लाखों किसानों का कर्ज माफ़ कर देना था, जो हर साल कर्ज के दबाव में आत्महत्या करते हैं या फिर किसानों के लिए मुफ्त बीज-खाद का वितरण किया जा सकता था, या फिर मनरेगा में सुधार करके बजट को बढ़ाया जा सकता था, जिससे जरूरतमंदों तक यह पैसा पहुँचता.
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इससे भी बढ़िया होता अगर इतनी बड़ी राशि नौकरियों को पैदा करने में खर्च की जाती. मतलब, 5 साल में अगर 5 लाख करोड़ रूपया नए रोजगार पैदा करने में खर्च किया जाता तो हमारा देश कहीं बड़े संतुलन की ओर बढ़ता. इन सब के वावजूद मेरा ये मतलब कत्तई नहीं है कि सरकारी कर्मचारियों की कभी तनख्वाह ही न बढे, बल्कि उन के अंदर भी ये भावना आये की काम करेंगे तो आगे बढ़ेंगे. हर एक डिपार्टमेंट का लेखा-जोखा रखा जाना आवश्यक है और उसे कहीं न कहीं प्राइवेट सेक्टर से कम्पैरिजन किया जाना भी आवश्यक है. अगर सरकार इस बढ़ी हुई सेलरी (7th pay commission) की बदले 'उत्पादकता' और सरकारी काम की क्वालिटी बढ़ा सकी, तब तो यह कुछ हद तक जायज़ हो सकती है, अन्यथा यह भी 2 जी स्कैम, कॉल-स्कैम जैसी लूट ही है. भई! 21वीं सदी का सीधा फार्मूला, जितना पैसे ले रहे हो उतना काम भी करके दो अन्यथा 'नौकरी छोडो', क्योंकि दरवाजे पर तुमसे बेहतर कार्य करने वाले लोग लाइन में खड़े हैं! सीधी बात, नो बकवास!
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1 टिप्पणियाँ
The article is quite politicaly drifted, the writer forgot the pay structure in private sector where the job is demanding too but compensates with higher wages.
जवाब देंहटाएंThe writer forgot the doubled salaries, perks, fascilities of M.P's, M.L.A's etc, which gets passed through parliamentary procedures in a blink of eye, without being noticed by others outside. Politicians set their remunerations & perks by themselves but asks vote from public. Politician is doing "sewa" then how can they ask for salary and moreover pension too by just getting elected, and double triple pension and perks by getting elected for sewa again and again.
The writer forgot the real service to nation by our soldiers who puts their everything on the stake for the country but whenever remunerated with any pay commision only, the articles as above tries to challenge the decision.
Does the writer ever faced any frontier especially the frontier of siachin?
Writer tries to frame the pay commission in a wrong way which instead is a right of every service person. Writer shows schools in shabbles but forgot to ask the local politicians Why? But instead tries to put the pay commission as the reason for such condition of schools, I think writer was not aware of Jawahar Navodaya Vidyalayas in different parts of the country approx. more than 700 in no. the result, fascilities, world class education is the unbeatable bench mark of school, all this was served free earlier but on negligible fees these days. Staff at these schools are sacrificing their family time, social life, their own dreams by working almost 24 hrs, but when they ask for not handsome pay structure but mere threshold pay through pay commission which comes after long 10 years of time frame, the articles above term it desh par bojhh.
What a senseless article with cunning motives, is it, that too without knowledge?
writing anything rubbish on the name of writing an article, is not a good thing.