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ओलंपिक खेल परिणामों से 'निराशा' की बजाय 'सीख' लेने की जरूरत! Rio Olympics 2016, Hindi Article, New, Indian Players Performance, Analysis, Shobha De, Chinese Media



रियो ओलिंपिक में भारत का अभी तक का सबसे बड़ा दल हिस्सेदारी के लिए गया, किन्तु खेलों के महाकुम्भ में अभी भारत का हाथ खाली ही है. अमेरिका, ब्रिटेन, चीन जैसे देशों को तो छोड़ ही दीजिये, इस कड़ी में कीनिया, उज्बेकिस्तान, थाईलैंड और ईरान जैसे कई ऐसे देशों ने पदक हासिल कर दिखाया है, जिनके पास संशाधन और माहौल भारत के मुकाबले कमतर ही हैं. ज़ाहिर है, ऐसी स्थिति में देशवासियों के मन में 'निराशा' का भाव तो आता ही है, किन्तु निराशा से ज्यादा आवश्यकता उन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की जरूरत है, जो ऐसे निराशाजनक प्रदर्शन के कारक हैं. आखिर तभी तो इससे सीख ली जा सकती है और बिना सीख लिए ओलंपिक में अधिकाधिक पदक जीतने की बात सोचना तो 'सपना' ही है, बल्कि इसे 'दिवास्वप्न' कहा जाना चाहिए. 200 से अधिक देशों के इस संग्राम में भारत से 118 खिलाड़ियों का बड़ा समूह (Rio Olympics 2016, Hindi Article, New, Indian Players Performance, Sports Administrators) गया है, किन्तु 17 दिन चलने वाले ओलिंपिक का आधे से ज्यादा समय बीत गया है, लेकिन भारत की झोली अभी भी खाली है. भारत के सर्वाधिक बेहतरीन खिलाड़ियों से इस बार काफी उम्मीदें थीं, बल्कि कई विश्लेषकों ने दहाई अंक में पदकों की उम्मीद पाल रखी थी, किन्तु अच्छा प्रदर्शन करने के बाद भी लेश मात्र अंतर से पदक हासिल करने से हमारे खिलाड़ी चूक जा रहे हैं. अब दीपा करमाकर को ही ले लीजिये, 52 साल बाद भारत की पहली महिला जिम्नास्ट दीपा बेहद थोड़े अंतर से कांस्य पदक से चूक गयीं. हालाँकि, उनकी तारीफ़ आम-ओ-खास सभी ने की. रियो ओलंपिक में जिमनास्टिक की वॉल्ट इवेंट में वो पदक तो नहीं जीत पाईं लेकिन अपने शानदार प्रदर्शन से उन्होंने लोगों का दिल जरूर जीत लिया. सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने ट्वीट किया, "दीपा कर्मकार. आप भारत का गर्व हो. आप जैसे लोग ही हम सबको अपनी ज़िंदगी में बेहतर करने की प्रेरणा देते हो. आपको बहुत बधाई." इसी सम्बन्ध में क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग ने लिखा, "जिमनास्टिक, जिसके लिए भारत में मूलभूत सुविधाओं की बेहद कमी है, उस खेल के लिए पूरे भारतवासियों को आधी रात को इकट्ठा करने के लिए आपको बहुत शुक्रिया." ऐसे ही, बीजिंग ओलिंपिक 2008 के गोल्ड मेडलिस्ट निशानेबाज अभिनव बिंद्रा भी मामूली अंतर से चौथे स्थान पर रह गए. 

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इसी तरह साइना नेहवाल जो दुनिया की नंबर वन बैडमिंटन खिलाडी रह चुकी हैं, कुछ ही मैच के बाद मात खा गईं. इन कुछेक खिलाड़ियों को छोड़ दिया जाए तो दूसरे खिलाड़ियों ने तो अपनी प्रदर्शन से वाकई भारत का सर नीचा करने का ही काम किया. इसमें 36 साल बाद ओलिंपिक में हिस्सा लेने गई महिला हॉकी टीम ने पहले एक दो मैच में ही दम तोड़ दिया. ऐसे ही कई रिकॉर्ड अपने नाम कर चुकी ग्लैमरस सानिया मिर्जा भी कुछ खास नही कर सकीं. लिएंडर पेस, गगन नारंग जैसे ऐसे ही कई दूसरे नाम हैं, जिनके प्रयासों में कहीं भी ओलंपिक वाली बात नज़र नहीं आयी. ज़ाहिर तौर पर इसके कई कारण हो सकते हैं, किन्तु मुझे जाने वाले एक अनुभवी व्यक्ति ने इस सम्बन्ध में एक दिलचस्प ज़िक्र किया कि "भारतीय मेहनती तो होते हैं, किन्तु 'जुझारू' नहीं होते हैं." मैंने उन्हें थोड़ा और कुरेदा तो उन्होंने कहा कि कई भारतीय खिलाड़ी और अधिकारी तो इसी बात से खुश हो गए होंगे कि उन्हें सरकारी खर्चे पर 'रियो' जाने का अवसर मिल रहा है. उसकी इस बात पर मैंने उसे टोका कि आप 'शोभा डे' जैसे बात कर रहे हो! तो उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया कि भारतीय खेल अधिकारियों और खेल संघों के बारे में शोभा डे की टिपण्णी 100 फीसदी सटीक (Rio Olympics 2016, Hindi Article, New, Indian Players Performance, Shobha De Comments) है, जबकि हमारे खिलाड़ियों में 'जुझारूपन' पैदा करने की आवश्यकता है. उनके 'जुझारूपन' शब्द पर मैं थोड़ा चिढ़ गया और थोड़ा तेज स्वर में पूछा कि 'क्या आप यह कहना चाहते हैं कि हमारे कई खिलाड़ी 'पदक' जीतने नहीं गए थे'? इस पर उन्होंने मुझसे काउंटर प्रश्न किया कि 'तुम बताओ कि 118 खिलाड़ियों में से कितने खिलाड़ी 'गोल्ड मैडल' जीतने गए थे? मैंने अपनी दिमाग में नाम गिनना शुरू किया तो अनुभवी अभिनव बिंद्रा, दीपा जैसे एक दो नाम ही ले सका, जिनसे गोल्ड मैडल की आस थी. मेरा इतना कहना था कि वह महानुभाव मेरे ऊपर हावी हो गए और कहने लगे कि 118 खिलाड़ियों में से 1 या 2 को ही 'गोल्ड मैडल' जीतने का विश्वास रहा होगा, बाकियों का क्या? बाकी भारतीय खिलाड़ी तो पहले से ही कांस्य पदक सोच कर गए होंगे या फिर ... !! हालाँकि, मैं उनके यहाँ से नाराज होकर चला आया, किन्तु सोचा कि क्या वाकई 'गोल्ड मैडल' पाने से कम सोचने वालों के लिए ओलंपिक मंच है? जो तीनों खिलाड़ी किसी भी खेल में तीनों मैडल जीतते हैं, कमोबेश उनकी क्षमता बराबर होती है तो उस खास दिन किसी का प्रदर्शन कुछ पॉइंट से बेहतर या कमतर हो जाता है और फर्क वहीं पैदा हो जाता है. ओलंपिक में 90 फीसदी मैडल विजेता पॉइंट से ही जीतते और हारते रहे हैं, वह चाहे अभिनव बिंद्रा हों, दीप करमाकर हों या फिर पूर्व में पीटी उषा या फिर मिल्खा सिंह! भारत के ओलंपिक सफर पर 'शोभा डे' जैसे लोगों की बदज़ुबानी के बाद 'चीनी मीडिया' ने भी इस पर चुटकी ली, किन्तु दोनों की टिप्पणियों में एक 'सीख' भी है. आखिर कबीर दास कह गए हैं कि- 

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय

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शोभा डे की टिपण्णी तो थोड़ी 'चीप-टाइप' थी, किन्तु ओलिंपिक में भारत के धाराशायी होने पर चीन ने इसका कारण बताने की कोशिश की है. इस मामले में चीन का हक़ भी बनता है क्योंकि ओलंपिक गेम्स में उसका नंबर अक्सर अमेरिका के बाद ही रहता है, हालाँकि, इस बार वह तीसरे स्थान पर है. इस सम्बंध में चीनी मीडिया का मानना है कि भारत में क्रिकेट को छोड़ अन्य किसी खेल को ज्यादा महत्व नही मिलता है, जिससे दूसरे खेलों को स्पांसर मिलने में और उसके विकास में स्वाभाविक दिक्कत आती है. इससे आगे चीनी मीडिया के अनुसार, अमीर गरीब में अंतर के साथ-साथ लड़कियों को खेल से दूर रखना भी भारत में ओलंपिक लायक खिलाड़ी न उत्पन्न होने के बड़े कारणों में से एक है. चीनी मीडिया (Rio Olympics 2016, Hindi Article, New, Indian Players Performance, Analysis, Shobha De, Chinese Media) ने अन्य कारणों में बताया कि भारत के युवा-वर्ग पर डॉक्टर और इंजीनियर जैसे ट्रेडिशनल जॉब्स का कल्चर ही ज्यादा रहता है तो खेल से जुड़े संशाधनो के साथ साथ खाने पीने की भी कमी होती है. चीन का यह तर्क सही ही दिखता है. अभी हाल ही में ओलिंपिक जिम्नास्ट में चौथा स्थान प्राप्त करने वाली दीपा की बात करें तो उनके पास ट्रेनिंग करने के लिए जूते तक नही थे. मामला यहीं तक हो तो एक बात किन्तु, यदि अपने दम पर खिलाड़ी ओलिंपिक के लिए चुने भी जाते हैं और खुदा न खास्ता पदक जीत भी लाये तो देश लौटने के बाद उनको दो दिनों का जश्न और सामान्य ज्ञान की किताबों में दर्ज दर्ज करके छुटकारा पा लिया जाता है, जबकि उसके बाद वे कहां गए, क्या कर रहे हैं, कैसे जीवन गुजार रहे हैं, इससे खेल संघों को कोई मतलब नही होता है. कई बार खिलाड़ी इतने बदहाल हो जाते हैं, कि उन्हें अपना पदक तक बेचना पड़ जाता है. ऐसा नहीं है कि उन खिलाड़ियों के लिए हमारा देश कुछ नहीं करता है, लेकिन जो सुविधाएं और पैसे खिलाड़ियों को मिलने चाहिए, उस पर अधिकारी मौज करते हैं और खिलाड़ी डर्टी खेल पॉलिटिक्स के चक्कर से दूर रहकर बदहाल ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो जाते हैं. ऐसे में, खिलाड़ियों के साथ ऐसा होते देखने के बाद, कोई भी भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को खेल में करियर बनाने के लिए कैसे तैयार होगा? 

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हरियाणा जैसे कुछ राज्य अपने क्षेत्र से उभरने वाले खिलाड़ियों को नौकरी के साथ साथ संसाधन भी उपलब्ध जरूर कराते हैं, किन्तु वहां भी खिलाड़ियों के साथ गन्दी राजनीति की जाती है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में तब मिला जब पहलवान नरसिंह यादव को धोखे से प्रतिबंधित दवा खिलाने की बात सामने आयी. पिछले दिनों सामने आये इस केस में पीएम तक को इन्वोल्व होना पड़ा था, जिसके बाद ही नरसिंह यादव का ओलंपिक जा पाना संभव हो सका! जाहिर है, खेलों में प्रशासनिक भ्रष्टाचार भी एक बड़ा कारण है, जिससे प्रतिभाएं दम तोड़ देती हैं. विश्व के अनेक देशों में खेल एक पूर्णकालिक कैरियर के रूप में लिए जाते हैं, जबकि भारत में यह दर्जा सिर्फ और सिर्फ 'क्रिकेट' (Rio Olympics 2016, Hindi Article, New, Indian Players Performance, Analysis, Shobha De, Chinese Media, Cricket importance) को ही मिल सका है, दूसरे खेल इससे महरूम ही हैं. हालाँकि, पिछले दिनों फुटबाल लीग, कबड्डी लीग, बैडमिंटन लीग जैसे प्रयास जरूर दिखे हैं, किन्तु उससे खेलों को कम प्रमोशन मिलता है, जबकि उसमें व्यावसायिकता को ज्यादा घुसेड़ दिया जाता है. व्यावसायिकता बुरी चीज नहीं है, किन्तु खेलों का विकास हो, इस बात की प्राथमिकता अवश्य ही सुनिश्चित की जानी चाहिए. हालाँकि, अभी कुछ दिनों का ओलंपिक खेल बाकी है, किन्तु अगर एकाध पदक भारत जीत भी ले, तो भी हमें क्यों खुश होना चाहिए? अगर इकॉनमी में, ताकत में, जनसँख्या में हम विश्व में सबसे आगे हैं तो ओलंपिक में टॉप 5 नहीं तो, कम से कम टॉप 10 देशों में अवश्य ही होना चाहिए. अगर उससे पहले हमारा देश ओलंपिक परिणामों पर खुश होता है, तो यह खोखला ही होगा और इसी प्रकार का खोखलापन रियो ओलंपिक में भी उजागर हो रहा है, जिसे देश निराश भी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि हम भारत के नागरिक निराश होने की बजाय रियो ओलंपिक खेलों से 'सीख' लेने को तैयार होंगे!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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