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'तीन तलाक' पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की ऐतिहासिक टिपण्णी!

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यह विडंबना ही है कि देश के न्यायालयों द्वारा तमाम ऐतिहासिक फैसले देने के बावजूद संबंधित संगठन और उससे प्रभावित होने वाले लोग विवाद खड़ा करने की कोशिश करते रहते हैं. हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब मुस्लिम महिलाओं की याचिका पर 'तीन तलाक' की इस्लामिक परंपरा को अमानवीय बताते हुए किसी भी पर्सनल ला को संविधान से ऊपर बताने से मना कर दिया, तो उस पर भी विवाद खड़ा करने की पुरजोर कोशिश शुरू की जा चुकी है. मुस्लिम महिलाएं जहां कोर्ट की इस टिपण्णी से खुश हैं, वही मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड इस मामले में रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाने से बाज नहीं आ रहा है. 21वीं सदी में लोग जहां अंतरिक्ष विमान और सुपर कंप्यूटर की बात कर रहे हैं, उस की सहायता से मानव जीवन को बेहतर बना रहे हैं, वहीं कुछ लोग मध्ययुगीन परंपराओं की दुहाई देकर मनुष्यों का जीवन बद से बदतर बनाने में जुटे हुए हैं. थोड़ा विस्तार से विचार करते हैं तो विवाह नामक संस्था का भारतीय इतिहास में और समस्त वैश्विक इतिहास में बड़ा ही महत्व रहा है. समझना मुश्किल नहीं है कि एक महिला अपना सब कुछ छोड़ कर किसी पुरुष के साथ ब्याही जाती है, और जब मात्र कुछ क्षणों में, अकारण ही किसी साधारण कारण से उसे तीन बार 'तलाक- तलाक- तलाक' कह कर घर से बाहर निकाल दिया जाता है, तो उस पर क्या बीतती होगी? धर्म की आड़ लेकर उसकी गलत व्याख्या करने वाले पोंगापंथियों ने अगर इस अमानवीय परंपरा को अब तक बनाए रखा है, तो इसमें हमारे राजनेताओं द्वारा संचालित वोट बैंक का भी बड़ा अहम रोल है. राजीव गांधी के समय के शाहबानो प्रकरण को यह देश भला भूल सकता है क्या? तब एक मुस्लिम महिला को सात सालों तक अदालती लड़ाई लड़ने और उच्चतम न्यायालय से अपने हक़ में फैसला ले आने के बावजूद निर्वाह-व्यय देने से इनकार कर दिया गया था और नागरिक संवैधानिक अधिकारों के साथ मानवता को कुचलने का घोर तुष्टिकरण किया था तथाकथित आधुनिकतावादी राजीव गांधी ने, जिन्हें देश में कम्प्यूटर्स को बढ़ावा देने का श्रेय कांग्रेस बड़े गर्व से देती है. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिपण्णी के बावजूद इस मामले में भी क्या होगा, इस पर सभी की नज़रें टिकी हुई हैं. Triple Talaq, Allahabad High Court, Muslim Women, Hindi Article, Social, Islam, Muslim Personal Law, Supreme Court of India, Political Community


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गौरतलब है कि पिछले दिनों भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नामक संस्था महिला अधिकारों के लिए जोर शोर से आवाज उठाने में जुटी हुई है, ताकि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति और तीन तलाक से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का निदान संभव हो सके, किंतु रुढ़िवादी और चरमपंथी इस मानवीय दृष्टिकोण को भी धर्म पर खतरा मान बैठे हैं! आप किसी भी तीन तलाक परंपरा के तथाकथित समर्थकों से मिलिए, तो वह आपको ऐसे तर्क देंगे मानो तीन तलाक व्यवस्था मुस्लिम महिलाओं के हित में अगर खत्म की गयी तो इस्लाम ही खतरे में पड़ जाएगा! असहिष्णुता, सहिष्णुता और जाने कौन-कौन से विषय वह गिना देंगे, किंतु हकीकत क्या है यह बात उन्हें भी खूब पता है और इसी हकीकत को बेपर्दा करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय को बधाइयां मिलनी चाहिए. प्रश्न उठता ही है कि तीन तलाक से महिलाएं आखिर क्यों नारकीय पीड़ा सहें? अगर पुरुष अपनी जिम्मेदारी से भागने की खातिर बीच रास्ते में उसे 'तलाक तलाक तलाक' बोल देता है तो फिर उसके सामने बड़ी विकट स्थिति पैदा हो जाती है और महिला सहित उसके बच्चों को अनाथ का जीवन व्यतीत करने को मजबूर होना पड़ता है. जानबूझकर जो तलाक दिए जाते हैं, उसके बाद तो खैर पूरे जीवन भर उस महिला को दुख भोगना पड़ता है, किंतु अगर गुस्से में या भूल से ही, या नींद में बड़बड़ाते हुए भी अगर किसी का पति तीन बार तलाक बोल दे, तो उस महिला को 'हलाला' जैसी अमानवीय और शर्मनाक प्रथा से गुजरना पड़ता है. जहां तक मुझे जानकारी है, उसके बाद उस महिला को किसी पर पुरुष के साथ निकाह और सम्बन्ध बनाना पड़ता है और फिर उससे तलाक ले कर पुनः अपने पति के पास आना पड़ता है. इस नियम का भारी दुरूपयोग मुल्ले मौलवी करते हैं. समझना मुश्किल नहीं है कि ऐसी हालत तो किसी खिलौने की भी ना होती होगी, जैसी तीन तलाक जैसी परंपरा होने के कारण किसी जीती-जागती मुस्लिम महिला की हो जाती है. बंद होना चाहिए, बंद होना चाहिए, बंद होना चाहिए, इस तरह की शर्मनाक प्रथाओं को तात्कालिक रुप से बंद होना चाहिए! पहले भी हमारे समाज में सतीप्रथा, बालविवाह जैसी अनेक अमानवीय प्रथाएं रही हैं, जिसे धर्म से जोड़ा गया है, किंतु समय के साथ वह भी बंद हुई हैं, तो फिर तीन तलाक जैसी मध्ययुगीन परंपरा अब तक लागू ही क्यों है? इसके लिए मुस्लिम समाज को खुलकर आगे आना चाहिए, अन्यथा मुस्लिम महिलाएं बगावत करेंगी तो फिर अवश्य उनके ऊपर संकट आ जाएगा. Triple Talaq, Allahabad High Court, Muslim Women, Hindi Article, Social, Islam, Muslim Personal Law, Supreme Court of India, Political Community


जहां तक बात है इस्लाम पर खतरे की, तो कभी उसके नाम पर जेहादीयों द्वारा बम फोड़ दिया जाता है, तो कई बार अतिवादियों द्वारा नारकीय पर्सनल कानूनों को प्रोत्साहित किया जाता है, जबकि विद्वान जानते हैं कि इस तरह की अनर्गल इस्लामिक व्याख्याओं का इस्लाम से कोई लेना देना ही नहीं है. बात बस मनमानी व्याख्या की है और इसके जिम्मेदार सिर्फ मुल्ला मौलवी ही नहीं हैं, बल्कि दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी नेता आज भी मौजूद हैं, जो राजनीति करने से बाज नहीं आते. कोर्ट की इस ऐतिहासिक टिपण्णी पर ट्वीट करते हुए दिग्विजय सिंह ने लिखा है कि, '' मैं बड़ी विनम्रता से माननीय अदालतों से अनुरोध करना चाहूंगा कि उन्हें धर्म और धर्मों के रीति रिवाज़ में दख़लअंदाज़ी नहीं करना चाहिए.'' उनके इस ट्वीट पर किसी ने बड़ा खूबसूरत जवाब लिखा है कि "तीन तलाक धर्म से नहीं, मानवीय यातना से जुड़ा मुद्दा है, ठीक सती-प्रथा की तरह, तुष्टिकरण का चश्मा बदलो"! शर्म है उनको मगर आती नहीं की तर्ज पर दिग्विजय सिंह जैसे भला कब शरमाते हैं? अगर इस सम्बन्ध में बारीकियों की बात की जाये तो सुन्नी मुसलमानों में 'इंस्टेंट ट्रिपल तलाक' कुछ ही मुसलमानों, खासकर देवबंदियों में माना जाता है, जबकि दुसरे सुन्नी एकाध महीने के अंतर पर तीन बार तलाक बोलते हैं. पर नाक चाहे सीधे हाथ से पकड़ी जाए अथवा सर के पीछे से हाथ घुमाकर लाया जाए, बात तो वही है न! Triple Talaq, Allahabad High Court, Muslim Women, Hindi Article, Social, Islam, Muslim Personal Law, Supreme Court of India, Political Community


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हालाँकि, शमीम आरा जैसे कुछ मामले भी हैं जहाँ अदालत में जाकर ट्रिपल तलाक का मामला रद्द कराया गया है. इसके अनुसार, तकरीबन 14 साल पहले एक मुसलमान औरत शमीम आरा ने उन्हें दिए गए 'इंस्टेंट ट्रिपल तलाक़' को चुनौती दी थी और सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने तलाक़ रद्द कर उनके हक़ में फ़ैसला सुनाया था, पर गूगल में खूब ढूंढने और शोध करने के बावजूद यही एकाध मामले सामने आते हैं, जबकि औरतों पर अत्याचार के मामले कहीं ज्यादे हैं. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में सारगर्भित टिपण्णी करते हुए गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में डाल दी है, चूंकि ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. बताते चलें कि इसी से सम्बंधित सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार से उसका रुख़ जानना चाहा था, तो सरकार ने जनता के समक्ष एक प्रश्नावली रख दी थी, जिस पर काफी होहल्ला मचा था. देखना दिलचस्प होगा कि माननीय उच्चतम न्यायालय इन समस्त चर्चाओं और मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा को देखते हुए क्या रूख अख्तियार करता है. उससे भी आगे बढ़कर नेताओं का रूख भी देखना दिलचस्प होगा, क्योंकि अक्सर अदालती आदेश 'तुष्टिकरण' की भेंट चढ़ ही जाते हैं, बेशक इलाहाबाद हाई कोर्ट कोई ऐतिहासिक टिपण्णी कर ले अथवा सुप्रीम कोर्ट कोई ऐतिहासिक फैसला ही क्यों न दे ले! बड़ा सवाल यही है और निश्चित तौर पर नारी अधिकारों पर आने वाले दिनों में बड़ा बदलाव हो सकता है, क्योंकि अपने अधिकारों के लिए नारियां खुद सड़कों पर उतर रही हैं, फिर चाहे मुस्लिम महिलाएं हों अथवा दूसरी महिलाएं!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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