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आत्मघाती है मीडिया का पूर्ण व्यवसायीकरण - New hindi article on Media institution, democracy, digital agencies, social media, trp game

यह कोई ऐसा विषय नहीं है जो नया आया हो, बल्कि समाज का प्रत्येक क्षेत्र इस 'पूर्ण व्यवसायीकरण के जीवाणु' से घातक रूप से पीड़ित हैं. हालाँकि, मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है जो सही-गलत का फर्क तथ्यों के आधार पर बताता रहा है और समाज उसी के अनुसार विभिन्न मुद्दों पर निर्णय करता रहा है. कुछ समय पहले तक यह पेशा बेहद सम्माननीय भी रहा है, किन्तु हाल के दिनों में इसमें जबरदस्त गिरावट दर्ज की गयी है. हाल ही में फेसबुक पर एक पत्रकार मित्र ने एक पुरानी और जर्जर साइकिल की तस्वीर, जिसके आगे बड़ा सा PRESS लिखा हुआ है, उसे डालते हुए लिखा कि "दुनिया हम पत्रकारों को बेशक तुर्रम खां समझती हो, लेकिन हमें अपनी औकात पता है." उनका मंतव्य भले ही कुछ और रहा हो, किन्तु उस तस्वीर पर आये एक कमेंट ने पत्रकार बिरादरी को झकझोर कर रख दिया. एक मोहतरमा ने उस पर बेबाक अंदाज में टिप्पणी की और कहा कि "यकीनन वह दलाल नहीं होगा." आप अगर मीडिया से जुड़े हुए हैं तो आपको इस पांच शब्दों की टिप्पणी को समझने में ज्यादा समय नहीं लगेगा, लेकिन अगर इस टिप्पणी की व्याख्या करने आप बैठ जाएँ तो प्याज के छिलके की भांति एक एक करके परतें निकलती जाएँगी और अंत में कुछ भी नहीं बचेगा! सवाल उठता ही है और आज से नहीं, बल्कि पिछले कई दशकों से यह सवाल उठ रहा है कि क्या वाकई लोकतंत्र के चौथे-स्तम्भ के रूप में जानी जाने वाली मीडिया आज 'दलाल' से ज्यादा अहमियत नहीं रख रही है? 

क्या सच में बाज़ार अपने इशारों पर प्रत्येक तरह की मीडिया को नचा रहा है? समस्या सिर्फ यहाँ तक भी रहे तो चल जाए, लेकिन मुश्किल यहाँ तक आ पहुंची है कि टीआरपी के खेल में उलझकर 'प्रेस/ मीडिया' जैसे शब्द गायब होने के कगार पर आ पहुंचे है और उसकी जगह ले ली है 'कॉर्पोरेट प्रतिद्वंदिता' ने! ऐसा नहीं है कि किसी के पास कोई खबर नहीं है, सही-गलत परखने वाले लोग नहीं है, खबरों की तह तक पहुँचने की रिसोर्सेस नहीं है, स्टोरी लिखने वाले कलमकार नहीं हैं .... बल्कि यह सब तो पहले से काफी ज्यादा मात्रा में उपलब्ध है आज, लेकिन यह सारी रिसोर्सेस बजाय की पत्रकारिता करने के, सिर्फ और सिर्फ 'व्यावसायिक हित' साधने के काम में लाई जा रही हैं! निश्चित रूप से थोड़ा बहुत पत्रकारिता भी इस बीच आटोमेटिक तरीके से हो जाती हैं, लेकिन पत्रकारिता करते कितने लोग हैं, इसका जवाब इस लेख की ऊपरी लाइन में उस 'दलाल' वाले कमेंट से अवश्य ही मिल जाती हैं. इन मुद्दों पर ध्यान देना अब इसलिए भी ज़रूरी हो गया है क्योंकि यह साफ़ हो चुका है कि पहले एखलाक, सहिष्णुता-असहिष्णुता, रोहित वेमुळे और उसके बाद जेएनयू मसले को लेकर मीडिया काफी हद तक व्यावसायिक उन्मादी हो गया दिखने लगा है. विशेषकर जेएनयू के मसले में, देश विरोधी नारे लगाते छात्रों के एक कथित वीडियो के सामने आने के बाद पुलिस कैंपस में गई, कन्हैया नामक छात्र को गिरफ़्तार किया गया, वकीलों ने दिल्ली में अदालत के बाहर पत्रकारों, छात्रों और शिक्षकों को पीटा. यह सब होने के बावजूद मामला इतना नहीं बिगड़ा था, लेकिन ये न्यूज़ चैनल थे जो इस मसले को असहमति के अधिकार से आगे ले गए. कई संपादकों, पत्रकारों ने अपनी दलीलों की आवाज़ ऊंची की और दूसरों पर जमकर हमला बोला. ये तीखापन और तंज़ इसलिए भी ख़तरनाक माना जाना चाहिए क्योंकि एक बड़े चैनल एनडीटीवी ने अपनी टेलीविजन की स्क्रीन काली की, मगर यह स्क्रीन काली किसी सरकार या प्रशासन के विरोध में नहीं की गयी, बल्कि यह मीडिया के खिलाफ ही स्क्रीन काली हुई थी. 

ज़रा सोचिये, टीआरपी के इस गेम को, जब बड़े मीडिया घराने एक-दुसरे पर जमकर हमला बोल रहे हैं, क्योंकि निश्चित रूप से उनके व्यावसायिक हित आपस में टकरा रहे हैं! विचारधारा के प्रति झुकाव कहीं पीछे छूट गया है और यह ख़तरनाक स्तर की मानसिकता और एक-दुसरे पर हमलों ने मीडिया के अंदर और बाहर कई लोगों को हिलाकर रख दिया है. सवाल इसके आगे तक जा रहा है. हज़ारों ऐसे अख़बार और मीडिया संस्थान हैं जो पैसा नहीं कमाते लेकिन उनके मालिक उन्हें बेचते नहीं क्योंकि ये रसूख जमाने और वसूली के हथियार बन चुके हैं. कुछ और आंकड़ों पर गौर किया जाय तो, टीवी में दर्शकों और विज्ञापनों की संख्या कम होती दिख रही है. इसका मतलब ये हुआ कि न्यूज़ चैनलों में होड़ है. साल 2012 में एक अपुष्ट विश्लेषण से पता चला कि तब के 135 चैनलों में से एक तिहाई का इस्तेमाल उनके मालिक राजनीतिक प्रचार या अपना रसूख बढ़ाने के लिए कर रहे थे. एक और बेहद दिलचस्प बात आप देखेंगे तो समझ जायेंगे कि 'सोशल मीडिया' की चीरफाड़ को यह संस्थागत मीडिया संस्थान क्योंकर बदनाम कर रहे हैं. साफ़ है कि उन पर लगाम अगर कोई लगाने की कोशिश कर रहा है तो वह सोशल मीडिया के माध्यम से सीधी जनता ही है. हाँ! इसमें कुछ उथल-पुथल जरूर हो रही है, लेकिन जब मीडिया और उसके रहनुमा 'दलाली' पर उतर जाएँ तो जनता क्या करे? हालाँकि, इस स्याह पक्ष का व्यवहारिक पहलु भी है जो आपको क्रोधित करने के बजाय 'चिंतन' की ओर ज्यादा धकेलता है. एक मेरे पत्रकार मित्र हैं, जिनकी छवि अपेक्षाकृत ईमानदार की रही है. बिचारे, कम बजट में जैसे-तैसे अपना गुजरा करते थे, लेकिन उनकी लेखनी की चर्चा खूब होती थी. एक दिन उनके पास गुडगाँव स्थित किसी पीआर कंपनी का फोन आया, जिसने उन्हें एक आर्टिकल लिखने के लिए 6000 रूपये तक ऑफर किया. मित्र महोदय चौक गए, क्योंकि अब तक उन्हें उनके लेखों के लिए 100, 500 और अधिकतम 1,000  रूपये तक मिल जाया करते थे, लेकिन यहाँ उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्हें एक आर्टिकल के लिए इतना ज्यादा ऑफर किया गया. 

बाद में उन्हें पता चला कि यह एक प्रदेश में आ रहे चुनावों को लेकर सरकार के पक्ष में लिखने के लिए था, जिसका ठेका उस पीआर एजेंसी ने लिया था. अब मामला साफ़ था, लेकिन मित्र महोदय बड़ी कश्मकश में फंस गए थे, क्योंकि अगर महीने में वह चार-पांच आर्टिकल भी लिख देते तो 25  - 30  हज़ार खूब आराम से आ जाते, जिसकी उन्हें जरूरत भी थी. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज स्वतंत्र पत्रकार, फ्रीलांसर और जरा भी योग्य व्यक्ति इस तरह की पीआर एजेंसियों द्वारा नियंत्रित हो रहे हैं अथवा किये जा रहे हैं. अब लोकतंत्र की उस स्थिति की कल्पना कर लीजिये, जब संस्थागत मीडिया संस्थान पूर्ण व्यवसायिकता और टीआरपी गेम में डूबे हों, स्वतंत्र लोग बैक डोर से तमाम एजेंसियों द्वारा नियंत्रित हो रहे हों, होने की कगार पर हों, सोशल मीडिया की आवाज को भीड़ कहकर खारिज कर दिया जाता हो, जो थोड़ा बहुत बचे लोग हैं उन्हें सीधे तौर पर 'दलाल' माना जा रहा हो, ऐसे में आपको रौशनी की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं दिखती, सिवाय इसके कि जनता इन मामलों में 'नीर-क्षीर' का विवेक तेजी से विकसित करे और 'इंटरनेट' के इस युग में यह इतना मुश्किल भी नहीं है. हाँ! इसे संगठित और सजग रूप लेने में समय अवश्य लग सकता है, किन्तु मीडिया का भविष्य या तो इसी ओर जायेगा, अथवा .... भगवान ही जाने!

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