श्री श्री रविशंकर का विश्व सांस्कृतिक महोत्सव काफी चर्चित कार्यक्रम रहा. इसके कंटेंट का कितना प्रभाव पड़ा यह तो बाद की बात है किन्तु इसकी नैतिकता पर शुरुआत में उठे प्रश्नचिन्ह इस कार्यक्रम के प्रभाव की एकाउंटेबिलिटी की ओर देखने की जरूरत महसूस कराता है. संस्कृत रक्षण, विश्व शांति, जीवन जीने की कला का प्रसार जैसे तमाम सूत्रवाक्यों से इस कार्यक्रम की महिमा का बखान किया गया तो राजनीति और धर्मक्षेत्र के तमाम बड़े दिग्गजों ने इस मंच की शोभा बढ़ायी. आखिर इसके समापन के बाद पूछा जाना चाहिए कि ऐसा कौन सा परिवर्तन आ गया जिसके लिए 500 करोड़ रूपये से अधिक इसके आयोजन में खर्च किये गए तो उससे बढ़कर कानून के सामने भी ताकत का प्रदर्शन किया गया, छुपे रूप में ही सही! टेलीविजन के सामने आकर 35 लाख लोगों के एकत्रीकरण की बात कही गयी तो दिल्ली और देश की जीडीपी के सम्बन्ध में भी तमाम गर्वोक्तियां प्रकट की गयीं. लोग पूछ रहे हैं कि पर्यावरण नियमों का उल्लंघन, सेना का इस्तेमाल, सुरक्षा के अति उच्च तामझाम और शायद मंतालय स्तर पर 250 करोड़ की सब्सिडी से कितना कुछ हासिल हो गया, सिवाय इसके कि कार्यक्रम में 'श्री श्री आयुर्वेदा' का ब्रांड प्रचारित किया गया. देश भर से आये तमाम संतों, मनीषियों को 'पुड़िया' बांटी गयीं तो अपने लेबल लगाकर 'श्री श्री' ने जबरदस्त मार्केटिंग की नजीर प्रस्तुत की.
आश्चर्य तो यह कि संस्कृति के नाम पर तमाम धज्जियां उड़ा देने वाली मीडिया इस मामले पर लगभग खामोश ही रही, तो कई चैनलों ने इस शो को 'लाइव' तक दिखाया, जो निश्चित रूप से 'पुड़िया-संस्कृति' की पुष्टि करता है. क्या वाकई इसी भाव से संस्कृति का प्रचार और रक्षण हो सकता है? क्या संस्कृति आज के समय में व्यावसायिकता की 'मोहताज' रह गयी है? क्या वाकई इन तमाम गतिविधियों से हमारे देश का युवा वर्ग संस्कारित हो रहा है? अगर नहीं तो फिर रूकने की जरूरत है! भागमभाग और भौतिकवाद के युग में संस्कृति रक्षण का यक्ष प्रश्न कहीं ज्यादा विचारणीय हो गया है तो इसके कई झूठे-सच्चे पहरेदार मैदान में आ खड़े हुए हैं, जिससे भ्रम की चादर कहीं ज्यादा गहरी हो गयी लगती है. आप चारों ओर नज़र दौड़ा दें तो और हो रही गतिविधियों का आंकलन करें तो किंचित प्रयास ही आपको सार्थक प्रतीत होंगे, अन्यथा हर जगह मामला आपको स्वार्थ और कोरी व्यावसायिकता का ही नज़र आएगा! क्या यह कारण नहीं है कि एक ओर जहाँ सुविधाएं बढ़ रही हैं, तकनीक सम्पन्नता बढ़ रही है, भव्यता बढ़ रही है, वहीं संस्कृति का क्षरण लगातार ही हो रहा है. इस पूरी प्रक्रिया में कोई एक व्यक्ति दोषी नहीं है, न ही एक संस्था दोषी है, बल्कि समय के चक्र में सब अनायास ही लिपटते जा रहे हैं और जाने अनजाने वह सब भी उन्हीं कुरीतियों को बढ़ावा दे रहे हैं, जो इसके रक्षक होने का दावा करते हैं. एक विद्वान ने चर्चा के दौरान बताया कि भारतीय संस्कृति का रक्षण उत्सवों के द्वारा ही किया गया है, किन्तु इसके विपरीत यह भी सच है कि उत्सवों से ही हमारी संस्कृति का क्षरण भी हुआ है, क्योंकि उत्सवों की आड़ में कई दुसरे प्रकार के ऐसे कार्य भी होते रहे हैं, जिनको सभ्य समाज द्वारा समर्थन शायद ही मिले. हाल ही के दिन में एक अजब ट्रेंड देखने को मिला है कि अगर आप किसी के कार्य की आलोचना करें, उसकी नैतिकता-मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह उठाएं तो वह तत्काल ही कह उठता है कि 'वह' भी तो करता है, फिर मुझ पर ही प्रश्नचिन्ह क्यों? बात यहाँ तक भी रहे तो काम चल जाए, किन्तु जिस व्यक्ति की गलती पकड़ी जाती है, वह पहले अपनी जाति और उसके बाद अपने धर्म वालों को भी लपेट लेता है और कहता है कि उसकी आलोचना सिर्फ इसलिए की जा रही है क्योंकि वह 'अमुक' धर्म का है! इसके बाद संस्कृति रक्षण का बड़ा सा प्रश्न उठता है और उस प्रश्न पर टकराव करने के लिए गुट तैयार होकर आपस में भिड़ जाते हैं. बस! हो जाता है 'संस्कृति-रक्षण!
इसके बाद तमाशा शुरू होता है राजनेताओं का. अपने-अपने वोट बैंक के अनुसार नेताओं का खेमा सड़क से संसद तक मनोवांछित मुद्दा उठाता है, मीडिया अपने-अपने मिले हिस्से के अनुसार उन मुद्दों को सींचता है और संस्कृति के रक्षण के नाम पर ढोल बजा बजाकर तमाशा किया जाता है. कोई संस्कृति रक्षण के नाम पर अपने भक्तों को अपनी कंपनी द्वारा लांच प्रोडक्ट्स की पोटली पकड़ा देता है तो कोई संस्कृति रक्षण के नाम पर सैकड़ों करोड़ फूंक कर गर्वोन्नत होकर कहता है कि उसने तो राज्य और देश की जीडीपी बढ़ाने का कार्य किया है! संस्कृति रक्षण का कार्य यहीं तक हो तो फिर भी बर्दाश्त कर लिया जाय, किन्तु देश के विद्यालयों और विश्विद्यालयों में शिक्षा और शिक्षण के नाम पर राजनीति और देशद्रोह की काली करतूतों का मजमा जमाया जा रहा है तो देश के जवानों का चरित्र हनन करने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताया जा रहा है. विद्यालयों में बच्चों को कोचिंग करने के लिए प्रेरित किया जाता है तो घर परिवार संयुक्त से एकल और एकल से अकेले में तब्दील हो गए हैं और संस्कृति रक्षण की पाठशाला ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर दूषित होती जा रही है, लगातार... और इसे सुधारने का ठेका लेने वाले अपने व्यावसायिकता की मजबूती की ओर ध्यान लगाए बैठे हैं. आने वाले समय में यह 'संस्कृति रक्षण उद्योग' किस करवट बैठता है, यह देखने वालों में अद्भुत दिलचस्पी जगा सकता है. मुश्किल यह है कि हम सब इन बातों को समझते हैं, किन्तु व्यावसायिकता की काली पट्टी ने हमारी आँखों को ढक रखा है. धर्म, कर्म और मोक्ष के सिद्धांत को भूलकर सिर्फ और सिर्फ अर्थ केंद्रित व्यवस्था ने हमारी संस्कृति को डुबो रखा है. यह अंधी दौड़ जाने कहा जाकर रुके, इस बात का इन्तेजार हर संस्कृति प्रेमी को सदा से ही है. वसुधैव कुटुंबकम का नारा देने वाले लोगों को इस बात पर जरूर ही विचार करना चाहिए कि आखिर 'कुटुंब' क्यों टूटते जा रहे हैं, अन्यथा उनका चिंतन यमुना के पानी की तरह ही 'दूषित' है, इस बात में रत्ती भर भी शक नहीं!
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