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एक ही राह के राही हैं कांग्रेसी! Uttrakhand political issues of congress


उत्तराखंड में गम्भीर राजनीतिक संकट छाया हुआ है. इस हालात के पीछे काफी किन्तु, परन्तु हो सकते हैं पर सच तो यही है कि इस संकट से निपटने की कोशिश में कांग्रेस और भी घिरती जा रही है. कोढ़ में खाज जैसी स्थितियां सामने लगातार आती जा रही हैं. इसी सन्दर्भ में, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने विधानसभाध्यक्ष से मुलाकात की और होने वाले शक्ति परीक्षण के पहले कांग्रेस के विद्रोही विधायकों को अयोग्य करने की मांग का समर्थन किया, और शायद इस लेख के लिखे जाने तक सदस्यता रद्द भी कर दी गयी है, लेकिन विरोधियों ने विधायकों का समर्थन हासिल करने के लिए खरीद-फरोख्त का प्रयास किए जाने का उल्टा आरोप लगा कर पूरे परिदृश्य को नया मोड़ दे दिया है! साफ़ है कि हरीश रावत उलटे ही फंसते नज़र आ रहे हैं और अब सभी की नज़र आने वाले समय पर टिक गयी है. समझना दिलचस्प होगा कि आखिर हरीश रावत ने मुख़्यमंत्री रहते हुए हालात को सँभालने की कोशिश क्यों नहीं की. अगर उन्होंने हालात को पहले ही भांप लिया होता तो आज यह स्थिति नहीं होती. केंद्र में तो कांग्रेसी पहले ही परेशान हैं और एक एक करके राज्यों में बिगड़ते हालात को लेकर सोनिया और राहुल के माथे पर चिंता की लकीरें जरूर उभर आयी होंगी. हालात को अगर समझने की कोशिश करते हैं तो हमें नज़र आता है कि कांग्रेस पार्टी ने हटाए गये मंत्री हरक सिंह रावत और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा तथा सात अन्य विधायकों को इस आधार पर अयोग्य ठहराने की मांग की है कि उन्होंने विधानसभा में भाजपा के साथ सरकार विरोधी नारे लगाकर स्वैच्छिक रूप से कांग्रेस की सदस्यता छोड़ दी है. कांग्रेस ने इस आधार पर उनके खिलाफ दलबदल कानून के प्रावधान लागू करने की मांग की है. कांग्रेस की मांग अपनी जगह जायज या नाज़ायज़ हो सकती है, किन्तु हालात तो कुछ और ही कहानी कह रहे हैं क्योंकि रिश्वत के गम्भीर आरोप को मुख़्यमंत्री इतनी आसानी से नकार नहीं सकते हैं. 


गौरतलब है कि, कांग्रेस के 70 सदस्यीय विधानसभा में 36 विधायक हैं और उसके नौ विधायकों ने विद्रोह कर दिया है और न केवल विद्रोह किया है बल्कि आरोप भी लगाया है कि मुख्यमंत्री रावत ने विधानसभा के पटल पर 28 मार्च के शक्ति परीक्षण में उन्हें समर्थन देने के लिए रिश्वत की पेशकश की है. सबूत के तौर पर उन्होंने बकायदा ‘‘स्टिंग' आपरेशन का एक वीडियो जारी किया है जिसमें कथित रुप से मुख्यमंत्री को दिखाया गया है. हालाँकि, मुख़्यमंत्री रावत ने इसे झूठा करार दिया है तो कांग्रेस ने आरोप लगाने में ज़रा भी देरी नहीं करी कि यह भाजपा प्रमुख अमित शाह के ‘‘डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट' के कारनामे हैं. हालाँकि, अपनी गलतियों को छिपाने के लिए दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप राजनीति की पुरानी आदत रही है. भाजपा भी मौके की ताक में है ही और उसने रावत सरकार को ‘‘तत्काल बर्खास्त' करने की मांग भी दुहरा दी है. भाजपा के विजयवर्गीय ने साफ़ कहा कि 'भाजपा ने राज्यपाल से कहा था कि राज्य सरकार विधायकों की खरीद-फरोख्त करेगी, किन्तु यह समझना मुश्किल है कि राज्यपाल महोदय ने विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए इतने ज्यादा दिन का समय आखिर क्यों दिया? साफ़ है कि अब राजयपाल को भी इस राजनीतिक खेल में लपेटा जा रहा है, पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर राज्य की जनता इस राजनीतिक खेल के कारण नुक्सान क्यों उठाये? अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता का सामना करने के बाद उत्तराखंड में राजनीतिक संकट का आना ठीक नहीं है, किन्तु इसके लिए कांग्रेस अगर भाजपा को सीधे तौर पर दोषी ठहराती है तो यह उसका बचपना ही होगा! आखिर विधायक कोई दूध पीते बच्चे नहीं हैं जो उनको कोई भी फुसला लगा? कांग्रेस को अपनी गिरेहबान में झाँक कर देखना चाहिए और खुद से पूछना चाहिए कि इस तरह की बगावत के पीछे कहीं हाई-कमान कल्चर तो जिम्मेदार नहीं है? खुद मुख़्यमंत्री हरीश रावत भी राजनीतिक उठापठक करने में पीछे नहीं रहे हैं और अब जब बात खुद पर आयी है तो उसके लिए भाजपा दोषी है? यहां सबसे पहला प्रश्न तो यही उठता है कि अरुणाचल और उत्तराखंड, इन दोनों राज्यों में बगावत की खबर से हाई कमांड बेखबर कैसे रहा? कई राज्यों में चल रही कांग्रेसी सरकारों पर ध्यान न देना और वहां नेतृत्व की जरूरतों को नहीं समझना ही तो कहीं मुख्य समस्या नहीं है? यह मानना अपने आप में मुश्किल है कि अरुणाचल और उत्तराखंड में बगावत एकाएक भड़क गयी! जहाँ तक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत की बात है तो उन्होंने एनडी तिवारी और विजय बहुगुणा की राह में कोई फूल नहीं बिछाए और अब बहुगुणा ने पुराना हिसाब चुकता कर दिया है तो उन्हें तकलीफ नहीं होनी चाहिए! 
आखिर राजनीति तो राजनीति है, यहाँ कोई संतई करने तो आया नहीं है! वहीं, इन सबके बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैबिनेट की मीटिंग बुलाई है, जिसमें उत्तराखंड के राजनीतिक हालातों पर हो चर्चा हो सकती है. साफ़ है कि उलझे हुए हालातों में भाजपा सरकार बनाने का रिस्क नहीं लेना चाहेगी, क्योंकि इसका उसे राजनीतिक नुक्सान उठाना पड़ सकता है. अगर हरीश रावत विधानसभा में अपना बहुमत साबित नहीं कर पाते हैं तो राष्ट्रपति शासन का विकल्प चुनने को नरेंद्र मोदी तरजीह दे सकते हैं. हाँ, उसके बाद ऊंट किस करवट बैठता है, यह तब की तब देखी जाएगी! मुश्किल यह है कि जम्मू कश्मीर में कई महीनों से सरकार नहीं थी और अब जाकर महबूबा अगर मानीं हैं तो इससे इस राज्य के लोगों को राहत मिली है, किन्तु उत्तराखंड के लोगों को कब राहत मिलती है, इसका अंदाजा लगा पाने में अभी काफी मुश्किलें हैं!
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