शुरुआत में जैन धर्म के बारे में ज्यादा पता नहीं था, किन्तु एक जैन साहब के यहाँ आना जाना लगा रहता था तो इस विषय में थोड़ी रुचि अवश्य जाग्रत हुई. यूं तो वह व्यापार करते थे और व्यापार जैसे अन्य लोग करते हैं, वह भी उन्हीं नियमों को तरजीह देते थे अथवा देना पड़ता था, किन्तु उनकी एक बात बेहद खास लगती थी कि वह शाम को सूरज ढलने से पहले ही भोजन कर लेते थे. बाद में भी इस बात अनुभव किया कि वैसे तो 'हिन्दू और जैन' में कुछ खास फर्क नहीं है, किन्तु 'कठोर सिद्धांतों' का पालन इस सम्प्रदाय में अवश्य ही सुनिश्चित किया गया है. हालाँकि, जिस तरह हिन्दुओं में 'पंडित' लोग अंडा, मछली इत्यादि का सेवन करते हैं, उसी तरह आप कई जैनियों को देखेंगे कि वह 'लहसन, प्याज' तो नहीं खाते हैं, किन्तु 'अंडा-मछली' इत्यादि का सेवन करते हैं. खैर, भारतीयता की यह भी एक खासियत ही है कि यहाँ हर भाव, हर संस्कार को समाहित कर लिया जाता है. ऐसे में जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर को जब याद किया जा रहा है, यह समझना आवश्यक हो जाता है कि उनके सन्देश और बताई राह की मानव जाति के लिए क्या अहमियत है. भगवान महावीर जिन्होंने भारत के विचारों को उदारता दी, गौरव को बढाया और इंसान के बीच भेदों को मिटाया, तो सभी को धर्म और स्वतंत्रता का अधिकारी भी बनाया. यह भगवान महावीर ही थे, जिन्होंने भारत के आध्यात्म-सन्देश को अन्य देशों तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. पंचशील सिद्धान्त के प्रर्वतक एवं जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकंर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे.
महावीर स्वामी से पहले 23 और तीर्थकंर हुए. यूं तो जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक के रूप में भगवान ऋषभदेव की मान्यता है, लेकिन जो प्रसिद्धि भगवान महावीर को मिली उतनी शायद अन्य गुरुओं को नहीं मिली. भगवान महावीर का जन्म ऐसे युग में हुआ था जिस समय हिंसा, पशुबलि, भेदभाव, जातपात अपने चरम पर था, लेकिन भगवान महावीर ने दुनिया को सत्य, अहिंसा के रास्ते पर चलने का उपदेश दिया और न केवल उपदेश दिया, बल्कि कठिन मार्ग पर चल कर खुद भी दिखाया. अपने अनेक प्रवचनों से मनुष्यों का सही मार्गदर्शन किया तो महावीर स्वामी ने जैन धर्म में अपेक्षित सुधार करके इसका व्यापक स्तर पर प्रचार किया. भगवान महावीर मानवता के कल्याण के लिये राजपाट को छोड़कर त्याग और तप का कठिन मार्ग अपनाया था. भगवान महावीर 24वें तथा अंतिम तीर्थकंर थे और उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म के स्वरूप का ही पालन आज इसके अनुयायियों द्वारा किया जाता है. जैन धर्म में अहिंसा के साथ-साथ कर्म की पवित्रता का बहुत महत्व है. ‘अनेकांतवाद’ के सिद्धांत का भी बड़ा महत्व है इस धर्म में, जिसके अनुसार दूसरों के दृष्टिकोण को समझना और महत्व देना बताया जाता है. महावीर स्वामी ने अपने जीवन काल में जो अहिंसा के उपदेश प्रसारित किए, उनको जानने-समझने के लिए किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं है, किन्तु उनका पालन करने के लिए अवश्य ही कठोर तप की आवश्यकता है. आज जिस तरह से समाज में अहिंषा, द्वेष और दुराचार बढे हैं, ऐसे समय में भगवान महावीर के दिए उपदेशों का महत्व और अधिक बढ़ गया है.
भगवान महावीर को मानने वाले जैनी भाई -बंधू अभी भी अक्सर छोटी बड़ी सभाओं के द्वारा महावीर स्वामी के उपदेशों का प्रचार करते दिख जाते हैं, लेकिन और व्यापक तौर पर उनके आदर्शों और उपदेशों के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है इस समाज को! उनका जीवन सदा ही प्राणी मात्र के लिए अनुकरणीय रहेगा. इस बात में कोई शक नहीं है कि विश्वबंधुत्व और समानता का आलोक फैलाने वाले महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न पक्षों को बहुत प्रभावित किया है, तो दर्शन, कला और साहित्य के क्षेत्र में भी जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. जैन धर्म में वैज्ञानिक तर्कों के साथ अपने सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है. महावीर स्वामी ने पशु-पक्षी तथा पेङ-पौधे तक की हत्या न करने का अनुरोध किया है. अहिंसा की शिक्षा से ही समस्त देश में दया को ही धर्म प्रधान अंग माना जाता है. महावीर का ‘जीयो और जीने दो’ का सिद्धांत जनकल्याण की भावना को परिलाक्षित करता है. जहाँ तक जैन धर्म के मुख्य सिद्धांतों की बात है तो जैन धर्म मनुष्य को स्वयं अपना भाग्य विधाता मानता है. इस क्रम में, मनुष्य 8 प्रकार के कर्म करता है, जो क्रमशः ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, और अन्तराय कर्म के नाम से जाने जाते हैं. वहीं मोक्षप्राप्ति के लिए जैन धर्म के अनुसार यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मफल का नाश करे और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्मफल संग्रहीत न करे. यह लक्ष्य ‘त्रिरत्न’ के अनुशीलन और अभ्यास से प्राप्त होता है. जैन धर्म के त्रिरत्न हैं सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचरण. इसी क्रम में, जैन धर्म के अनुसार पाँच प्रकार के ज्ञान बताये गए हैं, जो क्रमशः मति, जो इंन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है, उसके बाद श्रुति, जो सुनकर या वर्णन के द्वारा प्राप्त होता है तो तीसरा अवधि, जो दिव्य ज्ञान है. चौथा मन पर्याय, जो अन्य व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क की बात जान लेने का ज्ञान है और आखिरी कैवल, जो पूर्ण ज्ञान है और निग्रंथों को प्राप्त होता है. ऐसे ही, जैन धर्म में भिक्षु वर्ग के लिए पंचमहाव्रतों की व्यवस्था की गई है, जिसमें अहिंसा, असत्य त्याग, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत प्रमुख हैं तो जैन धर्म में 18 पापों की परिकल्पना भी की गई है. इसमें हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, दोषारोपण, चुगली, असंयम में रति और संयम में अरति, परनिंदा, कपटपूर्ण मिथ्या, मिथ्यादर्शनरूपी शल्य शामिल हैं. जाहिर है, जैन धर्म की परिकल्पना और उसका पालन कठोर ही नहीं कठोरतम की श्रेणी में आता है. हालाँकि, आज के मानवों के लिए इन सिद्धांतों को अगर लागू किया जाय तो 5% पालन करने वाले भी बमुश्किल से लोग मिलेंगे. हाँ, इन सिद्धांतों की खूबसूरती यही है कि मनुष्य चाहे जहाँ भाग ले, किन्तु शांति और मोक्ष का द्वार इसके सिवा और कहाँ मिल सकेगा!
Bhagwan Mahavir and Jainism, Hindi Article, Mithilesh,
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