केरल के पुत्तिंगल मंदिर में हुआ हादसा किसी की भी रूह कंपाने के लिए काफी है. यहाँ आग लगने से 108 से अधिक लोगों की मौत हो गयी तथा 350 से भी ज्यादा लोगों के घायल होने की बात कही गयी. हालाँकि, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मामले में तत्काल ही सक्रीय हुए और डॉक्टर्स की टीम लेकर वहां पहुँच गए, किन्तु जिन लोगों ने अपने स्वजनों को खो दिया है, भला उनका दर्द भी दूर किया जा सकता है क्या? केरल के तिरुअनंतपुरम से करीब 60 किलोमीटर दूर समुद्र तट पर बसे कोल्लम जिले के पारावुर में है पुत्तिंगल मंदिर. यहां के लोगों का मानना है कि इस इलाके में देवी का निवास है, इसलिए मंदिर में नवरात्र के दौरान लोगों की भारी भीड़ हर साल जमा होती है. ये देवी मंदिर खासतौर पर आतिशबाजी के लिए मशहूर है. प्रत्येक नवरात्र को यहां आतिशबाजी प्रतियोगिता होती है, जिसे देखने के लिए सैकड़ों लोग पहुंचते हैं, विशेष तौर पर हिन्दू नववर्ष के अवसर पर! इसी उत्सव के दौरान ये दुर्घटना घटी. इस दुर्घटना की भयावहता वर्णन करने योग्य नहीं है, क्योंकि अगर आप ख़बरों को ही पढ़ें तो कंपकंपी छूट जाएंगी. सिर्फ यही दुर्घटना ही क्यों, अगर हम पिछले कुछ सालों में देखें तो ऐसी बहुत सारी दुर्घटनाएं हमें देखने को मिल जाएँगी, जहाँ इंसानी जान ज़मीनों पर बिखरी दिखी है! 2013 में मध्यप्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ मंदिर में पुल गिरने से हुए हादसे में 110 से ज्यादा लोगों की जान गई थी, लेकिन इन हादसों से कोई सबक नहीं लिया गया. इसी प्रकार, साल 2013 में ही इलाहाबाद में लगे विश्व प्रसिद्ध कुंभ मेले में रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में करीब 30 लोग मारे गए थे तो 2011 में केरल के सबरीमाला मंदिर में भी भगदड़ से 102 तीर्थयात्री मारे गए थे. अगस्त 2008 में श्रावण नवरात्र के मौके पर हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में बने नैनादेवी मंदिर में भगदड़ की वजह से कम से कम 140 लोग मारे गए थे. दुर्घटनाओं की कड़ी यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि इसका एक अंतहीन सिलसिला सा दिखता है, जहाँ प्राकृतिक आपदा और मानवीय लापरवाही का घालमेल बेहद कष्टकारी रूप में सामने आता है.
इसी कड़ी में, महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित मंधरदेवी कालूबाई मंदिर में जनवरी 2005 में पूर्णिमा के दिन मची भगदड़ में करीब 300 से ज्यादा तीर्थयात्री मारे गए थे और हादसे की वजह शॉर्ट सर्किट को बताया गया था. ऐसी धार्मिक दुर्घटनाएं सिर्फ हमारे देश में ही होती हों, ऐसा कतई नहीं है, लेकिन इनमें इस बात की समानता अवश्य ही दिखती है कि लोग धार्मिक कर्मकांडों के नाम पर खुद तो सुरक्षा से खिलवाड़ करते ही हैं, इसके साथ ही साथ प्रशासन भी दुर्घटना होने तक चैन की बंशी बजाता है. इसी क्रम में वर्ष 1990 में हज के दौरान मची भगदड़ में कम से कम 1,608 लोग मरे थे तो 2015 में भी मक्का में हुए दुर्घटना में लगभग 107 लोग मरे थे. हज को जाने वाले तमाम मुसलमान भाई भी इस तरह की दुर्घटनाओं के कारण अपनी जान गँवा चुके हैं. प्रश्न उठता है कि आखिर धार्मिक कर्मकांडों में भीड़ को प्रबंधित करने के तरीके हम विकसित क्यों नहीं कर पाते हैं? लोगबाग भी जागरूकता की बजाय जहाँ भीड़ ज्यादा होती है, उधर को ही मुड़ जाते हैं.
आज भी आप सड़क पर अगर चलते हैं और कहीं दस-बीस लोग इकट्ठे खड़े हैं तो वहां और लोग भी जान बूझकर भीड़ बढ़ाते नज़र आ जायेंगे! जरूरत है इस तरह की प्रवृत्ति को बदलने की! इतिहास भरा पड़ा है ऐसी घटनाओं से, इन सब पर गौर करें तो एक बात निकल के सामने आती है और वो है लापरवाही! इस तरह की दुर्घटनाओं में नियमों का घोर उल्लंघन होता है और बुनियादी सावधानियों को नजर अंदाज किया जाता है. उन लोगों की लापरवाही जो इतने बड़े आयोजन तो करते हैं लेकिन सुरक्षा का उस स्तर पर ध्यान नहीं रखते! हमारी प्रशासनिक व्यवस्था भी बहुत लचर है, जो ये बिना जांचे ही कि अमुख संस्था इतना बड़ा आयोजन सँभालने में सक्षम है या नहीं, उन्हें आयोजन की परमिशन दे देती है और अंत में नतीजा आता है किसी न किसी दुर्घटना के रूप में! लोग हलकान होते रहते हैं और उनके परिजन चीख चीखकर पूछते हैं कि आखिर कब सुधार होगा इन परिस्थितियों में, कब सुधरेगी ये ब्यवस्था? हमारे त्यौहार हमारी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा व भारतीय सभ्यता के प्रतीक हैं.
हमारे त्यौहार हमारी संस्कृति की धरोहर हैं तो इन पर्वों व त्योहारों के माध्यम से हमारी संस्कृति की वास्तविक पहचान होती है. इन्हें तो आखिर हम मनाना छोड़ नहीं सकते, किन्तु इसके साथ जुडी विकृतियों पर अवश्य ही लगाम लगा सकते हैं. त्योहारों को मनाने की विधियों में जो विकृतियाँ आ गई हैं, जैसे कि मदिरापान, जुआ खेलना, धार्मिक उन्माद उत्पन्न करना, ध्वनि प्रदूषण व वायु प्रदूषण को बढ़ावा देना, उन्हें शीघ्रातिशिघ्र समाप्त करना होगा, उन पर लगाम लगानी होगी! लोगबाग भी त्योहारों को उनकी मूल भावना के साथ मनाएँ ताकि सुख-शांति में बृद्धि हो सके, न कि पटाखे फोड़कर एक दुसरे का जाने-अनजाने में अहित ही कर दें! आपने कभी इस बात की कल्पना की है कि अगर हमारे पर्व-त्यौहार और रीति-रिवाज न होते तो क्या होता? इनके बिना हमारी जिंदगी कितनी नीरस और बेरंग होती? भारतीय समाज में उत्सव की परम्परा ही इसे इतना जीवंत बनाती है कि पूरी दुनिया इसकी कायल है. ऐसे में, यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि इसे सार्थक रूप में ही मनाएं, न कि इसे भय का पर्यायवाची बना दें! केरल की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से अलग हटकर हम विचार करें तो, भारत को पर्व और त्यौहारों के देश के रूप में ही पाएंगे! जितने त्यौहार इस देश में साल भर मनाये जाते हैं, शायद ही किसी और देश में मनाये जाते होंगे. यहाँ अनेकता में एकता की झलक भी खासतौर पर त्यौहारों के मौकों पर ही देखने को मिलती है. भारत में मनाये जाने वाले त्यौहारों की लम्बी सूची है, जिसमें होली, दीपावली, दशहरा, ईद, बकरीद, क्रिश्मस, पोंगल, लोहड़ी, वैशाखी, बुद्धपूर्णिमा, महावीर जयंती जैसे देशव्यापी त्यौहार हैं तो छोटे-बड़े बहुत से क्षेत्रीय त्योहारों का भी कम महत्त्व नहीं.
जैसा कि हम सब जानते हैं कि मानव जीवन अनेक विविधताओं से भरा हुआ है. अपने जीवन में मनुष्य को अनेक कर्तव्यों का निर्वाह करना पड़ता है और इन दायित्वों को पूरा करने के चक्कर में कई बार वह अपने लिए, अपनों के लिए समय नहीं निकाल पाता है, जिससे मानव जीवन में विषमताएं जन्म ले लेती हैं और वह स्व जीवन के आनंद को खो देता है. त्यौहार और उत्सव हमारे जीवन में ख़ुशी और नयापन लाते हैं तो हमारे जीवन में मनोरंजन का सामूहिक अवसर भी इसी से आता है. सभी त्यौहारों की अपनी परम्पराएं होती हैं, जो समयानुसार परिवर्तित भी होती हैं, किन्तु उसका मूल भाव यथावत ही रहता है. सभी त्यौहारों में अपनी विधि और परम्परा के अनुसार देश, राज्य और मानव-मात्र के लिए विशेष सन्देश छुपा होता है. यह स्पष्ट है कि इस प्रकार सभी त्यौहारों के पीछे समाजोत्थान का कोई न कोई महान उद्देश्य ही निहित होता है. एक-दूसरे के करीब आना, आपसी मनमुटाव कम करना, संवादहीनता या परस्पर दुराव समाप्त करने जैसे अवसर त्यौहारों के अतिरिक्त भला और कहाँ मिल सकता है. इसके अतिरिक्त पारिवारिक संस्कार आदि का बच्चों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है, इसलिए आधुनिक समय में तो त्यौहारों और उत्सवों का महत्त्व और भी ज्यादा हो गया है, क्योंकि कई कारणों से घर-परिवार के सदस्य दूर रहते हैं और यह त्यौहार ही हैं, जो इस दूरी को पाटने का कार्य करते हैं.
कुछ त्यौहार तो हम अपने परिवार के साथ मनाते हैं, लेकिन बहुत से उत्सव हम समाज के लोगों के साथ किसी विशेष स्थान पर इकठ्ठा हो कर मनाते हैं. ऐसे उत्सव और त्यौहारों में बहुत सारी भीड़ भी स्वाभाविक रूप में इकठ्ठा होती ही है. जाहिर सी बात है जहाँ ज्यादा भीड़ इकठ्ठा होगी वहां स्थिति पर नियंत्रण भी उतना ही मुश्किल होगा और छोटी सी चूक भी बड़ी दुर्घटना का रूप धारण कर लेगी. जहाँ तक बात केरल के दुर्घटना की है तो इस सम्बन्ध में हाई कोर्ट का निर्णय गौर करने योग्य है. केरल हाई कोर्ट ने अंतरिम आदेश देते हुए मंदिरों में होने वाली आतिशबाजी पर आंशिक रोक लगा दी है. केरल हाई कोर्ट ने आदेश में शाम से लेकर सुबह तक के बीच में किसी प्रकार से आवाज करने वाली आतिशबाजी पर रोक लगा दी है, जबकि रात में केवल रंग बिखेरने वाली आतिशबाजी की इजाजत दी गयी है. चूंकि विस्फोटक कानून के तहत पुलिस के पास बिना वारेंट के इस प्रकार की गैरकानूनी गतिविधि में शामिल लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार है. इस सम्बन्ध में कोर्ट ने अपने आदेश में पहले के आदेशों की अवहेलना की भी बात कही है. पुलिस प्रतिष्ठान के लिए कोर्ट की यह टिपण्णी डूब मरने जैसी है जब कोर्ट ने कहा कि हम पुलिस पर कैसे भरोसा कर सकते हैं और इस मामले को सीबीआई के भेज दिया है. साफ़ है कि अगर पुलिस लोगों की जान की सुरक्षा नहीं कर पाती है तो यह कानून व्यवस्था के ब्रेक डाउन के समान है तो हाई कोर्ट की टिपण्णी में इसे मानवाधिकार और जीने के अधिकार का उल्लंघन भी बताया गया है. हालाँकि, इसके लिए मानवीय लापरवाही भी कम जिम्मेदार नहीं होती है. ऐसे में हम सबको, संस्थाओं को, प्रशासनिक प्रतिष्ठानों को केरल की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के सन्दर्भ में गहन विचार विमर्श करना चाहिए और त्यौहारों के देश में उत्सव को ख़ुशी का ही पर्याय बने रहने देना चाहिए.
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