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तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख ... !! Indian Judiciary, Chief Justice, Prime Minister, Hindi Article, Mithilesh

मशहूर फिल्म 'दामिनी' में सनी देयोल का वह डायलॉग भला किसने नहीं सुना होगा, जिसमें भरी अदालत में वह कहते हैं कि "तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख... तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख... तारीख पर तारीख मिलती रही है में लार्ड, लेकिन इंसाफ नहीं मिला. मिली है तो सिर्फ तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख ... !! यह डायलॉग इस कदर पॉपुलर हुआ कि इसने 'न्यायपालिका' की एक सर्वकालिक छवि का भी गढन कर दिया. भारतवर्ष में, जिस किसी को भी इन्साफ मिलने में देरी महसूस होती है, वह बिचारा सनी देयोल के इस डायलॉग से ही काम चलाता है. राजकुमार संतोषी द्वारा निर्देशित 1993 की इस ब्लॉकबस्टर फिल्म के इस चर्चित संवाद की हमारी 'न्यायपालिका' द्वारा एक तरह से पुष्टि ही हुई है. कहा जाता है कि 'न्याय मिलने में देरी अन्याय से कम नहीं' और भारतीय सन्दर्भ में तो ऐसा कोई न्याय नहीं, जो जल्दी मिल जाए. कई लोगों पर उनकी जवानी में केस दर्ज होता है और उनके बूढ़े होकर मर जाने तक उस केस पर फैसला नहीं हो पाता है. यह एक ऐसी परिस्थिति बनी है, जिसने हमारी न्यायपालिका की छवि को 'नकारात्मकता' की ओर ही ढकेला है. ऐसा नहीं है कि इस 'न्यायपालिका' में केवल जज ही हों, बल्कि वकील से लेकर कोर्ट रूम में बैठे प्रत्येक कर्मचारी की छवि 'तारीख पर तारीख' जैसी हो गयी है. भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर जब सार्वजनिक रूप से 'न्यायपालिका' की इस 'तारीखी' छवि पर विलख उठे तो कइयों को यह आश्चर्य जैसा प्रतीत हुआ होगा, किन्तु इसमें आश्चर्य जैसा कुछ इसलिए नहीं है, क्योंकि किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति को उस 'संस्था' की छवि की चिंता रहती ही है, जिससे वह जुड़ा होता है. देखा जाय तो हालिया मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश महोदय का दर्द भर ही नहीं है, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मद्धम स्वर में 'जजों की छुट्टियां' नियंत्रित करने का उद्धरण भी एक सार्थक चर्चा की शुरुआत कर सकता है. इतना ही क्यों, जब न्यायपालिका की चर्चा हो रही है तो सिर्फ 'जजों की कमी' पर बात केंद्रित किया जाना पूरा नहीं तो 'आंशिक नाइंसाफी' तो है ही! 

मुख्य न्यायाधीश महोदय ने कई आंकड़े दिए और वह गलत भी नहीं हैं, किन्तु भारत के सन्दर्भ में हम 'अमेरिकी मानदंडों' को किस प्रकार उद्धृत कर सकते हैं? सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि सिर्फ जजों की कमी की बात करके, कहीं हम न्याय-व्यवस्था की दूसरी कमियों से मुंह तो नहीं मोड़ रहे हैं? क्या हमारी 'न्याय-प्रणाली' में यह सोच नहीं घुसी हुई है कि 'मामले को लटकाओ', जितना ज्यादा मामला लटकेगा, उतनी ही जेब भरेगी! क्या यह तथ्य नहीं है, जिसे अदालत में कदम रखते ही महसूस किया जा सकता है और इसे आम-ओ-खास हर व्यक्ति महसूस कर सकता है कि 'वकील' जान बूझकर 'तारीख पर तारीख' देते हैं, ताकि.... डॉट... डॉट ... डॉट! अगर साफगोई से कहा जाय तो हमारे देश की न्यायपालिका, खासकर निचले स्तर की 'सर्वाधिक भ्रष्ट' हो चुकी है और इसमें दिन के उजाले में सब कुछ नज़र आता है. हाँ, ऊपरी अदालतों में और बड़े फैसलों में जरूर कुछ सटीकता नज़र आती है, जिससे इस व्यवस्था में थोड़ी-बहुत जान बाकी है. हालाँकि, पिछले दिनों में अगर कुछ चर्चित मामलों की बात कही जाय तो सुब्रत रॉय सहारा काफी दिनों से तिहाड़ में बंद हैं, किन्तु सुप्रीम कोर्ट और सरकार के लाख प्रयत्न के बावजूद वह पैसा जमा नहीं करा रहे हैं. यही हाल शराब कारोबारी विजय माल्या का नज़र आ रहा है, जिसमें 9 हज़ार करोड़ से अधिक लेकर वह विदेश भाग चुके हैं. उनका पासपोर्ट रद्द करना और दूसरी तमाम फॉर्मेलिटीज से बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सरकारी बैंकों का 9 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ वापस रिकवर किया जा सकेगा? ऐसे में अदालत में दिया जाने वाला फीडबैक और फिर उसके बाद आने वाले अदालती आदेश में आपको 'तारीख पर तारीख' ही नज़र आएगी! आखिर, एक भगोड़े के मामले को लटकाने से क्या हासिल होने वाला है, कौन सा उससे न्याय हो जायेगा? 2 साल मामला लटका रहेगा, जज बदल जायेंगे, 5 साल मामला लटका रहेगा, सरकार बदल जाएगी और फिर शुरू होती है मामलों की 'लीपापोती'! बड़े मामले भी कुछ-कुछ ऐसे ही चलते रहते हैं और ऐसे में तेजी से कार्य करने की प्रणाली तो खुद 'न्यायपालिका' को ही विकसित करनी होगी न? ज्यादा जजों के होने से सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ बढ़ेगा और हालात कमोबेश तब तक नहीं बदलेंगे जब तक 'न्यायिक सुधार' के क्षेत्र में पारदर्शिता और 'तेज के साथ प्रभावी फैसले' लेने की प्रवृत्ति नहीं विकसित की जाती. ऐसे में न्यायाधीश महोदय के 'दो बूँद' आंसू, भला कहाँ तक बदलाव ला पाने में सक्षम हो सकेंगे यह विचारणीय विषय है!

अपने देश में यह बात आप को हर जगह आसानी से सुनने को मिल जाएगी कि कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पड़ोगे तो पूरी जिंदगी बीत जाएगी. यह पूरी तरह से सच ही है. इन सब में सबसे ज्यादा बुरा हाल और नुकसान गरीबों का होता है, बिचारे इस उम्मीद में अपनी जिंदगी की कमाई कचहरी के चक्कर काटने में गवां देते हैं कि अगली तारीख पर शायद उन्हें न्याय मिल जाये. इसी साल मार्च 2016 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 150वें स्थापना दिवस केअवसर पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने यह बात प्रमुखता से उठाई थी कि कैसे न्यायालयों में मुक़दमे लंबित पड़े हैं और उनपर कोई सुनवाई नहीं हो पाई है. हालाँकि, राष्ट्रपति महोदय ने भी इसका प्रमुख कारण जजों की कमी को ही बताया था. इसी क्रम में, उच्च-न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के एक संयुक्त सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति ठाकुर ने भावनात्मक भाषण देते हुए कहा कि देश की निचली अदालतों में 3 करोड केस लंबित हैं. ऐसे में, कोई यह नहीं कहता कि हर साल 20000 जज 2 करोड़ केस की सुनवाई पूरी करते हैं. मुख्य न्यायाधीश ने स्पस्टतह कहा कि लाखों लोग जेल में हैं, उनके केस नहीं सुने जा रहे हैं तो हम जजों को दोष मत दीजिए! मुख्य न्यायादेश महोदय की बात कुछ हद तक अवश्य ही सही हैं, किन्तु सवाल वही है कि क्या यही बात अकेली हमारी न्याय-व्यवस्था के लिए सही है? आज यदि किसी व्यक्ति को न्याय मिल भी जाता है, तब तक वह अपना लम्बा समय और काफी धन गँवा चूका होता है. ऐसे में प्रश्न हमारी प्रणाली पर भी उठते हैं. हालाँकि, देश के उच्च न्यायालयों में 38 लाख से ज्यादा केस पेंडिंग हैं, तो हाईकोर्ट्स में 434 जजों की वेकेंसी अब भी है! चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर के ही शब्दों में, अकेले इलाहाबाद हाईकोर्ट में 10 लाख केस लंबित हैं. अपने वक्तव्यों में मुख्य न्यायाधीश ने कई आंकड़े दिए, किन्तु न्यायपालिका की प्रणाली को पूरी तरह 'क्लीन चिट' दे दिया जाना कहीं न कहीं अखरता भी है. खैर, न्यायाधीश महोदय के तर्क को भी सरकार को सुनना ही चाहिए और व्यवहारिक हल की पहल भी करनी चाहिए. इसी क्रम में, जस्टिस ठाकुर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट जब 1950 में बना तो आठ जज थे और 1000 केस थे. ऐसे ही, 1960 में जज 14 हुए और केस 2247 हो गए. 1977 में जजों की संख्या 18 हुई तो केस 14501 हुए, जबकि 2009 में जज 31 हुए तो केस बढकर 77151 हो गए. इसी तरह 2014 में जजों की संख्या नहीं बढ़ी, पर केस 81553 हो गए. 

जाहिर है कि यह सारे आंकड़े अपनी जगह ठीक ही हैं, किन्तु सिर्फ केस के अनुपात में जजों की संख्या बढ़ाने को ही 'सही न्याय' का पैमाना किस प्रकार माना जा सकता है? क्या यह सच नहीं है कि जो कार्य 80 या 90 के दशक में 50 लोग मिलकर करते थे, उसी कार्य को आज 2016 में 1 व्यक्ति ही 'टेक्नोलॉजी' की सहायता से कर ले रहा है? क्या अदालतों में कम्प्यूटराइजेशन, ईमेल, फॉरेंसिक रिपोर्ट्स और दूसरी तमाम सुविधाएं नहीं पहुंची हैं, जिनसे 'फैसला सुनाना' कहीं ज्यादा आसान और सटीक हो गया है. क्रिकेट के दीवाने इस बात को बखूबी जानते हैं कि पहले 'अम्पायर्स' कितने गलत फैसले दे देते थे, किन्तु टेक्नोलॉजी की सहायता से अब 'थर्ड अम्पायर' क्विक और सटीक डिसीजन देने लगे हैं. सच तो यही है कि आज भी 'न्यायपालिका' विशिष्ट सोच से उबर नहीं पायी है, अन्यथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'जजों की छुट्टियां' कैंसल करने के उद्धरण पर वह पुनर्विचार को अवश्य ही तैयार हो जाती. इसके अतिरिक्त, अदालती कामकाज की भाषा 'हिंदी' बनाने को लेकर जाने कब से बात हो रही है, किन्तु उस पर न्यायपालिका एक तरह से 'उदासीन' ही है. ऐसे में 'अंग्रेजी' फैसलों को बिचारा गरीब पढ़ भी नहीं सकता और वकील उसे जो भी 'उल्टा-पुल्टा' बताता है, उसे मानने को वह मजबूर हो जाता है. सिर्फ गरीब ही क्यों, देश की 90 फीसदी जनता, अदालतों द्वारा दिए गए फैसलों को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ पाती, क्योंकि वह 'हिंदी' में नहीं हैं. यह ठीक बात है कि अमेरिका में नौ जज पूरे साल में 81 केस सुनते हैं जबकि भारत में छोटे से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक एक-एक जज 2600 केस सुनता है, किन्तु सवाल तो भारत का ही है! सिर्फ जजों पर ही 'वर्क-लोड' ज्यादा है, यह मानने वालों को पुलिस, सरकारी कर्मचारी और सेनाधिकारियों की कमी का भी विश्लेषण कर लेना चाहिए! हालाँकि, मुख्य न्यायाधीश महोदय के दर्द को पूरी तरह अनदेखा करना भी बड़ी 'नाइंसाफी' होगी और इसके लिए राजनीतिक-तंत्र कहीं ज्यादा जवाबदेही के साथ पेश आये तो हालात कुछ अवश्य ही बदल सकते हैं.

जजों की नियुक्ति में हाल ही में केंद्र और सुप्रीम कोर्ट 'कोलेजियम व्यवस्था' को लेकर भिड़ चुके हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि  वही दर्द मुख्य न्यायाधीश महोदय की बातों में निकल आया. मुख्य न्यायाधीश का यह कहना बिलकुल सही है कि, ‘यह किसी प्रतिवादी या जेलों में बंद लोगों के लिए नहीं बल्कि देश के विकास के लिए, तरक्की के लिए भी उतना ही आवश्यक है. जाहिर है, न्यायपालिका पर बोझ तो है ही, किन्तु इस बोझ के चक्कर में उसकी 'विश्वसनीयता' प्रभावित न हो, यह बात न्यायपालिका को खुद भी सोचनी होगी. इसके लिए अमेरिका का उदाहरण देने की जगह अगर हमारी न्यायपालिका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक भी दिन बिना छुट्टी लिए अनवरत कार्य करने का ज़िक्र करती तो कहीं न कहीं जजों में 'प्रेरणा' का भाव आता. हालाँकि, प्रधानमंत्री ने इसकी कमी जरूर पूरी कर दी. आंकड़ों में देखा जाय तो, 1987 के बाद से जब विधि आयोग ने जजों की संख्या को प्रति 10 लाख लोगों पर 10 न्यायाधीशों की संख्या को बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी, तब से ही कुछ नहीं हुआ है.’ इस सम्बन्ध में प्रधानमंत्री ने साफगोई से आश्वासन देते हुए कहा कि यदि संवैधानिक अवरोधक कोई समस्या पैदा नहीं करें, तो शीर्ष मंत्री और उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ जज बंद कमरे में एक साथ बैठकर इस मुद्दे पर कोई समाधान निकाल सकते हैं. जाहिर है, न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी आवश्यक है और यह तय करना सभी की जिम्मेदारी है कि आम आदमी का न्यायपालिका में भरोसा बना रहे. इसके लिए, न्यायपालिका को 'जजों की कमी' का मुद्दा खुद उठाने की बजाय, इस प्रकार से दिखना होगा ताकि जनता को 'तारीख पर तारीख' से छुटकारा मिले और वह खुद न्यायपालिका की सहूलियतों के लिए आवाज उठाये. हाँ, इसके लिए वह अपनी तकनीकी क्षमताओं को बढाए और इसके लिए 'वीडियो कांफ्रेंसिंग', जांच एजेंसियों की क्षमता, भ्रष्टाचार और वकीलों की मनमानी पर लगाम, हिंदी भाषा में कामकाज शुरू करने जैसे कई उपाय हैं, जिन्हें आजमाया जाना चाहिए. और हाँ, कुछ हफ़्तों की विशेष छुट्टियों पर अवश्य ही 'विराम' लगा दिया जाना चाहिए, क्योंकि भारत में यही 'विशिष्टता' तो अन्याय है. 'वीआईपी' रूतबा छोड़कर, दिन-रात कार्य करके अगर न्यायपालिका इसे कर सकी तो हालात अवश्य ही बदलेंगे, अन्यथा उसे अपनी 'तारीखी छवि पर सिसकना' ही होगा और उसके साथ 'सिसकती' रहेगी भारतीय जनता!
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1 टिप्पणियाँ

  1. ये काफी कारगर सुझाव है की जज लोग अपनी छुट्टी कम करे.और वकीलों की मनमानी पर रोक लगाया जाये.ताकि मामले लटकें न बल्कि उन पर फैसला जल्दी हो सके.

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