आखिरकार, भारत और फ्रांस के बीच बहु-प्रतीक्षित 'राफेल' लड़ाकू विमान सौदा लगभग पूरा ही होने वाला है. वैसे तो, इस सौदे को लेकर बातचीत 2015 में ही शुरू हो गयी थी, लेकिन कीमतों को लेकर टलते-टलते मामला 2016 के मध्य तक पहुँच गया. देर से ही सही लेकिन भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान के लिहाज से ये 2016 की बड़ी ख़बरों में से एक मानी जाएगी. साफ़ तौर पर भारतीय वायुसेना के आधुनिकीकरण के लिए यह एक जरूरी कदम था, क्योंकि एक तमाम सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार घटती ताकत, समयाग्रस्त सैन्य संरचना और अस्त-व्यस्त खरीद व विकास कार्यक्रम के चलते भारतीय वायुसेना को चीन और पाकिस्तान से बड़ा खतरा है. जाने माने सुरक्षा विशेषज्ञ टेलिस के अनुसार, अगर दक्षिण एशिया में स्थिरता और रणनीतिक संतुलन चाहिए तो भारत को अपनी हवाई क्षमता को अत्यधिक बढ़ाना होगा! गौरतलब है कि टेलिस की ये रिपोर्ट ‘ट्रबल्स' दे कम इन बटालियंस: द मैनिफ़ेस्ट ट्रेवेल्स ऑफ द इंडियन एयर फोर्स’ में प्रकाशित हुयी थी. यह आंकलन सिर्फ टेलिस जैसे लोगों का ही नहीं है, बल्कि खुद इन्डियन एयर फ़ोर्स के अधिकारी बढ़ती चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की वकालत कर रहे थे. स्पष्ट है कि भारत के पडोसी और हमेशा घात लगाए बैठे चीन और पाकिस्तान के पास इस वक़्त भारत से ज्यादा और शक्तिशाली हवाई उपकरण मौजूद हैं! बताना आवश्यक है कि पाकिस्तान को जहाँ चीन से भरपूर सहयोग मिल रहा है, वहीं अमेरिका भी पाकिस्तान की एयर फ़ोर्स को मजबूत करने की कवायद में उसका साथ ही दे रहा है.
आंकड़ों के लिहाज से देखें तो, चीन के लड़ाकू विमानों की संख्या 3500 है, जिसमें सुखोई के अलावा जेएफ-17 और हल्के लड़ाकू विमान जे-10 प्रमुख हैं. वहीं दूसरी ओर, पाकिस्तान के पास 450 लड़ाकू विमानों का दम है. इनमें एफ-16 और जेएफ-17 प्रमुख हैं. ऐसे में, भारत के पास भी ऐसे विमानों की संख्या केवल 450 ही होना चिंताजनक थी, जिनमें सुखोई, मिराज और जगुआर शामिल हैं. भारतीय वायुसेना ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया है कि उसे लगभग सवा सौ बहुद्देशीय लड़ाकू विमानों की आवश्यकता है. भारत जैसी आर्थिक महाशक्ति के लिए सैन्य संतुलन बनाना बेहद आवश्यक कदम है और उसे ऐसा हर कीमत पर करना ही चाहिए. जाहिर है, ऐसे में भारत के पास 'राफेल विमान' का आना उसकी ताकत और प्रतिष्ठा दोनों के लिए अहम साबित होगा. अगर हम बात करें राफेल की खूबियों की, तो राफेल दो इंजन वाला मध्यम श्रेणी का बहुउद्देशीय लड़ाकू विमान है, जो सभी तरह के मौसम में एक साथ कई काम को अंजाम देने में सक्षम है. इसका वजन 10 टन, लम्बाई 15 मीटर, विंग स्पैन 11 मीटर और ऊंचाई 5 मीटर से अधिक है, जिसकी रफ्तार 2200 से 2500 किमी प्रतिघंटा तक है, तो इसकी रेंज 3700 किलोमीटर है. यही नहीं, यह आधुनिक राफेल विमान ब्रह्मोस जैसी 6 सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल या 3 लेजर गाइडेड बम ले जाने में सक्षम है. इसकी दूसरी खूबियों की बात करें तो, राफेल हवा से जमीन पर मार करने के साथ-साथ हवा से हवा में लक्ष्य पर सटीक निशाना भी साध सकता है. राफेल मल्टी सेंसर डाटा फ्यूजन टेक्नोलाजी से भी लैस है, जिससे पायलट को रणक्षेत्र और उसके आस-पास की स्थिति का पूरा आभास हो जाता है और वह सही निर्णय ले सकता है.
जाहिर है, इसे हर लिहाज से 21वीं सदी का विमान कहा जा रहा है और भारतीय वायुसेना के खेमे में इसका जुड़ना कई लिहाज से अहम साबित होगा. इस फ़्रांसिसी राफेल में परमाणु हमले, एंटी शिप अटैक, टोही क्षमता, क्लोज एयर सपोर्ट, एयर डिफेंस और लेजर निर्देशित लंबी दूरी की मिसाइल के हमले से जुड़ी क्षमताएं भी शामिल हैं. भारतीय प्रधानमंत्री की दूरगामी सोच ने राफेल करार के द्वारा सुरक्षा के साथ ही रोजगार के अवसर को भी भारत लाने का सफल प्रयास किया है. राफेल समझौते पर 50 प्रतिशत 'ऑफसेट' लागू होगा, यानि परियोजना की आधी कीमत के बराबर धन किसी भी माध्यम से भारत में आएगा या उसे यहां निवेश किया जाएगा. फ्रांसीसी अधिकारियों ने पहले इस पर सहमति नहीं जताई थी, लेकिन पिछले साल अगस्त में मोदी की ओलांद से फोन पर बातचीत के बाद इस अवरोध को भी समाप्त कर लिया गया है. जाहिर तौर पर, इससे छोटी भारतीय कंपनियों को करीब 22 हजार करोड़ का बिजनेस मिलेगा और इनके जरिये भारतीयों के लिए रोजगार के हजारों अवसर भी सृजित होंगे. प्रस्तावित हालिया सौदे में डासॉल्ट एविएशन के अलावा अन्य फ्रांसीसी कंपनियां ऑफसेट दायित्व के तहत कई एयरोनॉटिक्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और माइक्रो इलेक्ट्रॉनिक्स तकनीक भी भारत को मुहैया कराएंगी. हालाँकि फ्रांस भारत को सिर्फ 36 राफेल विमान ही दे रहा है, जबकि भारत की जरुरत कहीं ज्यादा विमानों की है, फिर भी दक्षिण एशिया में भारत के दबदबे के दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम तो है ही. 60 हज़ार करोड़ के इस भारी भरकम सौदे से भारतीय वायुसेना को तो निश्चित ही कुछ हद तक मजबूती मिलेगी, किन्तु क्या वाकई इतना पर्याप्त है, इस बात पर विशेषज्ञ थोड़े चिंतित हो जाते हैं. वस्तुतः भारत की सैन्य जरूरतें, इस हद तक बढ़ चुकी हैं कि सिर्फ हथियारों और विमानों के आयात से हम उन जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते हैं. इसके लिए हमें भारत में रक्षा निर्माण क्षेत्र एवं तकनीक विशेषज्ञता को बढ़ावा देना ही होगा.
राफेल से थोड़ा हटकर बात करें तो, वैश्विक ताकत के रूप में उभरने के लिए भारत पूरी जिम्मेदारी के साथ तैयार दिख रहा है. जाहिर तौर पर जिम्मेदारी और ताकत एक दुसरे का पर्याय ही हैं और इस उभार में दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करना एक आवश्यक शर्त बन चुकी है. इसके लिए सरकार की ओर से नई रक्षा खरीद नीति का अनावरण हाल ही में संपन्न हुए डिफेंस एक्सपो में किया गया था. इसके माध्यम से भारत की रक्षा नीति का पूरी तरह से कायापलट किये जाने की योजना बनाई गयी है तो, इसके मूल में देश में निवेश का माहौल निर्मित करना भी है. कुछ-कुछ राफेल सौदे की ही तरह, जिसका आधा हिस्सा भारत में निवेश किये जाने की बात कही गयी है. सरकार ने, इसके लिए एफडीआइ के नियमों में छूट देने से लेकर रक्षा संबंधी लाइसेंस को सरल बनाने की प्रक्रिया अपनाई है, साथ ही टैक्स सुधार और दुसरे प्रोत्साहनों का प्रावधान भी किया गया है. जाहिर है, इस पूरे मामले में 'निजी क्षेत्र' को घुसेड़ा जाना एक तरह से सरकार के लिए 'मजबूरी और जरूरी' दोनों ही है. पर मुश्किल यह है कि निजी क्षेत्र 'येन केन प्रकारेण' अपने कार्य निकलवाने, यानि मुनाफा कमाने के लिए हर वह रास्ता अख्तियार करता है, जो कई बार अनैतिक और राष्ट्र के लिए नुकसानदायक भी हो सकता है. यही बात, अगर रक्षा क्षेत्र को लेकर की जाय तो बात और भी संवेदनशील हो जाती है. हालाँकि, आप 'मुंह जलने के डर से' दूध न पीने की कसम नहीं खा सकते हैं, किन्तु रक्षा क्षेत्र में 'क्वालिटी' और निजी क्षेत्र की 'जिम्मेदारी' सुनिश्चित करने के प्रावधान किये ही जाने चाहिए, इस बात में दो राय नहीं! ऐसे में, निजी कंपनियों के दबाव में, सरकार द्वारा मौजूदा ब्लैक लिस्ट से संबंधित नियमों की समीक्षा ठीक कदम नहीं जान पड़ता है, क्योंकि इससे 'जिम्मेदारी' का भाव कम होने की आशंका है.
रक्षा क्षेत्र कोई 'पेप्सी कोक' या 'मैगी' बनाना नहीं है, जिसमें नियमों की धज्जियां उड़ाकर 'कॉर्पोरेट' अपनी मनमर्जी चला ले, बल्कि यह देश की सुरक्षा से जुड़ा विषय है, इसलिए इसमें जिम्मेदारी और क्वालिटी को लेकर 'जीरो टॉलरेंस' तक की नीतियों को ही बढ़ावा देना चाहिए. इस क्षेत्र में अगर नियमों को सरकार ने लचर किया तो, घोड़े गधे सब घुस जायेंगे और मुनाफा कमाने के लिए, सरकारी अधिकारियों को 'भ्रष्ट' बनाने के नित नए आइडिया ढूंढते रहेंगे! नियमों में, गुमराह करने वाली कंपनियों को कड़े दंड का प्रावधान होना चाहिए, तो भारी वित्तीय दंड और ब्लैक लिस्ट करना जैसे विकल्प रहने ही चाहिए! इसके साथ-साथ, इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी आवश्यक है, जिससे रक्षा क्षेत्र में हमारा देश नए मुकाम हासिल कर सके! निजी क्षेत्र वैसे भी इस फिल्ड में बड़ी दिलचस्पी दिखा रहा है, क्योंकि उसे पता है कि भारत का रक्षा क्षेत्र एक बड़ा बाजार है और यहाँ शुद्ध मुनाफा भी है और इस मुनाफे का वजन भी ज्यादा है. कई निजी कंपनियां इस गफलत में भी होंगी कि 'सरकारी अधिकारियों' को खिला पिलाकर, बनाए गए रक्षा-उत्पाद का अप्रूवल लेना कौन सी बड़ी बात है? वैसे भी अधिकांश रक्षा-उत्पादों की टेस्टिंग के अतिरिक्त आवश्यकता ही क्या होती है. जाहिर है, निजी क्षेत्र की इस तरह की मानसिकता से निपटने के लिए सरकार को बड़ी तैयारी करनी होगी. आंकड़ों के लिहाज से देखा जाय तो, पिछले लगभग दो साल में रक्षा खरीद परिषद ने दो लाख करोड़ रुपये से अधिक के प्रस्ताव को मंजूरी दी है. इसी क्रम में, सार्वजनिक क्षेत्र की पोत निर्माण कंपनियां 1.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के ऑर्डर बुक कर चुकी हैं, जबकि बीते दो सालों के दौरान उनकी सालाना उत्पादन क्षमता सिर्फ छह हजार करोड़ रुपये तक ही रही है. इस दर पर अभी किए गए ऑर्डर की पूर्ति करने में उन्हें बीस साल से अधिक का समय लग जाएगा. यह स्थिति तब है, जब भारतीय नौसेना द्वारा अगले पंद्रह सालों में तीन लाख करोड़ रुपये के साजो-सामान की खरीद की योजना है.
जाहिर है, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां कई क्षेत्र में पिछड़ रही हैं और अब बिना निजी-क्षेत्र को शामिल किये कार्य में तेजी आना नामुमकिन सा हो गया है. हालाँकि, निजी क्षेत्र के पास रक्षा क्षेत्र का अनुभव बेहद न्यून है, बावजूद इसके उनको मौका मिलना ही चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए निजी क्षेत्र एक महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य ही निभा सकता है. आज रक्षा क्षेत्र में क्रांति लाने और आत्मनिर्भर होने के लिए देश में सभी जरूरी कारक मौजूद हैं, लेकिन इस दिशा में हम तभी सफल हो सकते हैं जब हम संयुक्त उपक्रम बनाने और तकनीक ट्रांसफर के लिए एफडीआइ की उदार व्यवस्था लागू करेंगे. यह भारत की निजी कंपनियों को रक्षा क्षेत्र की अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के साथ जुड़ने का अवसर प्रदान करेगा. हां, इस क्षेत्र में सरकार को अति सजगता से कार्य करना पड़ेगा, इस बात में दो राय नहीं! अब चूंकि, एक या दो दिन में तो भारत रक्षा उत्पादन में सिरमौर बन नहीं जायेगा, इसलिए राफेल जैसे सौदों की भी उतनी ही आवश्यकता है, क्योंकि समय और प्रतिस्पर्धा तो उतनी ही तेजी से आगे बढ़ती जा रही है. हां, आगे भविष्य के लिया हमें अवश्य ही रक्षा योजनाओं में आत्मनिर्भरता लानी ही होगी, इस बात से आम-ओ-ख़ास सभी सहमत हैं.
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1 टिप्पणियाँ
जबसे अमेरिका ने पाकिस्तान को F -16 लड़ाकू विमान देने की घोसणा किया है तभी से ये चर्चा जोरो पे है की पाकिस्तान की ताकत भारत की अपेछा बढ़ गयी है. वहीँ अगर लड़ाई में चिन, पाकिस्तान का साथ देता है तो भारत के लिए दोनों से निबटना लगभग असम्भव होगा, वहीँ राफेल की खरीद से भारतीय वायुसेना का मनोबल काफी हद तक बढ़ा है.
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