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उत्तराखंड मामला बना 'गले की हड्डी' - Uttrakhand President Rule, Hindi Article, Congress, BJP, High Court, Supreme Court

अपनी फेसबुक पर मैंने उत्तराखंड मामले में एक पोस्ट डाली. इसमें मैंने लिखा कि- 
उत्तराखंड मामले में अपनी मट्टी पलीत कराने में ***** ने कोई कसर नहीं छोड़ी!
(***** कृपया खाली स्थान भरें!)
कुछ मित्रों ने इस पर कमेंट किया कि 'कांग्रेस', कुछ ने भाजपा तो कुछ ने 'कांग्रेस और न्यायपालिका'! अगर इस पूरे मामले को ध्यान से देखा जाय तो ऐसा ही है. शुरुआत में कांग्रेसी मुख्य्मंत्री हरीश रावत का एक स्टिंग सामने आया, जिसमें वह बागी विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश करते हुए दिखे थे. कांग्रेस का जो और कमजोर पॉइंट दिखा है, वह यह कि सरकार अल्पमत में दिखने के बाद भी 'वित्त विधेयक' को पास करने का जोखिम लिया गया, जो कहीं न कहीं अधिकारों से बाहर जाकर किया जाने वाला कार्य था. जहाँ तक भाजपा के केंद्र सरकार की बात है, तो उनकी कहानी कहीं ज्यादा निराली दिखी है. लगभग एक सूर में लोगों ने कहा कि राष्ट्रपति शासन लगाने के मामले में केंद्र सरकार ने अनावश्यक जल्दबाजी दिखाई, जिससे वह बच सकती थी. इसके बाद बात आयी न्यायपालिका की! इस राजनीतिक मामले में हाई कोर्ट के जज ने ऐसी कड़ी 'टिपण्णी' की, जिसे एक लम्बे अरसे तक याद रखा जायेगा, वह भी देश के राष्ट्रपति के मामले में! हालाँकि, अनेक जजों और वकीलों की भी ऐसी राय जरूर बनी होगी कि हाई कोर्ट के जज को अपना फैसला बेशक देने में संकोच नहीं करना चाहिए था, किन्तु उन्हें राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के बारे में 'अनावश्यक टिपण्णी' से परहेज करना चाहिए था. खैर, जज तो जज होते हैं और उत्तराखंड हाई कोर्ट ने जो फैसला दिया, उसके अनुसार हरीश रावत की सरकार बहाल भी हो गयी, किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के मामले में एक दिन बाद ही 'स्टे' दे दिया. अब कुल मिलाकर कांग्रेस, भाजपा समेत न्यायपालिका के लिए भी उत्तराखंड की स्थिति 'गले की हड्डी' की तरह अंटक गयी दिख रही है. 
हालाँकि, इस मामले में उत्तराखंड ने जिस सख्ती और तल्खी से फैसला सुनाया है, उसने इस मामले को सर्वाधिक चर्चा दिलाई है तो सुप्रीम कोर्ट में होने वाली आगामी बहसों पर भी इस फैसले का असर अवश्य ही दिखेगा. 'भारत में संविधान से ऊपर कोई नहीं है, इस देश में संविधान को सर्वोच्च माना गया है और यह कोई राजा का आदेश नहीं है, जिसे बदला नहीं जा सकता है. राष्ट्रपति के आदेश की भी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है...  लोगों से गलती हो सकती है, फिर चाहे वह राष्ट्रपति हों या जज'! ये टिपण्णी है उत्तराखंड हाईकोर्ट की! उत्तराखंड की राजनीति में जो भूचाल आया है, अब वह बेहद नाटकीय प्रतीत होने लगा है. तत्कालीन मुख्यमंत्री का विधायकों की खरीद-फरोख्त करते हुए वीडिओ वायरल होना, केंद्र द्वारा राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा देना और फिर कोर्ट्स के फैसले ऐसे मामले हैं, जिनसे 'उहापोह' की स्थिति उत्पन्न होनी स्वाभाविक ही है. लोगो के मन में यह सवाल उठना भी वाजिब है कि बीजेपी ने राष्ट्रपति शासन लागू करने में कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी क्यों दिखाई? जब राज्यपाल ने 28 तारीख तक का समय दिया था विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए तो एक दिन और इंतजार किया जा सकता था. 

इसके अतिरिक्त, जब ये आतंरिक जाँच में सही पाया गया था कि हरीश रावत का स्टिंग सही है, तो फिर कांग्रेस के आला नेताओं को सामने आकर इस मामले की जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी, किन्तु अगर जिम्मेदारी ही लोग लेने लगे तो फिर वह राजनीति किस बात की! अब उत्तराखंड से राष्ट्रपति शासन हटाने के हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल तक रोक लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को जल्द से जल्द हाईकोर्ट के आदेश की कॉपी जमा करने को कहा है, साथ ही साथ कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया कि वह इस बीच राष्ट्रपति शासन नहीं हटाएगा. अगर कहा जाय कि इस मामले में सभी पक्षों पर दोहरा मानदंड अपनाने के आरोप हैं तो कुछ गलत न होगा, किन्तु आगे की कहानी और भी उलझी हुई नज़र आ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए. चूंकि मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है, इसलिए इस मामले में कुछ दिन और भी लग सकते हैं और शायद उसके बाद भाजपा अपनी सरकार बनाए या फिर राष्ट्रपति शासन ही लगा रहे. वैसे, अगर राजनीतिक हल की बात करें तो, 9 बागी विधायकों की सदस्यता रद्द होने की स्थिति में भाजपा 'राष्ट्रपति शासन' लगाए रखने के लिए जी-जान लगा देगी, क्योंकि उसके लिए यह मामला 'नाक' का हो गया दिखता है और चूंकि कांग्रेस की नाक अब बची नहीं है, इसलिए उसके पास खोने को बहुत कुछ बचा नहीं है. हाँ, उत्तराखंड हाई कोर्ट की टिप्पणियों ने उसे 'संजीवनी' अवश्य प्रदान की है, इस बात में दो राय नहीं!

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1 टिप्पणियाँ

  1. ये कांग्रेस की अदूरदर्शिता का परिणाम है, की पार्टी की इतनी छीछालेदर हो रही है.

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