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'एनएसजी' में एंट्री और भारत-चीन सम्बन्ध - Nuclear supplier group and Indo China relations, Hindi Article, Mithilesh

वैश्विक महाशक्तियों के बीच प्रतिद्वंदिता कोई नयी बात नहीं है और 'शीत युद्ध' के काल से ही भारत-पाकिस्तान को महाशक्तियां अपने राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करती रही हैं. फर्क बस इतना आ गया है कि अब रूस इस मैदान से हट गया है तो चीन ने पाकिस्तान के कंधे पर बन्दूक रखकर चलाने का अधिकार बखूबी हासिल कर लिया है. भारत को पछाड़ने के लिए चीन और पाकिस्तान एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाह रहे हैं, हालाँकि यह बात अलग है कि तमाम प्रयासों के बावजूद इन देशों की कुत्सित मानसिकता पर पानी फिर जाता है. हाल ही में हुए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे समझौते में चीन ने पूरी तरह से भारत की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया क्योंकि इस आर्थिक गलियारे की परियोजना को भारत के उस क्षेत्र में अंजाम देना है, जिस पर पाकिस्तान ने जबरन कब्ज़ा कर लिया है. इसके लिए, चीन अपनी सेना को पाकिस्तान में भी तैनात करने वाला है. सिर्फ इतना ही नहीं, इसके पहले चीन ने जैश-ए-मोहम्‍मद के सरगना मौलाना मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने वाले यूएन भेजे गए भारत के प्रस्‍ताव में अड़ंगा डालकर, पाकिस्‍तान के लिए अपनी हमदर्दी पूरी दुनिया के सामने जाहिर कर दी थी. जाहिर सी बात है जब दुश्मन एक साथ मिल जायेंगे तो कुछ ना कुछ क्षति करने की जरूर सोचेंगे. खैर, जो भी हो लेकिन भविष्य में इसके लिए नुकसान उन्हीं दोनों देशों को उठाना पड़ेगा, यह तय है. हालाँकि, अपने भविष्य के नुकसानों को न देखने की ठाने इन दोनों देशो ने फिर से भारत के खिलाफ ही हाथ मिलाया है. अब यह दोनों न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में भारत के प्रवेशाधिकार को छीनने के लिए साथ आये हैं. चीन ने पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए कहा है कि एनएसजी में दोनों देशों को एंट्री मिले या किसी को भी नहीं! 'एनएसजी' के खबरियों ने भी इस बात को 100 फीसदी सच बताया है और उनका मानना है कि चीन और पाकिस्तान भारत की 'एनएसजी' में एंट्री रोकने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं. 

बीते 25-26 अप्रैल को ही एनएसजी सदस्‍यता (एनएसजी पार्टिसिपेटिंग गवर्नमेंट्स - PGs) के लिए भारत ने अधिकारिक तौर पर प्रेजेंटेशन दिया था. इसे इत्तेफाक नहीं माना जाना चाहिए कि एनएसजी सदस्‍यों के सामने पाकिस्तान का प्रेजेंटेशन भी भारत के प्रेजेंटेशन की तरह ही था. आखिर यह चीन ही तो है, जो भारत की उभरती ताकत को रोकने के लिए पाकिस्तान के साथ जायज़-नाजायज़, हर तरह का रिश्ता निभा रहा है. गौरतलब है कि "न्‍यूक्लियर सप्‍लायर्स ग्रुप (एनएसजी)  एक मल्टीनेशनल बॉडी है जो परमाणु मटेरियल के एक्सपोर्ट पर कंट्रोल रखती है और इसके दुरूपयोग की सम्भावना को नियंत्रित करती है". इसके अंतर्गत परमाणु हथियार बनाने में इस्‍तेमाल की जाने वाली सामग्री की आपूर्ति से लेकर नियंत्रण तक आता है.  इसकी स्‍थापना 1975 में हुई जिसमें 49 देशों की सदस्यता है. साफ़ तौर पर इसका मकसद परमाणु हथियारों की प्रतिस्पर्धा को रोकना है. यह संस्था इस बात का भी ध्यान रखती है कि न्यूक्लियर मटेरियल का इस्तेमाल, परमाणु हथियार बनाने में न होकर 'असैन्य' उद्देश्यों में हो सके. साथ ही, किसी अन्य देश को न्यूक्लियर इक्विपमेंट्स, मटेरियल्स और टेक्नोलॉजी के एक्सपोर्ट में लिमिट का भी यह संस्था ध्यान रखती है. जाहिर है, ऐसे में चीन का पाकिस्तान के लिए ज़िद्द करना समझ से बाहर है, क्योंकि उसके परमाणु कार्यक्रमों की असुरक्षा उसके परमाणु वैज्ञानिक कादिर खान के ही समय से जगजाहिर है तो कई बार तो उसके परमाणु हथियारों के 'आतंकियों' के हाथ पड़ने की सम्भावना भी वैश्विक एजेंसियां जता चुकी हैं. चूंकि, भारत में इस समय परमाणु-संयंत्र लगाए जाने का अभ्यास चल रहा है, तो चीन इसमें जान बूझकर अड़ंगा लगा रहा है. भारत सरकार अपनी तरफ से पूरी तरह स्‍पष्‍ट कर चुका है कि, एनएसजी के सदस्य होने का मकसद बिजली तैयार करना है. हालाँकि, एनएसजी की सदस्‍यता के लिए जो शर्ते होंगी उसको भारत को मंजूर करना होगा, जैसेकि परमाणु परीक्षण न करना आदि. एनएसजी में पाकिस्तान की एंट्री का कोई चांस नहीं है, बहुत से देश पाकिस्तान की एप्लिकेशन को तत्काल खारिज कर देंगे, क्योंकि अंततः ट्रैक रिकॉर्ड सबको ही मालूम है. 

चीन यह जानते हुए भी 'ग्राउंड्स ऑफ पैरिटी' के बेसिस पर भारत की एंट्री बैन कराने पर तुला हुआ है. यूनाइटेड नेशन में पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट जमीर अकरम ने भी इस बात की पुष्टि की है कि 'चीन', एनएसजी मामले पर 'वीटो' की हद तक जा सकता है. अकरम के अनुसार, "चीन यही चाहता है कि या तो एंट्री दोनों देशों को मिले, नहीं तो वह भारत के खिलाफ वीटो करेगा.  अब उन तथ्यों को चीन अगर भूल गया है कि पाकिस्तान अपनी न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी को लीबिया जैसे देशों को बेचता रहा है, तो फिर इसे वैश्विक राजनीति में 'बिडम्बना' ही कहा जायेगा! हालाँकि, इस बीच बड़ा प्रश्न यह भी उठ रहा है कि क्या चीन, भारत के साथ आर-पार कूटनीति करने का मूड बना चुका है. हालातों पर अगर गौर करें तो आपको इस बात के संकेत भी मिलते हैं. एक तो पाकिस्तान के पक्ष में बेहद खुलकर चीन का खड़ा होना इस बात की पुष्टि करता ही है तो दूसरी ओर भारतीय सीमा पर 'पीएलए' की तैनाती को भी यह कम्युनिस्ट देश मजबूत करता जा रहा है. इस क्रम में हालिया ख़बरों के अनुसार, चीन ने तिब्बत सैन्य कमान (टीएमसी) का सैन्य स्तर ऊँचा कर दिया है. जाहिर है, ऐसी स्थिति में भारत की रणनीति क्या हैं और क्या होनी चाहिए, इस बात पर चर्चा की आवश्यकता जरूर दिखती है. इस क्रम में, अगर हम इतिहास पर नज़र डालते हैं तो चीन में 1949 में कम्युनिस्ट शासन का सूत्रपात दिखता है. बेहद आश्चर्य की बात है कि भारत दुनिया का पहला देश था जिसने नए चीनी जनवादी गणराज्य को मान्यता दी. आप यह सुनकर भी चौंक जायेंगे, जब चीनी सेना ने स्वतंत्र तिब्बत पर कब्जा कर भारत की बाहरी रक्षा पंक्ति को खत्म करना आरंभ कर दिया तब भी जवाहरलाल नेहरू ने चीनी जनवादी गणराज्य के प्रति नरमी जारी रखी. इस समय, तिब्बत ने चीन के आक्रमण से बचने के लिए नेहरू से गुहार लगाई, लेकिन उन्होंने मदद से साफ इंकार कर दिया. उन्होंने इस मुद्दे की चर्चा संयुक्त राष्ट्र महासभा में कराने के उसके आग्रह का भी विरोध किया था. 

नेहरू युग की ऐसी तमाम गलतियां दिखेंगी, जिसका ज़िक्र भारत के ज़ख्म को उधेड़ना ही है, मगर इसके सन्दर्भ में आज हम क्या कर रहे हैं इस बात को अवश्य ही समझना होगा. नेहरू के आगे, 1980 के दशक के बाद फिर से भारतीय सरकारों ने चीन को संतुष्ट किया और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने तो समय-समय पर उसके समक्ष विनीत भाव दर्शाया. विशेषज्ञों के अनुसार, 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के बीजिंग दौरे को भारत के तिब्बत कार्ड को चीन के समक्ष पूरी तरह आत्मसमर्पण करने के समकक्ष ही माना गया. माना जाता है कि अटल बिहारी की इस बड़ी चूक ने चीन को अरुणाचल प्रदेश पर दक्षिण तिब्बत के रूप में दावा करने का मौका दे दिया. वर्तमान में भी, भारत ने चीन को उन देशों की सूची से बाहर निकाल दिया है, जो भारत की चिंता का कारण हैं. इसके अलावा चीनियों को ई-वीजा देने की सुविधा हमारे रवैये की कमजोरी को ही दर्शाती है. यहाँ तक कि मोदी के पीएम बनते ही जब सितम्बर में शी जिनफिंग भारत आये थे, तब पीएलए ने सीमा पर भारी तनाव का माहौल खड़ा कर दिया था. तब साबरमती के किनारे चीनी राष्ट्रपति को झूला झुलाने की खूब चर्चा हुई थी. चीनी निवेश में बढ़ोतरी की आशा के बावजूद, चीनी निवेश में कमी देखी जा रही है, तो भारत और चीन के बीच व्यापार संतुलन में चीन का पलड़ा पहले से भी भारी होता जा रहा है. आखिर 60 अरब डॉलर सालाना फायदा चीन को भारत से ही तो हो रहा है. विशेषज्ञ इस बात को साफ़ तौर पर मानते हैं कि चीन अगर भविष्य में भारत के साथ बराबरी स्तर पर आने को तैयार होगा तो उस दिन से पहले या तो चीन में कम्युनिस्ट शासन का खत्म हो जायेगा अथवा तब तब चीन की अर्थव्यवस्था रूस की मानिंद बिखर चुकी होगी. मतलब यह एक तथ्य है कि भारत चीन की प्रतिद्वंदिता भविष्य में किस मोड़ पर जाने वाली है. ऐसे में, चीन को सीधे तौर पर चुनौती देने वाले जापान से हमें क्यों नहीं सीख लेनी चाहिए? ऐसे में चीन के साथ आर्थिक सम्बन्धों पर भी भारत को कड़ा रवैया अख्तियार करना होगा, बेशक उसे शार्ट-टर्म नुक्सान ही क्यों न हो? उसकी बड़ी परियोजनाओं को भारत में आधार देने की बजाय उसके प्रतिद्वन्दियों जैसे जापान और दुसरे देशों को कहीं ज्यादा अहमियत देनी होगी, इस बात में दो राय नहीं! अन्यथा वह हमारी जड़ काटता रहेगा और हम 'कुछ नहीं, कुछ नहीं' का राग अलापते रह जायेंगे!

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1 टिप्पणियाँ

  1. विश्व पटल पर जहाँ चीन खुल के भारत का विरोध कर रहा है. वहीँ भारत सरकार के लचर व्यवस्था के चलते भारत को सबसे बड़े बाजार के रूप में इस्तेमाल कर अपने सामान की खपत भी करता है. इसलिए जरुरी है की चीन के इस सामान का भारत के बाजार में खपत बंद हो तो उसे भी सबक मिले.

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