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बांग्लादेश की राजधानी ढ़ाका में हमले के बाद वहां की पीएम शेख हसीना ने बेहद दर्द के साथ बयान दिया कि रमजान के पाक महीने में भी जो निर्दोष-खून बहाने से नहीं चूकते हैं, वह कैसे मुसलमान हैं? सच कहें तो इस्लाम के नाम पर आतंक फ़ैलाने वालों को 'रमजान और ईद' से क्या सरोकार! आज लगभग पूरा विश्व ही आतंकवाद के कोहराम से त्रस्त है और ऐसा कहना अतिवादिता नहीं होगी कि इसे काफी हद तक 'इस्लाम' के अनुयायी ही स्पांसर करते हैं. वैसे तो पूरी दुनिया में विभिन्न आतंकी संगठन हैं, जिनके विभिन्न नाम हैं, लेकिन इनका काम एक ही है और वो है हर जगह तबाही मचाना, कत्लेआम करना, मासूम लोगों का क़त्ल करना! यह भी एक बड़ी बिडम्बना है कि ये आतंकी हर जगह आतंक फैलाने को 'अल्लाह' का काम बताते हैं, लेकिन इस्लामिक समुदाय से कदाचित ही 'एक स्वर' में इनकी निंदा निकली हो! एक स्वर में क्या, कहीं से भी इस्लाम के धार्मिक नेताओं ने इसकी स्वैच्छिक निंदा की हो, यह नज़र नहीं आता है (Terrorism, Dhaka Attack, Islamic State, Indian Muslims). धर्मगुरु तो धर्मगुरु, इस्लाम के विभिन्न क्षेत्रों में नाम कमाने वाले मुसलमान भी ऐसे वाकये की आलोचना और लानत-मलानत करने में जाने क्यों पीछे हट जाते हैं, यह रहस्य 21वीं सदी का सबसे बड़ा रहस्य बन गया है. ऐसा भी नहीं है कि इस्लामिक धर्मगुरुओं और इसके तमाम ठेकेदारों को बोलना नहीं आता, बल्कि वह तो खूब बोलते हैं, किन्तु सिर्फ उन्हीं बातों पर जब कोई उन्हें उनकी जिम्मेदारी याद दिलाता है. अभी हाल ही में संजीदा अभिनेता इरफ़ान ख़ान ने जयपुर में क़ुर्बानी पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि "बाज़ार से बकरे ख़रीदकर काटना कुर्बानी नहीं है." ढ़ाका हमले से कुछ ही दिन पहले उनके बयान में यह भी था कि दुनिया भर के मुसलमान और धार्मिक नेता 'आतंकी घटनाओं' की निंदा नहीं करते. उनका इतना कहना भर था कि इस्लाम के तथाकथित ठेकेदार उन पर टूट पड़े, उनकी खूब निंदा की गयी और कहा गया कि वह सिर्फ 'एक्टिंग' से मतलब रक्खें!
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हालाँकि, इरफ़ान झुके नहीं और उन्होंने अल्लाह को धन्यवाद देते हुए कहा कि 'खुदा का शुक्र है कि वह एक ऐसे देश में रहते हैं, जहाँ धार्मिक ठेकेदारों की मनमर्जी नहीं चलती है.' ढ़ाका हमले के तुरंत बाद भी फेसबुक पर इरफ़ान खान ने अपने उसी बयान को दुहराया कि 'ढाका में आतंकवादी हमले पर तमाम मुसलमान चुप क्यों हैं?' इरफ़ान ने फ़ेसबुक पर हमले में घायल सुरक्षाकर्मी की तस्वीर पोस्ट करते हुए आगे लिखा है कि "बचपन में मज़हब के बारे में कहा गया था कि आपका पड़ोसी भूखा हो तो आपको उसको शामिल किए बिना अकेले खाना नहीं खाना चाहिए. बांग्लादेश की ख़बर सुनकर अंदर अजीब वहशत का सन्नाटा है." "क़ुरान की आयतें न जानने की वजह से रमज़ान के महीने में लोगों को क़त्ल कर दिया गया. हादसा एक जगह होता है और बदनाम इस्लाम और पूरी दुनिया का मुसलमान होता है." वो इस्लाम जिसकी बुनियाद ही अमन, रहम और दूसरों का दर्द महसूस करना है, ऐसे में क्या मुसलमान चुप बैठा रहे और मज़हब को बदनाम होने दे? या वो ख़ुद इस्लाम के सही मायने को समझे और दूसरों को बताए कि ज़ुल्म और नरसंहार करना इस्लाम नहीं है. (Terrorism, Dhaka Attack, Islamic State, Indian Muslims)" अपनी पोस्ट ख़त्म करते हुए इरफ़ान ख़ान ने लिखा कि ये उनका एक सवाल है. एक सन्दर्भ का ज़िक्र करें, जिसमें बेस्टसेल्लर पुस्तक 'यू कैन विन' के लेखक शिव खेड़ा लिखते हैं कि अगर 'आपके पड़ोसी पर अत्याचार हो रहा हो और आप चुप रह जाते हैं तो अगला नंबर आपका ही है.' जाहिर है, आतंकियों को आतंक फैलाने की जो खुराक मिल रही है, उसमें 'मुस्लिम जगत' की चुप्पी का बड़ा हिस्सा ही जिम्मेदार है. इसके साथ कई मुसलमान आतंकियों को आर्थिक, शारीरिक, धार्मिक सपोर्ट देते हैं, वह तो अलग आश्चर्य है. थोड़ा और स्पष्ट रूप से चर्चा करें तो, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोग इसलिए भी जल्दी से हीरो बन जाते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि 'इस्लामिक आतंक' से हिन्दू, ईसाई, सिक्ख और दुसरे समुदाय के लोग बड़े-स्तर पर भयभीत हैं और उनके इसी डर का फायदा उठाना 'ट्रम्प' जैसे व्यक्ति को विश्व भर में चर्चित कर देता है. आप इस बात को थोड़े अलग ढंग से देखिये और सोचिये कि 'इस्लामिक आतंक' का पूरी दुनिया में कितना बड़ा भय फ़ैल चुका है, जिसका नुक्सान आम मुसलमानों को ही सबसे ज्यादा हो रहा है और इसके लिए खुद उनकी ही 'चुप्पी' जिम्मेदार है.
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बांग्लादेश तो इस्लामिक मुल्क है, लेकिन ढ़ाका हमले के बाद आप तमाम न्यूजपेपर, वेबसाइट, बयान देख लीजिए, कहीं भी 'मुस्लिम-समुदाय' और मुसलमानों में आतंकियों के प्रति कड़ा आक्रोश नहीं दिखेगा. यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जो बड़े से बड़े सकारात्मक व्यक्ति को भी हिला देती है. खूब पढ़ा-लिखा और विद्वान व्यक्ति भी सोचने को मजबूर हो जाता है कि हर धर्म में कुछ पागल लोग होते हैं, आतंकी होते हैं, किन्तु उसके अपने लोग ही उसकी बुराई करते हैं. पर इस्लामिक-जगत 'आतंक' की बुराई आखिर क्यों नहीं करता है, विरोध क्यों नहीं करता है? ऐसे में सीधा प्रतीत होता है कि आम-ओ-ख़ास सभी मुसलमान आतंक, आतंकियों को जेहाद और अल्लाह के नाम पर 'मौन समर्थन' दे चुके हैं! बांग्लादेश से निर्वासित लेखिका तो वैसे ही इस्लाम पर बोलने के लिए बदनाम हैं और ढ़ाका पर हमले को लेकर उन्होंने ट्वीट किया है कि 'इस्लाम शांति का धर्म नहीं है, और ऐसा कहना बंद कीजिये प्लीज'! हालाँकि, यह टिपण्णी थोड़ी कड़ी है, किन्तु पूरे विश्व में आतंक पर इस्लाम के फ़ॉलोअर्स की चुप्पी ऐसा माहौल अवश्य बना रही है (Terrorism, Dhaka Attack, Islamic State, Indian Muslims). अकेले इरफ़ान खान जैसे लोगों की आवाज़ 'नक्कारखाने में तूती' की तरह रह जाती है. बीबीसी के वरिष्ठ कलमकार ज़ुबैर अहमद इस सन्दर्भ में अपने एक लेख की शुरुआत कुछ यूं करते हैं कि 'ढाका की होली आर्टिसन बेकरी पर दुस्साहसी हमला भारत के लिए वेक-अप कॉल है. बल्कि ये कहें कि भारतीय मुसलमानों की आंखें खोलने के लिए काफ़ी है. भारत के मुस्लिम समाज के एक ज़िम्मेदार नागरिक की हैसियत से मैं ये कह सकता हूँ कि तथाकथित इस्लामिक स्टेट या आईएस हमारे दरवाज़ों पर अगर अपनी बंदूकों से दस्तक नहीं दे रहा है तो विचारधारा की गुहार ज़रूर लगा रहा है. इसी लेख में आगे कहा गया है कि 'हमें जल्द समझ लेना चाहिए कि हमारे पश्चिम में तथाकथित आईएस की पकड़ मज़बूत होती जा रही है और ढाका के हमले के बाद ये साबित हो गया है कि अब पूर्व में भी तथाकथित आईएस वाली विचारधारा ने जन्म ले लिया है. (हालाँकि, बांग्लादेशी सरकार ने ये ज़रूर कहा है कि हमलावर स्थानीय मुस्लिम थे लेकिन तथाकथित आईएस की संस्थापक उपस्थिति ज़रूरी नहीं है, इसकी विचारधारा संगठन से पहले पहुंच जाती है). सवाल वही है कि 'इस्लाम में सुधार कौन करेगा?"
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चरमपंथ की ओर झुकते युवाओं को कौन संभालेगा? शरीयत और परसनल लॉ के नाम पर वैसे ही सुधार की राह को भारत में रोक दिया गया है. ऐसे में 'न हम सुधरेंगे, न सुधारने देंगे' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. फिर तो ऐसे रवैये से यही लगता है न कि आने वाले दिनों में 'आतंक का मौन समर्थन' जारी रहने वाला है! एक मुस्लिम मित्र से इस सम्बन्ध में चर्चा हुई तो उन्होंने आतंक को समर्थन देने के लिए 'बहावी मुसलमानों' को सबसे ज्यादा जिम्मेदार बताया तो सुन्नी मुसलमानों की कट्टरता को भी चुप्पी की वजह बताया. बातों ही बातों में उन्होंने इस बात की तरफ इशारा भी कर दिया कि अमेरिका, इस्लाम को दबाव में लेने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहा है, पर सवाल वही है कि वैश्विक राजनीति की वजह से क्या मुसलमान अपनी अगली पीढ़ी को 'आतंकियों के भरोसे' छोड़ देंगे? हालाँकि, इरफ़ान जैसे एकाध लोगों का ज़मीनी और सार्थक रवैया 'अँधेरे में रौशनी की उम्मीद' जरूर जगाता है, किन्तु बात वहीं आकर रूक जाती है कि 'क्या अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है'? उधर इस्लामिक समुदाय (Terrorism, Dhaka Attack, Islamic State, Indian Muslims) की चुप्पी को अपने लिए समर्थन मानकर आतंकी पूरे विश्व में यहाँ-वहां धमाके करते ही रहते हैं, जिससे कि हर कोई इनके भय से इनकी बात मान ले और इनके अनुसार पूरा विश्व इस्लाम को स्वीकार कर ले. सोचने वाली बात यह भी है कि क्या बाकी का 'इस्लामिक समुदाय भी यही सोच रखता है'? अगर हाँ, तो फिर इसे बदलेगा कौन और अगर इसमें बदलाव नहीं हुआ तो फिर प्रतिक्रिया में 'डोनाल्ड ट्रम्प' जैसे लोगों का उभारना स्वाभाविक ही है और साथ ही स्वाभाविक है 'इस्लाम की बदनामी'! कई लोग भारत में नरेंद्र मोदी के उभार को भी इसी 'आतंकी भय' की प्रतिक्रिया मानते हैं. दिलचस्प बात है कि सहिष्णुता-असहिष्णुता पर बयानबाजी करने वाले शाहरुख़ खान, आमिर खान जैसे लोग इसके कारणों को समझने से बचना चाहते हैं अन्यथा ढ़ाका हमले पर भी इनकी प्रतिक्रिया उतनी ही सख्त और चर्चित होती! इरफ़ान खान जैसे अभिनेता की लोकप्रियता शाहरुख़ या आमिर जितनी नहीं है, किन्तु उन्होंने जो मुद्दा उठाया है, वह पूरे इस्लामिक समुदाय के लिए विचार करने और अपनाने योग्य है.
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आतंकियों की निर्दयता का ताजा उदाहरण अभी तुर्की के इस्तांबुल के कमाल अतातुर्क हवाई अड्डे पर भी देखने को मिला था, जिसमें लगभग 42 लोगों की मौत हो गयी तथा तकरीबन डेढ़ सौ लोग जख्मी हो गए. अभी इस घटना को एक दिन भी नहीं बीता था कि इनका अगला निशाना अफगानिस्तान की राजधानी काबुल बना, जहाँ 30 से ज्यादा लोगों की जानें गईं तथा 50 से अधिक लोग घायल हुए. इसके बाद अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने आगाह किया कि इस्तांबुल जैसा हमला अमेरिका में भी हो सकता है. भारत के हैदराबाद में भी राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने आईएस के मॉड्यूल को ध्वस्त करने का दावा किया है, तो जाँच एजेंसी ने पांच लोगों को गिरफ्तार भी किया है. इससे स्पष्ट है कि खतरा हर जगह है और कोई भी राष्ट्र सुरक्षित नहीं है. एक और बिडम्बना यह भी है कि अगर आतंकियों के हमलों को आंकड़ों के लिहाज से देखेंगे तो, 90 फीसदी से अधिक हमलों के शिकार खुद इस्लामिक राष्ट्र ही रहे हैं. मतलब, अल्लाह के नाम पर क़त्ल-ए-आम करने वालों के शिकार खुद मुसलमान (Terrorism, Dhaka Attack, Islamic State, Indian Muslims) ही सबसे ज्यादा हो रहे हैं. अब आप ढ़ाका हमले को ही देख लीजिए. खबर है कि इंग्लैंड क्रिकेट टीम अपना बांग्लादेशी दौरा रद्द करने वाली है तो तमाम इन्वेस्टर्स इस हमले से बांग्लादेश से अपना कारोबार समेटेंगे या फिर कम कर लेंगे. मतलब, इस एक हमले से बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर ही आतंकियों ने सबसे बड़ी चोट कर दी. आये दिन आईएस, अल-कायदा और तालिबान के खूनखराबों की ख़बरों से अख़बार और न्यूज चैनल पटे पड़े रहते हैं और पुरे विश्व के शक्तिशाली नेताओं की तरफ भी से कोरा आश्वासन और श्रद्धांजलि दे कर जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया जाता है. अफ़सोस की बात यह भी है कि इन आतंकवादियों के सफाई पर जो एकजुटता होनी चाहिए वो नहीं दिखती. कई बार ऐसा भी प्रतीत होता है कि वैश्विक राजनीति की गुटबाजी भी आतंकियों को बढ़ावा देने में सहायक होती है. अब इस्लामिक स्टेट को ही लें, रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियां इसके सफाई में लगी हुई हैं, किन्तु नतीजा जस का तस है.
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वहीं भारत को नीचा दिखाने के लिए चीन, आज कल पाकिस्तानी आतंकियों का खूब सपोर्ट कर रहा है. जो हाफ़िज़ सईद ब्रिटेन द्वारा ईयू से अलग होने को 'अल्लाह की मर्जी' बताकर ब्रिटेन की बर्बादी की भविष्यवाणी और पूरे विश्व में 'इस्लामिक शासन' का खुलेआम भाषण देता है, उसे बचाने के लिए चीन 'वीटो' पावर तक का इस्तेमाल करने को तत्पर रहता है. मतलब 'इस्लामिक जगत (Terrorism, Dhaka Attack, Islamic State, Indian Muslims) की चुप्पी' आतंकियों के बढ़ावे में सर्वाधिक योगदान दे रही है तो 'वैश्विक कूटनीति' का नंबर आतंक को बढ़ावा देने में दुसरे नंबर पर आती है. जब अपनी बारी आयी तो, अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए पाकिस्तान में घुस के अभियान चलाया और किसी की परवाह ना करते हुए लादेन के संगठन को तहस-नहस कर दिया था. फिर वही अमेरिका आईएसआईएस को लेकर इतना ढीला रवैया क्यों अपना रहा है, यह इस्लामिक-जगत के साथ-साथ पूरे विश्व के लिए विचारने योग्य बात है. विचारने योग्य बात यह भी है कि 'आतंकी घटनाओं पर साधी गयी चुप्पी समस्त मुसलमानों को ही कठघरे में खड़ी करती जा रही है' और आतंकी बेख़ौफ़ होकर पूरी दुनिया में आतंक फैला रहे हैं, मानों उनका समर्थन समस्त मुसलमान कर रहे हों! समय है कि इस्लामिक बुद्धिजीवी खुलकर सामने आएं और ज़ोरदार ढंग से आतंक और आतंकियों का विरोध करें, ताकि आम मुसलमान इस बात के प्रति तैयार हो सके कि 'उन्हें भी आतंक का विरोध' करना है. बिना 'आम मुसलमानों' के तैयार हुए, आतंकियों का एकजुट विरोध नामुमकिन ही है और इसका परिणाम खुद मुसलमानों के लिए भी दिन-ब-दिन घातक होता जा रहा है, इस बात में दो राय नहीं!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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