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माह-ए-रमजान, इफ्तार पार्टी और बदलाव का 'ईमान'! Ramjan, Ramadan, iftar party, Hindi Article, Eid Al Fitr, Islamic Laws

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एक पत्रकार मित्र ने कहा कि यार एनडीए की सरकार बनने का बहुत नुक्सान उठाना पड़ा है! मैंने थोड़ा आश्चर्य से देखा उन्हें क्योंकि चर्चाओं में उनका झुकाव दक्षिणपंथ की तरफ ही रहता है. मेरे देखने के अंदाज से उनको मंतव्य समझ आ गया था और झट मुस्कुराकर वह बोले कि भ्रष्टाचार पर जो रोक लगी सो लगी, लेकिन रमजान के दौरान हमारी हर दिन जो पार्टी होती रहती थी, वह भी तो बंद सी हो गयी. मैंने कहा कि परसों ही तो आपके साथी असद ने इफ़्तारी पर आपको बुलाया था, तो फिर... मजाकिया लहजे में मित्र फिर बोले, यार असद की इफ्तार-पार्टी में वह मजा कहाँ जो नेताओं की इफ़्तारी में रहती थी. उनकी बात पर हम दोनों मुस्करा उठे, लेकिन मन की सुई कुछ दिन पीछे जरूर घूम गयी, तो इस पवित्र महीने रमजान का वर्तमान में राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल बंद हुआ सा नज़र आया. यूपीए सरकार के दौरान रोज इफ़्तारी (Ramjan, Ramadan, iftar party) के नाम पर दावत और उससे बढ़कर राजनीति चमकाने वालों को निराशा तो हुई ही होगी, इस बात में शक नहीं! धर्म के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों के बेशक एक भी मुसलमान दोस्त न हों, लेकिन इस समुदाय का हितैषी होने का दिखावा करना पिछले दिनों छुटभैये नेताओं से लेकर राष्ट्रीय नेताओं तक ने बेहतर ढंग से सीख लिया था. सवाल उठता है कि क्या आज हमारे मुसलमान भाई रमजान नहीं मना रहे हैं कि रोजा नहीं रख रहे हैं या फिर उनकी आस्था में कोई कमी आयी है? जी नहीं, मुसलमान भाई तो हमेशा की तरह अपनी परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं और उनके उत्साह में कोई कमी भी नहीं है. हाँ, अखबारों और टेलीविजनों में 'ड्रामा' जरूर पीछे छूट गया है. और सच पूछा जाए तो धर्म का वास्तविक स्वरुप यही है कि उसे शोशेबाजी में लिप्त न किया जाए, तो उसे आपस में वैमनस्य का कारण भी न बनाया जाए. 

कब आएंगे 'मुस्लिम औरतों' के अच्छे दिन! 

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आखिर हमारे देश में त्यौहार और उत्सव कोई आज से तो मनाए नहीं जा रहे हैं, लेकिन यह मानने में हमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि यूपीए सरकार ने अपने दो कार्यकाल के दौरान इस मोर्चे पर भी राजनीति करने की गैर जरूरी कोशिश की थी. बेवजह तुष्टिकरण करना, किसी समुदाय को सिर्फ वोट-बैंक मानकर उसके साथ व्यवहार करना किसी सरकार को कतई शोभा नहीं देता है. कई आलोचक यह भी कह सकते हैं कि 'यूपीए' सरकार और उसके नेता धर्मभीरू थे, तो उसका जवाब यह है कि अन्य धर्मों के प्रति, यहाँ तक कि हिन्दू त्यौहारों पर भी यूपीए की दरियादिली 'बधाई सन्देश' से आगे नहीं बढ़ती थी. इसके जवाब में, देश की जनता ने कांग्रेसनीत गठबंधन को 2014 में खारिज किया और इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि इस तरह की 'बेवजह तुष्टिकरण' नीतियां भी काफी हद तक जिम्मेदार रहीं. जहाँ तक बात रमजान की है तो इस्लाम धर्म में रमजान के महीने का एक अलग ही महत्व है. इस महीने को पाक यानि पवित्र रमजान (Ramjan, Ramadan, iftar party) महीने के नाम से भी जानते हैं तो हमारे मुसलमान भाई-बहन इस सम्बन्ध में मानते हैं कि रमजान के इस पाक महीने में अल्लाह की रहमत बरसती रहती है. इसी रमजान के महीने में एक खास दिन होता है जमात-उल-विदा. यह जमात-उल-विदा रमजान के सत्ताइसवीं शब (27वीं रात) को मनाई जाती है. यह अवसर इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद साहब के जन्म दिवस के रूप में भी माना जाता है. मुसलमानों का ऐसा मानना है कि हज़रत मुहम्मद साहब इसी दिन धरती पर आये थे और इसलिए इस ख़ास रात को इबादत करने वालों की दुआएं पहले क़ुबूल होती हैं. इस दिन नमाज पढ़ने के लिए मस्जिदों में जहाँ बहुत भीड़ इकट्ठी हो जाती है, जिसके लिए नियत स्थान पर पहले से ही इंतजाम किया जाता है. जाहिर है किसी भी इबादत के लिए आपको नियत स्थान का इस्तेमाल ही करना चाहिए न कि कहीं भी सड़क या दूसरी सार्वजनिक जगहों का, क्योंकि इससे न केवल आपकी आस्था पर प्रश्नचिन्ह उठता है, बल्कि आपकी लापरवाही भी जाहिर होती है. 

... तो ट्रम्प-कार्ड चलेगा? 

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चूंकि, पहले के समय में लोग कम शिक्षित थे और सुविधाएं भी कम ही थीं, लेकिन आज हर व्यक्ति को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसकी आस्था या कार्यक्रम से दूसरों को नुक्सान अथवा असुविधा न हो. बेशक वह हिन्दू हो अथवा मुसलमान, लेकिन 21वीं सदी में अब इस बात पर विचार हम सबको स्वयं ही करना चाहिए. चूंकि, रमजान में रोजे से ज्यादा इस महीने में की गयी इबादत का महत्व है और किसी व्यक्ति को दुःख न पहुंचाना भी बड़ी इबादत मानी गयी है, हर एक धर्म में! इस महीने में जमाल-उल-विदा का पर्व उत्साहपूर्ण ढंग से मनाने के बाद ऐसा लगता है कि बस अब रमजान का महीना ख़त्म होने वाला है. इसके पहले ही मस्जिदों और घरों की साफ-सफाई करके इसे दुल्हन की तरह सजाया जाता है. जाहिर है गन्दगी में कोई भी त्यौहार नहीं मनाया जा सकता है, बेशक वह बाहरी गंदगी हो अथवा मन की और रमजान के पवित्र महीने का यह सन्देश हर एक मुसलमान बखूबी समझता है, तभी तो वह इस माह के दौरान न तो गलत शब्द बोलता है और शराब इत्यादि के सेवन से तो कोसों दूर रहता है. सच कहूं तो एक हिन्दू होने के बावजूद 'रमजान' के पूरे महीने में जिस तरह 'तीस के तीस' दिन अच्छी आदतों का अभ्यास कराया जाता है, उसका कायल हूँ. इसे उदाहरण से आप यूं समझ सकते हैं कि आप किसी भी शराबी को अगर 30 दिन शराब से दूर कर दो तो इस बात की सम्भावना होती है कि उसकी यह बुरी आदत छूट जाएगी. हालाँकि, कई लोग बाद में बुरी आदतों को फिर पकड़ लेते हैं और उसका कारण यही है कि रमजान के धार्मिक महत्त्व को तो कई लोग समझते हैं, किन्तु उसके 'वैज्ञानिक पक्ष' का ज़िक्र लगभग भुला दिया गया है. अगर मुसलमान भाई इसके 'वैज्ञानिक पक्ष' पर थोड़ा गौर करें तो कोई कारण नहीं कि वह हर एक मामले में आगे होंगे! सच कहा जाए तो ऐसे ही इस्लाम के कई दुसरे पक्षों पर भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है. 
'योग' से विश्व हो 'निरोग'!
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अब पुराने जमाने में लगभग हर एक धर्म में कई औरतों से शादियां करना और उनको छोड़ देना एक परंपरा सी रही है, किन्तु बदलते जमाने में वह सभी लगभग बदल चुके हैं. रमजान के पवित्र मौके पर अगर भारतीय मुसलमान वैज्ञानिक दृष्टि से सोचें तो वह उस दर्द को समझ पाएंगे कि एक महिला को 'तलाक-तलाक-तलाक' कह देने पर क्या ज़िल्लत और बदनसीबी झेलनी पड़ती है. आज मुसलमान औरत भी पढ़ लिख रही हैं और ऐसे में 'तलाक' से उसके आत्मसम्मान का क्या हश्र होता है, इसे आसानी से समझा जा सकता है. तो क्या यह सही वक्त नहीं है कि भारतीय मुसलमान उन लाखों आंदोलनकारी मुस्लिम महिलाओं की मांग पर भी गौर फरमाएं जो अपने लिए बराबरी का ओहदा चाहती हैं. यह जिम्मेदारी भारतीय मुसलमानों पर ही सबसे ज्यादा इसलिए है, क्योंकि पाकिस्तान में 'महिलाओं की हल्की पिटाई' का कानून बनाने की बात कही जा रही है. ऐसे में उन पाकिस्तानी 'आदिवासियों' से किसी बदलाव की उम्मीद करना सरासर बेवकूफी ही है. यह बेहद सही अवसर है कि जब जमाल-उल-विदा के दिन मस्जिद में लोग इकट्ठे होते हैं तो वह इन तमाम मुद्दों पर 'वैज्ञानिक ढंग' से विचार करें. इसमें पढ़े लिखे और प्रोफेशनल मुस्लिम ज्यादा बेहतर रोल प्ले कर सकते हैं, क्योंकि पुराने और रूढ़िवादी लोगों के लिए बदलाव हमेशा ही नामुमकिन सा रहा है. जहाँ तक इस कर्मकांड 'जमाल-उल-विदा' की बात है तो इस दिन का नमाज 12:45 से लेकर शाम 4:00 बजे तक अदा किया जाता है. जमात शुरू होने के पहले मस्जिदों में पेश इमाम द्वारा ख़ुत्बा पढ़ा जाता है जिसको हर नमाज़ी ख़ामोशी के साथ सुनता है. जाहिर है परंपरा के नाम पर इस्लाम में बेहद समर्पण है और अगर उसमें 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' मिला दिया जाए तो मुसलमानों में दुनिया को दिशा देने का माद्दा है. इस मामले में अगर आगे बात की जाए तो रमजान में रोजा आत्मशुद्धि के लिए रखा जाता है. 
बहता नीर है धर्म, रूढ़िवादिता है अंत
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रोजा ही क्यों, बल्कि कोई भी व्रत चाहे नवरात्र हो या शिवरात्रि, जिसमें खाना-पीना छोड़ कर संयम बरतना पड़ता है, वह सब मनुष्य जीवन के लिए बेहद जरूरी और अनिवार्य अंग हैं. रोजा या व्रत इंसान को आत्मचिंतन और आत्मशुद्धि का अवसर प्रदान करते हैं. इंटरनेट पर खोज के दौरान इस रमजान के महीने से एक शब्द जुड़ा मिला, जिसे 'तक़वा' कहते हैं. तक़वा इंसान को सुधरने और अपने व्यवहार में बदलाव लाने की प्रेरणा देता है. यह शब्द कहीं न कहीं गीता के 'परिवर्तनशील संसार' के नियम की ही पुष्टि करता है. जाहिर है, हर परंपरा में सुधार और बदलाव की बात इस्लाम भी करता है, जो पोंगापंथियों और रूढ़िवादी विचारों से 'आतंक' को बढ़ावा देकर पूरी मुस्लिम कम्युनिटी को बदनाम करने वालों के मुंह पर करारा तमाचा जैसा है. साफ़ है कि असली व्रत या रोजा रखने का मतलब खाना-पीना छोड़ने की बजाय इंसान बनना होता है. हमारी आज़ादी के नायक गांधीजी के तीन बंदरों के द्वारा दिया गया सन्देश भी तो यही है, जिसमें कहा गया है कि "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो." साफ़ है कि किसी भी बुराई से दूर रहना ही इंसानियत है और वह चाहे धर्म के नाम पर, चाहे शरीयत के नाम पर हो, लेकिन किसी भी आड़ के सहारे अत्याचार और अन्याय को बढ़ावा देना बंद होना ही चाहिए. कई मुसलमान मित्र जब आपसी बातचीत में मुस्लिम महिलाओं के तीन बार 'तलाक' बोलने के खिलाफ आंदोलन चलाने के प्रति सहमति व्यक्ति करते हैं तो अच्छा लगता है, किन्तु अब जरूरत है कि बड़ी संख्या में मुसलमान सार्वजनिक रूप से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर आधुनिक ढंग से सोचें, ताकि उनका आत्मविश्वास सुरक्षित रहे और उनका भविष्य भी सम्मानपूर्ण बना रहे. इसी क्रम में हम देखते हैं कि रमजान के महीने में यदि आप झूठ भी बोलते हैं तो आपकी प्रार्थना महत्वहीन हो जाती है. 
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इस बात की जितनी भी तारीफ़ की जाए वह कम है कि इस महीने (Ramjan, Ramadan, iftar party) में नहीं चाहते हुए भी आपकी गलत आदतें अपने आप दूर हो जाती हैं. एक रिसर्च में भी बताया गया है कि रमजान के महीने में शरीर की 200 कैलरी तक जल जाती है. वैज्ञानिकों का कहना है कि रोजा रखने से कई बीमारियां अपने आप दूर हो जाती हैं तो मनुष्य की पाचन-शक्ति के साथ साथ नर्वस सिस्टम भी सही रहता है. इतना ही नहीं, यह मेटाबोलिज्म को नियंत्रित करते हुए मानसिक तनाव, ब्लड-प्रेशर और मोटापे से भी बचाने में मदद करता है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद अच्छा और जरूरी है. इसी कड़ी में, अगर सामजिक दृष्टि से बात करें तो इस महीने में आपसी सम्बन्धों को बढ़ाने के मौके भी खूब मिलते हैं तो इस महीने में रोजे के साथ-साथ दान करने का भी अपना महत्व है. इससे गरीबों का कल्याण सुनिश्चित होता है. सच कहा जाए तो कई अर्थों में इस्लाम शांति का प्रतीक है जो आपस में भाईचारे को बनाए रखने में विश्वास करता है. हाँ, कुछ लोग जरूर इसकी गलत व्याख्या करके लोगों को बहलाकर अपने निहित स्वार्थ की खातिर इस पूरे धर्म को बदनाम करने में कसर नहीं रखते. वह चाहे इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी हों या अमेरिकी राष्ट्रपति के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प, निश्चित रूप से उनकी लानत-मलानत होनी चाहिए और समाज द्वारा इनका समर्थन कतई नहीं किया जाना चाहिए. हालाँकि, इसमें काफी हद तक दोष उन पढ़े-लिखे मुसलमानों का भी है जो इस्लाम की गलत व्याख्या करने वालों पर चुप्पी साध लेते हैं, जिससे आईएएस या अल-कायदा या फिर इंडियन मुजाहिद्दीन, सिमी जैसे आतंकी संगठनों को बढ़ावा मिल जाता है. 
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इतिहास ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है, जब इस्लाम के फ़ॉलोअर्स ने ईमान की खातिर अपनी जानें 'कुर्बान' की हैं, किन्तु आज इसकी छवि पर नकारात्मक असर क्यों है, इस बाबत मुस्लिम समुदाय के युवा और परिवर्तन चाहने वालों को अवश्य ही विचार करना चाहिए. अल्लाह और ऊपरवाला सर्व शक्तिमान है, इस बात में कोई दो राय नहीं लेकिन उसके नाम और संदेशों की गलत व्याख्या करने वालों को रोकना भी प्रगतिशील मुसलमानों का ही धर्म है. ऐसे लोगों का कड़ाई से विरोध होना चाहिए, जो गलत और पुरानी पड़ चुकी चीजों में बदलाव की बात में जबरदस्ती 'कुरआन और हदीस' को ले आते हैं. उन्हें सार्थक बदलावों पर 'चुप्पी' नहीं साधनी चाहिए, क्योंकि इससे उनका ही नुक्सान सर्वाधिक होता है! आखिर रमजान के महीने में इन सार्थक बातों पर विचार करने से बेहतर और क्या होगा? रमजान का महीना अंतिम दिन चाँद को देखने के साथ ही खत्म होता है, जिस दिन को ईद के नाम से मुसलमान भाई मनाते हैं. ईद हमारे भारत में' पहले से ही 'प्रेम और सौहार्द्र का प्रतीक रहा है. हाँ, अंग्रेज़ों के शासनकाल ने जरूर हिन्दू-मुसलमानों के बीच विवाद को सुनियोजित ढंग से बढ़ा दिया गया. हालाँकि, आज के समय में माहौल फिर बदल रहा है और इस बात की सम्भावना काफी हद तक बढ़ गयी है कि अब फिर से सभी समुदाय आपस में मिलकर भारत को और भारतवासियों के जीवन-स्तर को सर्वोच्च स्थान पर ले जायेंगे और निश्चित रूप से इसकी राह 'बदलाव' की राह होगी. बेशक, रमजान का महीना और इसके आखिर में 'ईद' पर इससे बड़ा सन्देश और कार्य कुछ और नहीं!
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- मिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली.



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