हालाँकि, आज 21वीं सदी में ऐसे बहुत कम व्यक्ति होंगे जो 'जनसँख्या-विस्फोट' के खतरों को समझते नहीं होंगे, पर मुश्किल बात यह है कि फिर भी दिनोंदिन जनसँख्या (World Population Day) बढ़ती ही जा रही है. एशिया में भारत और चीन के बीच कई स्तर पर आपसी प्रतिद्वंदिता है और दिलचस्प बात यह है कि इससे 'जनसँख्या-वृद्धि' का क्षेत्र भी अछूता नहीं है. 20वीं सदी में तो दोनों देश एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा रिकॉर्ड कायम करने में लगे थे कि कौन सर्वाधिक बच्चे पैदा कर सकता है. हालाँकि, बाद में इस पर थोड़ा-बहुत रोक जरूर लगी, पर मामला अब अज्ञानता से ज्यादा एक समुदाय का दूसरे से कॉम्पिटिशन का हो गया है. कई समुदाय इसलिए अपनी आबादी बढ़ाना चाहते हैं ताकि भारत जैसे देशों में उनकी 'वोट-संख्या' बढ़ जाए, तो कई बच्चों को उपरवाले की देन मानते हुए औरतों को बच्चा पैदा करने की मशीन मान बैठते हैं. ऐसे में जनसँख्या-विस्फोट होना स्वाभाविक ही है. देखा जाए तो, विश्व जनसंख्या दिवस को मनाने का मुख्य कारण है जनसंख्या विस्फोट को रोकने के लिए लोगों को जागरूक करना तथा इससे उत्पन्न होने वाले खतरों के प्रति उन सबको आगाह करना!
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इसके द्वारा समूचे विश्व भर में हर एक इंसान को सतर्क करने के लिए एक साथ एक मंच पर जनसंख्या विस्फोट के दुष्परिणामों को बताया जाता है, जिससे कि इस अभियान में जनसंख्या को कम करने में विश्व के हर एक नागरिक का योगदान हो. जागरूकता अभियान को मनाने के लिए पुरे विश्व में 11 जुलाई को लोग एक जुट होकर प्रतिज्ञा करते हैं कि वह जनसँख्या-विस्फोट (World Population Day) को रोकने में अपना योगदान देंगे. इस अभियान का मुख्य लक्ष्य आने वाली पीढ़ियों को एक अच्छा पैगाम देना है जिससे आने वाले समय में बच्चों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, वातावरण सहित अन्य आवश्यक सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध हों और यह आसान तभी होगा जब परिवार छोटा होगा. यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि अगर किसी व्यक्ति के पास दिल्ली जैसे शहर में 100 गज का एक मकान है और उसके 5 बच्चे हैं तो आप समझ सकते हैं कि उत्तराधिकार के लिए उनके बीच किस प्रकार का तनाव जन्म लगा! ऐसे में, प्राकृतिक संसाधनों का पूरी तरह से शोषण भी चिंता उत्पन्न करने वाला है. साफ़ तौर पर मानव-समाज को बेहतर बनाए रखने और हर इंसान के भीतर मनुष्यत्व को बनाए रखने के लिए अनिवार्य हो गया है कि 'विश्व जनसंख्या दिवस' की गम्भीरता को समझा जाए.
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इस क्रम में जब हम थोड़ा पीछे जाकर देखते हैं तो 1987 में जब विश्व की जनसंख्या 5 अरब पूरी हो चुकी थी, संयुक्त राष्ट्र संघ ने उसी समय जनसंख्या-वृद्धि की तेजी को लेकर चिंता जताई और विश्व को सतकर्ता बरतने के लिए 11 जुलाई को 'विश्व जनसंख्या दिवस' मनाने का निश्चय किया गया. तब से सभी देश इस दिन को महत्वपूर्ण मानते हुए आज भी जागरूकता अभियान चलाते हैं. बेहद दिलचस्प बात है कि इस अभियान को शुरू हुए लगभग 29 साल हो गए, लेकिन इसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ा है और इसका परिणाम यह हुआ है कि पूरे विश्व की जनसंख्या अब 7 अरब से भी अधिक (World Population Day) हो चुकी है. भारत जैसे विकासशील देश में तो इसका और भी बुरा परिणाम नज़र आया है जिससे लोगों की ज़िन्दगी बदहाल हुई तो गरीबी भी बेतहाशा बढ़ी. जनसँख्या वृद्धि का ही परिणाम है कि भारत में आज भी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी चीज़ों से कई लोग महरूम हैं. हालाँकि, हम बड़ी आसानी से तमाम सरकारों को तमाम सुविधाओं के लिए दोष दे देते हैं, किन्तु हम यह क्यों नहीं समझते कि सवा सौ करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए सुविधाएं बनाना सरकार के बस की बात ही नहीं है. जाहिर है कि यदि अभी भी इस समस्या से एकजुट होकर नहीं लड़ा गया, तो फिर अगले 15 साल में भारत जनसंख्या में चीन से भी आगे होगा.
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एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के अस्पतालों में हर एक मिनट में 25 बच्चे पैदा होते हैं. गांवों और कस्बों के घरों में पैदा होने वाले बच्चों की संख्या अभी तक इसमें नहीं जुड़ी है. आप इससे अनुमान लगा सकते हैं कि यहाँ के लोग जनसँख्या की वृद्धि के प्रति कितने जागरूक हैं!! सच कहें तो कई बार लगता है कि जागरुकता अभियान सिर्फ नाम मात्र है. साफ़ है कि अब सरकार के साथ आम आदमी को भी इसके लिए सतर्क होना पड़ेगा. भारत में इस समस्या से परेशान होकर पूर्व ग्रामीण मंत्री रघुवंश प्रसाद ने कहा था कि "भले ही क्षेत्र और संसाधन के मामले में अमेरिका हमसे आगे हो, परन्तु जनसंख्या के आधार पर (World Population Day) कई अमेरिका भारत में मौजूद हैं". जाहिर है इस प्रकार के व्यंग्य हर भारतीय को अंदर गहरे तक पीड़ा देते हैं. आपको बताते चलें कि भारत की आबादी अमेरिका, इंडोनेशिया, ब्राजील, पाकिस्तान और बांग्लादेश की कुल जनंसख्या से भी ज्यादा है. लेकिन भारत के पास विश्व का मात्र 2.4 प्रतिशत क्षेत्र है, जिसकी वजह से संसाधनों के मामले में हम कहीं ज़्यादा पीछे हैं." भारत ही नहीं आज दुनिया के कई देशों के लिए जनसंख्या विस्फोट एक गम्भीर समस्या बन चुकी है. जहां विकासशील देश अपनी आबादी और जनसंख्या के बीच तालमेल बैठाने में परेशान है, वहीं विकसित देश राहत तथा नौकरी की तलाश में बाहर से आने वाले आश्रितों के कारण परेशान हैं.
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इसी मुद्दे पर यूरोपियन यूनियन की एकता टूट चुकी है, जिसमें से ब्रिटेन बाहर हो गया है. पिछले दिनों 'ब्रेक्सिट' (Brexit and European Union) का चर्चित मुद्दा इसी से सम्बंधित था. हमें यह बात जल्द से जल्द स्वीकार लेनी चाहिए कि जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है, उतनी तेजी से संसाधन उपलब्ध नहीं हो सकता है. यही कारण है कि स्वास्थ्य-सेवा का लाभ सभी तक नहीं पहुंचता है. इसकी वहज से गाँवों से शहर की ओर पलायन बढ़ता जा रहा है, जिससे महानगरों का इंफ्रास्ट्रकचर चरमरा जाता है. बढ़ती आबादी का क्या दुष्प्रभाव हो सकता है, यह हम इस बात से ही समझ सकते हैं कि भारत के इतने आगे बढ़ने के बाद भी इलाज़ के अभाव में प्रसव-काल में ही 1000 में से 110 महिलाएं दम तोड़ देती हैं, वहीं पूरे विश्व में इसकी संख्या 800 प्रतिदिन (World Population Day) है. बढ़ती जनसँख्या के कारण जो दूसरी समस्याएं सामने आती हैं, उसमें रोजगार के अवसर घटना, शहरों में एकाएक जनसंख्या बढ़ना, झोंपड़-पट्टियां/ मलिन बस्तियाँ बढ़ना जैसी गम्भीर समस्याएं शामिल हैं, जिससे मानव अधिकारों का हनन होने के साथ मानव-गरिमा को ठेस पहुँचती है. अमेरिका के डेली न्यूज के अनुसार यदि प्राकृतिक संसाधनों का शोषण ऐसे ही होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब सब कुछ समाप्ति की ओर होगा. बेतहाशा बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने में 'परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रम' कारगर और अनुकरणीय रहे हैं, किन्तु हाल के दिनों में कुछ समुदाय 'वोट-बैंक' की प्रवृत्ति के कारण इससे बचने लगे हैं. इस बात के प्रति सामाजिक संगठनों को ज़ोर देकर कार्य करना होगा. इस बढ़ती जनसँख्या को देखते हुए 'विश्व जनसंख्या दिवस' के मौके पर हर दम्पत्ति को जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए अपने भूमिका पर सोचना ही होगा, क्योंकि कोई और रास्ता हमारे पास बचा ही नहीं है. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे हर पहलु के लिए जनसँख्या-विस्फोट पर रोक एक वरदान साबित होगा, इस बात में दो राय नहीं!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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