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ऐसी महत्वाकांक्षा तो 'दर्द' ही देगी नीतीश जी! - Nitish national politics, hindi article, mithilesh

राजनीति में आप किसी 'छुटभैये' नेता से भी उसका सपना पूछ लीजिए, वह छूटते ही जवाब देगा कि उसका लक्ष्य भारत का 'प्रधानमंत्री' बनना है. ऐसे में बड़े नेताओं की इच्छा का क्या पूछना है, वह चाहे मुलायम हों, नीतीश हों, ममता, जयललिता, मायावती या फिर कोई दूसरा ही क्यों न हो! नरेंद्र मोदी जिस तरीके से गुजरात से निकलकर राष्ट्रीय-पटल पर छा गए, उसने राजनीति के दूसरे धुरंधरों को 'टीस' से अवश्य ही भर दिया होगा किन्तु नीतीश समेत अन्य पीएम महत्वाकांक्षा धारण करने वाले नेताओं और नरेंद्र मोदी में कुछ मूलभूत अंतर हैं, जिसे समझने की आवश्यकता है. गुजरात में सीएम रहते और उसके बाद सेंटर में घुसते समय नरेंद्र मोदी ने राजनीति के घिसे-पिटे नियमों को बदला है और वह बदलाव लम्बे समय तक कायम भी रहा. प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए, राजनीति से सन्यास ले चुके शरद पवार ने हालिया लोकसभा चुनाव के पहले कहा था कि 'नरेंद्र मोदी जैसा गुब्बारा, उन्होंने पहले कभी नहीं देखा और यह जल्दी ही फूटेगा!' यह एक अनुभवी और घाघ राजनेता की टिपण्णी थी, किन्तु आज केंद्र में 2 साल बीतने के बावजूद नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आयी है, जिसकी पुष्टि अनेक सर्वे में भी हुई है. भारतीय राजनीति या फिर किसी और देश की राजनीति ही कह लें, वहां जो लोग भी अचानक और बड़े स्तर पर सफल हुए हैं, उसके पीछे उन तमाम राजनेताओं ने 'बदलाव' का सपना दिखाने में सफलता प्राप्त की है और जनता ने उनके वादों/ दावों पर भरोसा भी दिखाया है. 

बाद में बेशक, वादों/ दावों की ऐसी तैसी हो जाए, किन्तु शुरू में तो पब्लिक भरोसा दिखाती है और नतीजा इंदिरा गांधी, नरेंद्र मोदी या फिर केजरीवाल या फिर अमेरिका के ट्रम्प की चर्चा कह लें, इसके रूप में सामने आता है. नीतीश कुमार ने देश को 'संघ-मुक्त' करने का एक शिगूफा छोड़ा है. जाहिर है, यह भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त' नारे की तर्ज पर ही है, किन्तु दोनों में मूल अंतर क्या है, इस बात को नीतीश कुमार बखूबी समझते होंगे. सवाल यह भी है कि क्या देश के कुछ फीसदी युवा भी नीतीश के इस सपने से ऐतबार रखते हैं? जाहिर है, इस मामले में हवाई किले बनाने से सिर्फ अपना समय नुक्सान करने के अतिरिक्त और क्या हासिल हो सकता है भला! वैसे भी, बिहार में एक लम्बे समय तक नीतीश राज कर चुके हैं, कुछ बदलाव भी आये हैं वहां, किन्तु क्या वाकई नीतीश इन बदलावों से 'संतुष्ट' हैं? क्या वाकई, वहाँ के लोगों को रोजी-रोजगार की समस्याओं से निजात मिल गयी है अथवा मिलने की सम्भावना जग रही है? काश, नीतीश कोई 'शिगूफा' छोड़ने से पहले इन बातों को ध्यान में रख लेते! हालाँकि, महागठबंधन का प्रयोग बिहार में सफल रहा है और इसके नायक रहे नीतीश कुमार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री का ताज खुद के माथे पर सजाने में सफल रहे हैं, किन्तु क्या इतने भर से ही राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की उड़ान भरी जा सकती है? यदि हाँ, तो फिर दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल क्यों नहीं? तो फिर तमिलनाडु की मुख्य्मंत्री जयललिता क्यों नहीं? पश्चिम बंगाल की ममता क्यों नहीं? माया, मुलायम क्यों नहीं? 

आखिर नीतीश बाबू के कोई 'सुरखाब के पर' तो नहीं लगे हैं न! जहाँ तक बिहार में उनकी सफलता का सवाल है तो उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि दिल्ली में केजरीवाल को उनसे कई गुना बड़ी सफलता मिली है, किन्तु इसी दिल्ली की जनता और पूरे देश की जनता ने लोकसभा चुनावों में केजरीवाल को 'ज़मीन सुंघा दी थी'. लोगबाग अब समझने लगे हैं कि किसकी कितनी 'राजनीतिक औकात' है और किसने क्या सिद्ध किया है? नीतीश बाबू, जनता को आपने मूर्ख समझ रखा है क्या कि वह 20 से अधिक नेताओं को केंद्र में इसलिए बहुमत दे दे कि रोज 'सिर फुटव्वल' हो. क्या जनता देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल जैसों का कार्यकाल भूल चुकी होगी? या फिर उसे चरण सिंह, वी.पी. सिंह और चन्द्रशेखर का शासनकाल याद नहीं होगा? बिहार के सन्दर्भ में देखा जाय तो, "सुशासन बाबू" के नाम से मशहूर नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद कानून व्यवस्था में स्थिति ख़राब ही हुई है, लेकिन शराबबंदी का प्रयास, निश्चित रूप से एक बढ़िया कदम है. लेकिन, अभी यह किस हद तक सफल होता है, यह देखने वाली बात होगी. हालाँकि नीतीश कुमार ये बार-बार दुहराते हैं कि उन्होंने जो वादे किए थे, वो अभी अधूरे हैं! ऐसे में, केंद्र की तिकड़मबाजी से नीतीश और बिहार को क्या हासिल हो जायेगा? 2013 से पहले 'राजग गठबंधन' में जो नीतीश की छवि थी, उसे बरकरार रखने के लिए नीतीश कुमार ने एड़ी से चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं, किन्तु उनकी साख को बिहार में ही 'झटके' लग रहे हैं. 

हालाँकि, नीतीश ने केंद्र में अपनी सम्भावना के लिए ही 2013 में बीजेपी के साथ अपने 17 साल पुराने संबंधों को तोड़ दिया था. इसकी सीधी वजह थी 2014 के आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाना. बीजेपी से अलग होने के बाद नीतीश को  अपने धुर विरोधी लालू यादव की शरण में जाने को मजबूर होना पड़ा और लालू ने इसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त करते हुए कहा भी था कि 'नीतीश हमरे गोड़वा में गिर गया, अब उसे उठाएं नहीं क्या!' खुद बिहार में जदयू की क्या ज़मीन है, यह नीतीश को समझना होगा, क्योंकि वह अपने राज्य में ही किसी और के सहारे पर खड़े हैं. नीतीश ने 2019 लोकसभा चुनाव की ज़मीन तैयार करने का प्रयास शुरू कर दिया है और इसी के सापेक्ष में उन्होंने आह्वान भी किया है कि 'अगर बीजेपी का हराना है तो तमाम पार्टियों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है'. पर नीतीश जी, यह सारी बातें अंततः 'नेतृत्व' पर आकर टिक जाती हैं और फिर होती है 'सिर फुटव्वल'! खुद बिहार चुनाव में ही 'मुलायम सिंह' महागठबंधन से अलग क्यों हो गए थे, यह वाकया नीतीश को याद होगा. तब नीतीश ने मुलायम पर तंज कसते हुए कहा था कि 'मुलायम कोई धर्मनिरपेक्ष यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर' नहीं हैं. हालाँकि, भाजपा विरोधियों के लिए नीतीश का आंकलन एक हद तक ठीक ही है कि अलग-अलग लड़ाई लड़ने से फायदा होने वाला नहीं है, बल्कि बीजेपी सबका बुरा हाल करेगी! किन्तु, इससे भी बुरा हाल तब होगा, जब कई दलों को मिलाकर 'भानुमति का पिटारा' बनेगा. जेडीयू के नए अध्यक्ष बने नीतीश ने सभी पुरानी बातों को भुलाकर बीजेपी के खिलाफ तमाम पार्टियों को एक साथ आने की अपील की है, किन्तु उनकी अपील को कांग्रेस ने यह कह कर एक तरह से खारिज ही कर दिया है कि 'नीतीश का आह्वान 'असामयिक' है! हालाँकि, लालू प्रसाद यादव ने जरूर नीतीश का सपोर्ट किया है और खुलकर कहा है कि अगर नीतीश के नेतृत्व में केंद्र में कोई गठबंधन होगा तो 'लालू' को कोई ऐतराज नहीं होगा. हालाँकि, नीतीश ये बखूबी जानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन करना है तो उसमे सबसे अहम है कांग्रेस का साथ आना, क्योंकि कांग्रेस अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी पार्टी है, जिसका जनाधार भी व्यापक है. 

नीतीश के बयान के तुरंत बाद कांग्रेस ने भी बिना समय गवाएं नीतीश के ‘संघ मुक्त’ भारत के  विचारों का समर्थन तो किया लेकिन राज्य स्तर पर दलों के गठबंधन का हिस्सा बनने की इच्छुक नजर नहीं आयी, जो बीजेपी का मुकाबला करना चाहता है. वहीं कांग्रेस पार्टी के महासचिव शकील अहमद ने ये स्पष्ट कर दिया कि नीतीश कुमार एक ‘‘लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं’’ जो बिहार में अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की बात करना एक 'काल्पनिक प्रयास' है. जाहिर है, कांग्रेस किसी हालत में खुद की कीमत पर नीतीश को उभरने देने का रिस्क नहीं लेगी, वह भी चुनाव से पूर्व! आखिर, राहुल गांधी को बेरोजगार करके कांग्रेसी अपनी खानदानी 'वफादारी' को दगा क्यों देंगे? बिहार में गठबंधन कांग्रेस की  मज़बूरी थी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वो अकेले के दम पर चुनाव लड़ना चाहेंगे, क्यूंकि उन्हें ऐसा लगता है कि ऐसा करके वह अपने पैरों पर हमेशा के लिए कुल्हाड़ी मार लेंगे. खुद नीतीश कुमार को भी अभी काफी कुछ साबित करने की जरूरत है, खासकर बिहार के सन्दर्भ में. हाँ, जिस दिन वह बिहार को देश के अग्रणी राज्यों में शामिल कर सके, देश का युवा उनके नाम पर भी सहमत हो सकता है और अगर युवा सहमत हो गया तो 'पार्टी, राजनीति, कूटनीति' सब उसके पीछे हो जाते हैं. यकीन न हो तो आप तमाम क्रन्तिकारी चुनावों के इतिहास पर 'नज़र' घुमा लीजिए!
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2 टिप्पणियाँ

  1. बिहार में बहार है" ये नारा सिर्फ नारा न बन के रह जाये इसके लिए नितीश को कितनी मेहनत करनी है ये वो खुद समझ सकते हैं.

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  2. जिस जनता दल यूनाइटेड के गठबंधन की सरकार के दम पर नितीश कुमार जिस संघ से भारत को मुक्त करना चाहत है उनको शायद ये बात पता नहीं होगी की उनकी 12 साल पुरानी पार्टी को 90 साल पहले स्थापित संघ को उखड़ना इतना आसान नहीं है. यदि ये नितीश कुमार का ख्याली पुलाव है तो अलग बात है . नितीश कुमार इस बात को भली भर्ती जानते होंगे की ऐसे जुमलों से संघ के किसी एक साख को भी नहीं हिल पाएंगे .

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