नए लेख

6/recent/ticker-posts

Ad Code

बॉलीवुड को भी सराहा जाना चाहिए! Hindi article on bollywood, film awards, Mithilesh

पिछले दिनों मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी, जिसमें मैंने लिखा था कि हमारे देश में बॉलीवुड का इतना योगदान तो है ही कि 'लोगों को हर हाल में मुस्कराने का मौका' यह इंडस्ट्री देती है. कई लोगों ने इस बात को सराहा तो कइयों ने फिल्मों में अश्लीलता इत्यादि पर भी कमेंट किया. जाहिर है, हर एक क्षेत्र के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलु होते हैं, किन्तु लोगबाग बजाय की उसकी सकारात्मकता देखने के उसकी नकारात्मक बातों पर ही केंद्रित हो जाते हैं. हालाँकि, अब 'बॉलीवुड' किसी पहचान का मोहताज नहीं है और न यह केवल एक बड़ी इंडस्ट्री में तब्दील हो चुका है, जहाँ हज़ारों लाखों लोग रोजगार पाते हैं, बल्कि भारत के सवा अरब लोगों के जीवन पर सीधा प्रभाव भी डालता है. जाहिर है, ऐसे में आप कल के इस क्षेत्र को अनदेखा तो कतई नहीं कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा जनता नहीं चाहती है. इसकी बजाय अगर आप सकारात्मक बातों को प्रोत्साहन देंगे तो अवश्य ही नकारात्मक पक्ष दबता चला जायेगा. ऐसी ही प्रोत्साहनों में 'राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों' का बड़ा योगदान है और बॉलीवुड में काम करने वाले कलाकारों के लिए यह एक सपना ही होता है. भारत में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार फ़िल्मों के क्षेत्र में दिये जाने वाले पुराने पुरस्कारों में से एक है, जिसकी शुरुआत 1954 में हुई थी. राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों का लक्ष्य सुरुचिपूर्ण और तकनीकी तौर पर उत्कृष्ट तथा सामाजिक तौर पर प्रासंगिक फिल्मों के निर्माण को बढ़ावा देना है. इसके साथ साथ सिनेमा के माध्यम से देश के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों के प्रति समझ और सम्मान को विकसित करना और इस प्रकार राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखना भी इसका उद्देश्य माना जा सकता है, किन्तु इन सबसे बढ़कर यह प्रतिष्ठित पुरस्कार 'कला' को नवजीवन देने जैसा है. 

हालाँकि, भारतीय सिनेमा में आजीवन योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की 1969 में भारत सरकार द्वारा स्थापना भी की गयी है, जो भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के संस्थापक कहे जाने वाले दादा फाल्के के सम्मान में है, किन्तु राष्ट्रीय पुरस्कार की अहमियत निश्चित रूप से एक मानक माना जा सकता है. हालाँकि, इन पुरस्कारों को लेकर कई बार विवाद भी उठे हैं और यह कुछ हद तक ठीक भी है कि लोकप्रिय फ़िल्मी पुरस्कार श्रेष्ठता का सबूत नहीं होते हैं, किन्तु कलाकारों के उत्साह में इन पुरस्कारों से अभूतपूर्व बृद्धि होती है, इस बात में दो राय नहीं! हालाँकि, फिल्मों के लिए असल पुरस्कार दर्शक पहले ही दे चुके होते हैं और इस आधार पर फ़िल्मों को हिट या फ़्लॉप का तमगा भी मिल ही जाता है. पुरस्कारों के आलोचक यह कहने से नहीं चूकते हैं कि पुरस्कारों की क्या ज़रूरत है? यह बात भी सच है कि पिछले कुछ सालों में हिंदी फ़िल्मों के पुरस्कार समारोह श्रेष्ठता की पहचान से ज़्यादा इवेंट हो गए हैं. ऐसे इवेंट, जिन्हें हिंदी फ़िल्मों का दर्शक देखता है और जिनकी मार्केटिंग की जा सकती है. इस छिपे एजेंडा के कारण पुरस्कार समारोह के आयोजकों का सारा ज़ोर और प्रयास स्टारों को जुटाने और उन्हें लाइव परफ़ार्मेंस के लिए तैयार करने में ख़र्च होता है. हालाँकि, पुरस्कारों के मेले में अगर राष्ट्रीय पुरस्कार जैसे आयोजनों की अहमियत बची हुई है तो इसे सकारात्मक ही माना जाना चाहिए. साहित्य की ही तरह सिनेमा भी समाज का ही दर्पण है. समाज की सच्ची तस्वीर सिनेमा में दिखाई देती है और तमाम फ़िल्मकारों ने इस सशक्त माध्यम के द्वारा एक कारगर परिवर्तन और सुधार को समाज में प्रचारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाई जिनकी प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है. जाहिर है ऐसे लोगों के लिए एक 'सलाम' तो बनता ही है. 

अपने प्रारम्भिक काल से ही सिनेमा अपने मनमोहक लुभावने अंदाज के साथ-साथ अपनी सरल और प्रभावशाली संप्रेषणीयता के कारण लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है. हालाँकि, कालांतर में इस माध्यम पर व्यवसायिकता कहीं ज्यादा हावी होती दिखी है और इसका दुष्परिणाम भी देखने को मिला है. लेकिन, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हमारी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री ने बेहतरीन फिल्में नहीं बनाई हैं. भारतीय किसान जीवन की त्रासदी को विमल राय की 'दो बीघा ज़मीन' फिल्म में जिस यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया वह मर्मांतक है और आज भी दिल को छू जाती है. पूँजीपतियों के द्वारा गरीब किसानों की ज़मीन को बड़े बड़े उद्योगों के लिए हड़प लेने के षडयंत्र की दारुण और अमानवीय कथा कहती है यह फिल्म तो महबूब खान द्वारा निर्देशित फिल्म 'मदर इंडिया' भारतीय किसान नारी के संघर्ष और त्रासदी की महागाथा है. इस कड़ी में और भी बहुत सारी फिल्में बनी हैं जो 2016 के 63वें फिल्म अवार्ड तक पहुंचा है, जिसमें 'बाहुबली-दी बिगिनिंग' को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से नवाजा गया है तो 'पीकू' और 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' जैसी समसामयिक फिल्मों का ज़िक्र भी शामिल है जो वर्तमान मुद्दों को मनोरंजन के धागों में खूबसूरती से पिरोती हैं. इसी कड़ी में, अमिताभ बच्चन को ‘पीकू’ के लिए जबकि कंगना को ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स’ के लिए क्रमश: सर्वश्रेष्ठ अभिनेता एवं अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया तो वयोवृद्ध अभिनेता मनोज कुमार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. बताते चलें कि 78 साल के मनोज कुमार दादा साहब फाल्के पुरस्कार हासिल करने वाली 47वीं फिल्मी हस्ती हैं. उन्हें पुरस्कार के तौर पर एक स्वर्ण कमल, दस लाख रूपये नकद और एक शॉल भेंट की गई. गौरतलब है कि उन्हें ‘पूरब और पश्चिम’, ‘उपकार’ और ‘क्रांति’ जैसी देशभक्ति फिल्मों के लिए जाना जाता है. 

एक समय में मनोज कुमार का देशभक्ति फिल्मों के लिए इस कदर जलवा था कि लोग उन्हें 'भारत कुमार' के नाम से जानने लगे थे. पूरे विश्व में अमिताभ बच्चन से भला कौन परिचित नहीं है. उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार के तौर पर रजत कमल और 50,000 नकद रूपये दिए गए. गौरतलब है कि 73 साल के अभिनेता का यह चौथा राष्ट्रीय पुरस्कार है. इससे पहले उन्होंने 1990 में ‘अग्निपथ’, 2005 में ‘ब्लैक’ और 2009 में ‘पा’ के लिए यह पुरस्कार जीता था. इसी तरह, 29 साल की कंगना का यह तीसरा राष्ट्रीय पुरस्कार है. इससे पहले वह ‘फैशन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री और पिछले साल ‘क्वीन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी हैं. इस पुरस्कार से इस साल सम्मानित होना इस अभिनेत्री के लिए बड़ा सम्बल बन गया होगा, क्योंकि वह ऋतिक रोशन के साथ कानूनी लड़ाई में उलझी हुई हैं. इसी तरह इस बार ‘बाहुबली’ को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार दिया गया और निर्देशक एस एस राजामौली तथा निर्माता शोबू यरलागदा एवं प्रसाद देवीनेनी ने स्वर्ण कमल, नकद पुरस्कार और एक प्रमाणपत्र ग्रहण किया. इसी क्रम में, संजय लीला भंसाली ने ‘बाजीराव मस्तानी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार ग्रहण किया तो इस फिल्म को अलग अलग श्रेणियों में पांच और पुरस्कार भी मिले. सलमान खान अभिनीत ‘बजरंगी भाईजान’ को संपूर्ण मनोरंजन के लिए सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया, जो बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल फिल्म साबित हुई थी. जाहिर है, जिन फिल्मों और कलाकारों को इस पुरस्कार से नवाजा गया है, उनका उत्साह चौगुना हो गया होगा तो अन्य कलाकार और निर्माता-निर्देशक भी इस बात से प्रेरित हुए होंगे. सामाजिक सन्दर्भ में अगर थोड़ा पीछे देखते हैं तो, भारत के बहुत सारे समाज सुधारकों ने अस्पृश्यता के शिकार लोगों के जीवन को बदलने के प्रयास किए लेकिन यह भी सत्य है कि इनमें से किसी ने सिनेमा के माध्यम का इस्तेमाल नहीं किया. इसका बड़ा कारण यह भी था कि तत्कालीन समय में यह माध्यम उतना लोकप्रिय नहीं था. इस क्रम में, हिंदी फिल्मों के सामाजिक सरोकार को बलपूर्वक दर्शाने वाली फिल्मों में अस्पृश्यता की समस्या को प्रस्तुत करने वाली पहली फिल्म फ़्रांज ऑस्टेन की सन् 1936 में निर्मित 'अछूत कन्या' थी जो गांधी जी के सुधार आंदोलन से प्रेरित थी. 

इसी समस्या पर विमल राय ने 'सुजाता' बनाई जो फिर से अछूत लड़की और ब्राह्मण लड़के के प्रेम की कहानी है. बी आर चोपड़ा हिंदी फिल्मों में सामाजिक सुधार और सामाजिक चेतना को आधुनिक संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले सफलतम निर्माता निर्देशक माने जाते हैं, जिन्होंने विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए 'एक ही रास्ता' बनाई. हिंदी फिल्मों में पारिवारिक मूल्यों और संबंधों को सुदृढ़ रखने की परंपरा को प्रोत्साहित करने वाले कथानकों पर आधारित फिल्मों की एक सुदीर्घ शृंखला दक्षिण भारतीय फिल्मी संस्कृति की देन रही है. मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन के सुख-दुखों का चित्रण दक्षिण भारतीय फिल्मों की विशेषता रही है. हिंदी फिल्में हर युग में बदलती परिस्थितियों के साथ भारतीय समाज के हर रूप और रंग को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं. आज का दौर फिल्मों का ही दौर है. फिल्म प्रस्तुतीकरण की शैली में अब बदलाव अवश्य दिखाई देता है किन्तु इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंध ही रहे हैं. आने वाले समय में बेहतरीन फिल्मों से समाज लाभान्वित होता रहे और इसी में राष्ट्रीय पुरस्कार की सार्थकता भी दिखती है, क्योंकि अगर अच्छी फिल्में, अच्छे कलाकार, अच्छी पटकथाएं सामने नहीं आती हैं तो फिर हमारी इस इंडस्ट्री और तमाम पुरस्कारों की निष्पक्षता पर प्रश्न भी उठेंगे और कहीं न कहीं लोगों का मोहभंग भी होगा. हालाँकि, तस्वीर का एक पहलु अभी काफी हद तक सकारात्मक है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है.
Hindi article on bollywood, film awards, Mithilesh,
award controversy, vivad, art of performance, best artist hindi article, best website article for bollywood, best film script writing hindi, best song writing hindi,learn acting in hindi, अमिताभ बच्चन, शबाना आज़मी, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, नेशनल फिल्म अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, बेस्ट एक्टर अवार्ड, Amitabh Bachchan, Shabana Azmi, National Film Awards,best actor award, मनोज कुमार, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार, , Manoj Kumar,Dadasaheb Phalke Award, President, Pranab Mukherjee ,Presents ,63rd National Films Awards, hindi cinema gossip website, best article for entertainment, manoranjan udyog web article

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ