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इरोम शर्मीला का 'स्वागत योग्य कदम' है राजनीति में आना! Irom Sharmila, AFSPA in Manipur, Indian Army, Manohar Parrikar, Mahbooba Mufti, Hindi Article



इरोम शर्मीला का नाम आज पूरे देश में भला कौन नहीं जानता है. जिस दृढ़ता से वह पिछले 16 साल से अनशन कर रही थीं, वह उनका परिचय देने में खुद सक्षम है. तुलसीदास जी कहते हैं कि 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई' और इसी सूत्रवाक्य से प्रेरित होकर लोगों के सुख-दुःख की खातिर इस लौह-महिला (Iron Lady, Hindi Articles) ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया है. कहते हैं कि दृढ़ इच्छाशक्ति और कठिन परिश्रम से इंसान सब कुछ हासिल कर सकता है, और मणिपुर की आयरन लेडी कही जाने वाली 'इरोम चानू शर्मीला' इसकी जीती जागती मिशाल हैं क्योंकि अपने 16 साल के लंबे भूख हड़लात के माध्यम से वह नागरिकों की पीड़ा को समाज के सामने लाने में सफल रही हैं. हालाँकि, अब्राहम लिंकन कहते हैं कि अगर मुझे तीन घंटे में किसी पेड़ को काटना है तो प्रत्येक घंटे 15 मिनट अपनी कुल्हाड़ी को तेज करूंगा और इसी बदली हुई रणनीति के तहत अब वह 'हड़ताल' को ख़त्म कर रही हैं, किन्तु उनका संघर्ष 'राजनीति' के माध्यम से जारी रहने वाला है, जो स्वागतयोग्य (Irom Sharmila, AFSPA in Manipur, Indian Army) कदम है. जैसा कि हम सभी जानते हैं इरोम ने बेहद कम उम्र, मात्र 29 साल में मणिपुर में लगे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को लेकर भूख हड़ताल शुरू किया था जो कि तब से लेकर अब तक लगातार चलता आ रहा है. हालाँकि, 'अफस्पा' को लेकर सरकार के मन में कोई संशय नहीं है और देशहित में इसे तब तक जारी रहना चाहिए जब तक कोई और रास्ता नहीं निकल जाता. इसके साथ यह बात भी उतनी ही सच है कि इरोम ने अपने राज्य के लोगों के लिए जो कदम उठाया, उसमें उनके अदम्य साहस का परिचय ही दिखता है. 

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कई ऐसे मामले आये हैं, जिनसे नागरिक अधिकारों में और सहूलियतों की आवश्यकता महसूस होती है, किन्तु यह सभी अधिकार राजनीति के माध्यम से ही हासिल किया जाना चाहिए. अब जबकि इरोम अनशन ख़त्म कर अपने और अपने लोगों के अधिकारों के लिए राजनीति में आने की बात कह रही हैं तो उनको भी बहुत सारी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दुश्वारियों का भान जरूर होगा और फिर तालमेल के माध्यम से समस्याओं को हल करने का रास्ता भी निकलेगा. आप सब को याद ही होगा कि अन्ना आंदोलन (Anna Movement Articles) से कैसे मात्र 12 दिन में ही देश भर में एक लहर पैदा हो गयी थी. देश का हर व्यक्ति अपने आपको उस आंदोलन से जुड़ा महसूस कर रहा था, लेकिन इतने बड़े आंदोलन का निष्कर्ष भी राजनीति ही निकला. जी हाँ, उसी आंदोलन से पैदा हुयी आम आदमी पार्टी आज दिल्ली की सत्ता पर काबिज है. यह बात अलग है कि राजनीति में घुसने से पहले लोग कुछ और कहते हैं, किन्तु राजनीति में आते ही उन्हें सही-गलत का भेद (Irom Sharmila, AFSPA in Manipur, Indian Army) कम समझ आने लगता है. इसी क्रम में, इरोम का राजनीति में आने का निर्णय भी स्वागत योग्य है. देश में तमाम राज्य हैं और हर राज्य की व्यवस्था जरुरी नहीं कि एक ही ढंग से कार्य करे, इसके लिए सक्षम और जुझारू लोगों को ही राजनीति के माध्यम से हल ढूंढना पड़ेगा. अगर हमें व्यवस्था में परिवर्तन भी करना है तो राजनीति एक बेहतर विकल्प है बजाय भूख हड़ताल के! हालाँकि, कई बार भूख-हड़ताल भी अल्पकालिक रूप से बढ़िया परिणाम देती हैं, किन्तु दीर्घकालिक रूप से हल तो राजनीतिक राह से ही निकलता है, इस बात में दो राय नहीं! 


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जहाँ तक बात है, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफस्पा) की तो यह उन तमाम राज्यों में लागू है जो भारतीय सीमा पर पड़ते हैं. इसमें भी वहां तो निश्चित रूप से, जहाँ पाकिस्तान और चीन के द्वारा घुसपैठ करने की संभावना ज्यादा है. हालाँकि समय-समय पर ये आरोप लगते रहे हैं कि अफस्पा का प्रयोग सेना (Indian Army Articles) के द्वारा मासूम और निर्दोष लोगों के खिलाफ भी होता है, लेकिन आप जरा ये भी तो सोचिये कि अगर इन राज्यों से 'अफस्पा' हटा दिया गया तो हालात बद से बदतर हो जायेंगे. इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान और चीन के आतंकवादी इन राज्यों में अपना गढ़ बना लेंगे. इस बीच नागरिक अधिकारों के हनन (Irom Sharmila, AFSPA in Manipur, Indian Army) का जो कुछ भी मामला सामने आया है, उस पर फ़ौज के आतंरिक विभागों को सजगता बरतनी होगी, क्योंकि यह सिर्फ फौज का ही सवाल नहीं है, बल्कि समूचे देश का है. हालाँकि, इक्का-दुक्का मामलों के कारण भारतीय फ़ौज पर सवाल कोई मानसिक रूप से दिवालिया व्यक्ति ही लगाएगा, पर इक्के-दुक्के मामलों पर भी फ़ौज और सरकार दोनों को सतर्क रवैया अख्तियार करना चाहिए. हमारी भारतीय फ़ौज न केवल भारत में, बल्कि तमाम अंतरराष्ट्रीय अभियानों में शांति-सेना के रूप में अनेकों बार प्रशंसित होती रही है, इसलिए उसके खिलाफ उग्रवादी संगठन, पाकिस्तान-चीन जैसे देशों के जासूस लगे ही रहते हैं. इसमें सेना, सेनाधिकारियों और जवानों के खिलाफ स्थानीय लोगों को भड़काना सर्वप्रमुख है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण आज कश्मीर बना हुआ है. 

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ऐसी स्थितियों में भी जिस धैर्य से हमारे सैनिक आतंरिक और वाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं, उनकक समस्त देश कर्ज़दार है और रहेगा. जरूरत है, मणिपुर सहित दुसरे तनावग्रस्त क्षेत्रों में जनता का विश्वास और जीतने की और इसमें इरोम शर्मीला, महबूबा मुफ़्ती (Mehbooba Mufti Hindi Article) जैसे लोग राजनीति के सहारे ही भारतीय जनतंत्र की मदद कर सकते हैं. इसलिए इरोम शर्मीला का राजनीति में स्वागत कीजिये और यह उम्मीद भी कीजिये कि 'अफस्पा' हटाने की ज़िद्द करने की बजाय वह उससे तालमेल बिठाने और जनता को भारतीय जनतंत्र के प्रति जिम्मेदार बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेंगी. ऐसा नहीं है कि अफस्पा की चर्चा सिर्फ मणिपुर में ही हो रही है, बल्कि जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी पिछले दिनों टिप्पणी की थी कि 'अफस्पा' को प्रयोग के तौर पर (Irom Sharmila, AFSPA in Manipur, Indian Army) कुछ इलाकों से हटाना चाहिए. महबूबा ने केंद्र से कहा था कि वह जनता का ‘‘दिल जीतने के लिए’’ प्रायोगिक तौर पर चुनिंदा इलाकों से अफस्पा (सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम) को हटा दे. इसके लिए उन्होंने प्रायोगिक तौर पर 25 से 50 पुलिस थानों से शुरू करते हुए कुछ इलाकों से अफस्पा हटाने का सुझाव दिया था और कहा था कि हम यह नहीं कह रहे कि इसे एक ही बार में पूरा हटा दिया जाए, लेकिन प्रयोग के तौर पर इसे धीरे-धीरे वापस लेकर उन इलाकों के हालात पर नजर रखी जा सकती है. अगर हालात अच्छे रहते हैं तो इसे पूरी तरह वापस लिया जा सकता है, लेकिन अगर ऐसा लगता है कि आतंकवादी सिर उठा रहे हैं तो इसे फिर से लागू किया जा सकता है. 

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हालाँकि, ऐसी बातें करते समय महबूब को यह ध्यान रखना चाहिए कि सेना के अधिकार कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल नहीं है, जिसे कभी हटा लिया जाए, कभी लगा दिया जाए. इस टिप्प्णी के बाद रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी कहा कि यह मसला गृह मंत्रालय (Home Minister Articles) के अधीन आता है और उसे इस पर विचार करना चाहिए. हालाँकि, यहाँ उन्होंने साफ़ तौर पर स्पष्ट किया कि जहां तक सेना का सवाल है तो उसने यह सुनिश्चित किया है कि सीमाएं पूरी तरह से बंद और सुरक्षित रहें ताकि घुसपैठ की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो सके. मतलब, सेना अपना काम अच्छी तरह से कर रही है और अगर राजनेता सच में जनता को सकारात्मक बनाने में जुट जाएँ तो कोई कारण नहीं कि सीमाई इलाकों में सुख-शांति दूसरी जगहों से अधिक न हो जाए. देखना दिलचस्प होगा कि सरकार का इन मामलों पर क्या रूख रहता है और नागरिक अधिकारों के साथ आतंरिक एवं वाह्य सुरक्षा मानकों में समयानुकूल क्या परिवर्तन किया जाता है. बेशक वह कश्मीर हो या मणिपुर, चाहे महबूब मुफ़्ती हों या इरोम शर्मीला, फर्क तो लोगों के जीवन में बेहतरी से है, वह भी आतंरिक/ वाह्य सुरक्षा से समझौता किये बिना! इसी के लिए सबको ही प्रयास करना चाहिए, इस बात में दो राय नहीं!

- मिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली.



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