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67 साल का भारतीय गणतंत्र - New hindi article on republic day of India, 67th gantantra diwas, mithilesh2020

कहते हैं कि अगर आप समस्याओं की तरफ देखोगे तो समाधान ढूंढना तो दूर सोचना भी दूभर हो जाता है. हालांकि, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आप व्यवहारिकता के धरातल से इतना ऊपर उठकर सोचें कि गिरने पर आपकी हड्डी-पसली एक हो जाए. इसलिए वह चाहे व्यक्ति हो, संस्था हो या देश ही क्यों न हो, उसे वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों पर सटीक नज़र रखनी चाहिए तो समाधान की ओर उसके कदम निरंतर ही बढ़ते रहने चाहिए! आज़ादी के बाद हमारा देश जहाँ आने वाले अगस्त में 70 साल का हो जायेगा, वहीं अपने नियम-कानून के लिए संविधान को अंगीकृत करने का 67 साल 26 जनवरी को हो जायेगा. इस बार यह अवसर इसलिए भी विशेष है, क्योंकि देश में नयी सरकार, नयी नीतियों, नए विदेशी सम्बन्ध, नयी योजनाओं का लिटमस टेस्ट हो रहा है. लगभग डेढ़ साल से ज्यादा समय होने को है नरेंद्र मोदी सरकार के और निश्चित तौर पर यह आंकलन होने जा रहा है कि आखिर 67 साल का दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र किस दिशा में जा रहा है? न केवल सरकार के स्तर पर ही, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी कुछ बड़े बदलाव देखने को मिले हैं, जिनमें  सहिष्णुता-असहिष्णुता पर व्यापक हंगामा होना प्रमुख है. इस चर्चा ने अनेक संस्थानों को द्विध्रुवीय डिबेट में भाग लेने पर लगभग मजबूर कर दिया था. विदेश नीति में भारत के सामने कुछ नए अध्याय खुले हैं तो निश्चित रूप से कुछ पुराने ज़ख्म भी उधड़े हैं. पश्चिमी देशों सहित अफ़्रीकी और यूएस से सम्बन्ध मजबूत होते दिखे हैं तो हमारे पड़ोसी नेपाल के साथ सम्बन्ध बुरी तरह बिगड़े हैं. पाकिस्तान के साथ कुछ नया करने के प्रयास में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाहौर में सरप्राइज-कूटनीति करने की कोशिश जरूर की, लेकिन पठानकोट में आत्मघाती हमलों ने साल की शुरुआत में ही भारतीय गणतंत्र की पीठ में छूरा घोंप दिया. इस गणतंत्र पर जो सबसे बड़ा सवाल तैरेगा, वह निश्चित रूप से 'पाकिस्तान से निपटने' के ऐतिहासिक और कूटनीतिक तरीकों पर विचार-विमर्श को केंद्र में लाएगा! 

नए और महत्वकांक्षी शासक इतिहास को छोड़कर भविष्य की ओर बढ़ने की जल्दबाजी जरूर दिखाते हैं, लेकिन पठानकोट जैसे हमले फिर से उसे इतिहास में धकेल देते हैं, इस बात में रत्ती भर भी शक नहीं होना चाहिए! इस गणतंत्र दिवस पर फ़्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का मुख्य अतिथि बनना ख़ास मायने रखेगा, क्योंकि हाल ही में फ़्रांस ने भी बड़ा आतंकी हमला झेल है. निश्चित रूप से चरमपंथी प्रभाव पर भारत और फ़्रांस के शीर्ष स्तर नेताओं पर सामरिक साझेदारी के स्तर तक पहुँचने वाली बातचीत की तैयारियां ज़ोरों पर होंगी! राजनीतिक स्तर पर अगर बात समझने की कोशिश की जाय तो पहली बार आम आदमी पार्टी की दिल्ली से बाहर गंभीर चुनावी परीक्षा होगी, जो अरविन्द केजरीवाल के साथ विपक्ष की राजनीति को भी एक नए रंग में रंगने की कोशिश करेगी! केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के तमगे से बाहर निकालकर राष्ट्रीय परिदृश्य पर छा जाने को बेताब दिख रहे इस आंदोलनकारी नेता की राष्ट्रीय संभावनाओं पर पंजाब की जनता मुहर लगाती है या उसे नकारती है, इस पर बहुत कुछ कांग्रेस का भी भविष्य निर्भर करेगा! अगर पंजाब में लोगों ने केजरीवाल एंड पार्टी पर भरोसा जताया तो यह सबसे ज्यादा खतरा कांग्रेस के लिए ही पैदा करेगी, क्योंकि दिल्ली की तरह भाजपा विरोधी वोट एकजुट होकर कई राज्यों मसलन महाराष्ट्र, हरियाणा, एमपी, हिमाचल इत्यादि में आम आदमी पार्टी की ओर खिंच जायेंगे, जो उसे कई स्तर के चुनावों कांग्रेस के अस्तित्व तक को टक्कर दे सकते हैं. जाहिर है, केजरीवाल को मजबूत करने वाले नेता और कार्यकर्ताओं में एक बड़ा अनुपात कांग्रेस से जाने वाले लोगों का ही होगा, तो वोटर्स भी बड़ी संख्या में इस तरफ खिसकेंगे! हालाँकि, केजरीवाल की पार्टी से अभी कई राष्ट्रीय मुद्दों, मसलन भारत-पाकिस्तान रिश्तों, न्यूक्लियर मामले, आर्थिक सुधार के अगले क़दमों, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र के अंधाधुंध निजीकरण या दलित-आदिवासी मुद्दे जैसी जटिलताओं पर विचारधारा के स्पष्ट होने की उम्मीद की जा रही है, जिसका कोई ठोस प्रयास दिख नहीं रहा है. निश्चित रूप से यह गणतंत्र दिवस नए तरह के बदलावों का बड़ा सूचक होने जा रहा है. हाँ! यह बदलाव सकारात्मक होंगे, या फिर असरहीन रहेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा! 

हालाँकि, कभी-कभी निष्पक्ष रूप से अगर भारतीय लोकतंत्र और पश्चिमी देशों की समृद्धि की तुलना करता हूँ तो एक ही व्यापक कारण समझ में आता है और वह है दोनों संस्कृतियों में 'स्त्रियों' का स्थान! इसको यदि सिर्फ समृद्धि और स्व-निर्भरता के लिहाज से देखा जाय तो साफ़ हो जाता है कि पश्चिम में जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों उत्पादकता के मामले में समान रूप से कार्य करते हैं, वहीं भारत में आज भी यह दर बेहद कम है. यहाँ स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि हमारी पारिवारिक संरचना, उनकी अश्लीलता से हज़ार गुना बेहतर है, किन्तु जब बात 'मेक इन इंडिया' की आती है तो इस तथ्य पर समाज के साथ सरकार को भी ठोस और तेज प्रयास करने होंगे. आश्चर्य तो तब होता है, जब संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का मुद्दा ठंडे बस्ते में अनिश्चितकाल तक के लिए बंद है. पिछले 20 सालों में तमाम चुनावी घोषणाओं और दावों के बावजूद, देश के मुख्य राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं तो इसी कारण से राज्य सभा में पारित होने के बावजूद ‘महिला आरक्षण विधेयक’ लोकसभा तक नहीं जा सका है. यह एक ऐसा सवाल है, जो शीर्ष स्तर से लेकर समाज की सबसे छोटी ईकाई, यानी 'परिवार' तक में पूछा जाना चाहिए. आप सोचकर दंग रह जायेंगे कि हमारे भारतीय समाज के पास हर वर्ग, हर सम्प्रदाय में महिलाओं के रूप में कितनी 'ठोस' एनर्जी है, जो बदलते समय के साथ जाया हो रही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि 67 वें गणतंत्र दिवस पर शीर्ष स्तर से इस पर विचार शुरू किया जाना एक क्रन्तिकारी कदम हो सकता है. इसके अतिरिक्त भी जिन चुनौतियों पर कार्य करने की आवश्यकता सर्वाधिक महसूस होती है, उनमें किसानों का वर्तमान हालातों में कोई सुधार न होना प्रमुख मुद्दे के रूप में नज़र आता है. हालाँकि, वर्तमान सरकार से तमाम मुद्दों पर इसलिए सकारात्मक उम्मीद बंधती है, क्योंकि वह समस्याओं का रोना रोने की बजाय, समाधान की दिशा में तेजी से आगे बढ़ती जा रही है और यही हमारे गणतंत्र को और भी मजबूत बनाने के लिए आवश्यक भी है. 

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