अभी हाल ही में दिल्ली में आयोजित श्री श्री रविशंकर के 'विश्व महोत्सव' की बड़ी चर्चा रही है. महोत्सव के कंटेंट से ज्यादा इस बात पर विवाद हुआ कि यह यमुना के खादर में कार्यक्रम किया गया, जिससे पर्यावरणविदों की गम्भीर आपत्तियां सामने आईं. खैर, यह कार्यक्रम हुआ और इस बाबत लोगों में पक्ष-विपक्ष के अनुसार खूब चर्चाएं भी सामने आईं. एक मित्र से बात हुई तो उन्होंने तपाक से कहा कि 'पर्यावरण की रक्षा की उम्मीद केवल एक धर्म विशेष के लोगों से ही क्यों की जाती है, जबकि केरल से लेकर जाने कहाँ-कहाँ इस तथ्य का खुला उल्लंघन होता है.' मैंने उन मित्र महोदय से कहा कि यार, दुसरे उल्लंघन करते हैं तो क्या इसे हमें भी करना चाहिए और इससे गाडी रूकने की बजाय गलत दिशा में और तेजी से आगे नहीं बढ़ जाएगी? उन मित्र महोदय का दूसरा तर्क था कि ऐसे कार्यक्रमों से हिन्दू संस्कृति का प्रसार ही तो होता है. मेरा सीधा जवाब था कि 'हिन्दू संस्कृति' तो प्रकृति को यथारूप में ही पूजने को प्रेरित करती है, वगैर किसी बदलाव या दिखावा के. आप प्रकृति के किसी भी पक्ष को उठा लें, हिमालय को गोवर्धन रूप में तो वृक्षों को पीपल के रूप में, नदियां तो लगभग सभी ही पूजी जाती हैं. ऐसे में संस्कृति का अहम पक्ष तो यही है कि प्रकृति की रक्षा की जाय! खैर, इस कार्यक्रम से अलग हटकर देखते हैं तो गर्मी का मौसम शुरू हो चूका है और सूरज आग बरसाने लगा है. अप्रैल के शुरुआत में ही दोपहरी की धूप पसीना नहीं सूखने दे रही, ऐसे में पानी की चिंता की 'रस्म अदायगी' ही सही, की जानी चाहिए. रस्म अदायगी शब्द का प्रयोग इसलिए किया, क्योंकि हर वर्ष वही चिंता, वही आंकड़े, किन्तु ग्राउंड पर हकीकत शून्य! प्रकृति अपनी ताकत कभी कभार ही दिखाती है, वह दिखाती नही बल्कि इंसान को सचेत करती है की अति ठीक नही! इस देश में अनेक जगहों पर सूखे और अकाल की मार है, लेकिन महाराष्ट्र में इसका प्रभाव कुछ अधिक ही प्रतीत होता है.
महाराष्ट्र में पानी की किल्लत का अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं की अभी गर्मी की शुरुआत ही हुई है और महाराष्ट्र में पानी के लिए मारा-मारी शुरू हो गयी है. महाराष्ट्र के 43,000 गाँवों में से 14,708 गांवों को राज्य सरकार पहले ही सूखा प्रभावित घोषित कर चुकी थी, जिसमें से ज्यादातर मराठवाडा के थे. इस क्रम में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने सरकार को लताड़ा भी था कि विदर्भ के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? तब सरकार ने विदर्भ के 11,962 गांवों को सूखा प्रभावित करार देकर राहत देने का ऐलान किया था. हालाँकि, हालात के सुधरने के संकेत अभी काफी क्षीण अवस्था में हैं. बिडम्बना यह है कि इस देश में सबसे अधिक जल भंडारण की योजनायें महाराष्ट्र में ही चला करती हैं और एक करोड़ की योजना पर घाल-मेल करके किस प्रकार 100 करोड़ बना दिया जाता है, इस बात का तो हमारा सिस्टम पहले ही काफी अभ्यस्त है! ऐसे में बच्चे 99 करोड़ नेता-अफसर-ठेकेदार को भेंट चढ ही जाता है. एक अपुष्ट अनुमान के मुताबिक, अनेक अनुपयोगी योजनायें भी महाराष्ट्र में चलाई जाती हैं, जिनसे जनता को कुछ ख़ास फायदा तो होता नहीं है, हाँ, नेता-अफसर-ठेकेदार गठजोड़ को जबरदस्त फायदा हो जाता है!मुंबई के अधिकांश जगहों पर तापमान 40 डिग्री के आसपास पहुँच गया है. सोलापुर और जलगांव में पारा 41 और 43 डिग्री तक पहुंच गया है. अभी तो अप्रैल की शुरुआत हुई है और ऐसे में, मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि मॉनसून जून के पहले हफ्ते में मुंबई पहुंच जाएगा. यह मान भी लें कि मानसून समय से आ ही जायेगा तो अभी अप्रैल, मई और आधा जून तो अभी बाकी ही हैं. तड़पाने वाली गर्मी और लू के साथ मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य क्षेत्र पानी की भारी कमी के बीच अब सबसे गरम ढाई महीने कैसे काटेंगे, यह एक यक्ष प्रश्न सबके सामने विराजमान है?
पानी के अभाव में गांवों से पलायन शुरू हो गया है तो पानी की आपूर्ति करने वाली झीलों में जून तक का ही पानी मौजूद बताया जा रहा है. मुंबई महानगर पालिका ने कई महीनों से 15 प्रतिशत पानी कटौती कर रखी है, जिसे और बढ़ाए जाने की बात कही गयी है. कई जगहों पर दिन में केवल एक बार आधे घंटे के लिए पानी आता है तो कहीं तीसरे दिन, तो कहीं हफ्ते में एक बार ही पानी आ रहा है. ऐसा भी नहीं है कि ये हालात सिर्फ महाराष्ट्र में ही हैं, बल्कि देश के अधिकांश राज्यों में पानी की भारी किल्लत है. गुजरात के सौराष्ट्र में कई डैम सूखने की कगार पर हैं, इसलिए सरकार उनसे लोगों को पानी नहीं दे पा रही है. इस कड़ी में, सौराष्ट्र तक नर्मदा नदी की केनालों के जरिये पानी पहुंचाया जा रहा है, लेकिन इतना पानी लोगों के लिए पर्याप्त नहीं है, या बात ग्राउंड पर साफ़ तौर से दिख रही है. लोग सरकार से गुहार लगाए जा रहे हैं लेकिन कोई खास कार्रवाई नहीं हो रही है. ऐसे में समस्या का बढ़ना लगभग तय ही माना जा रहा है. इसी कड़ी में, बुंदेलखंड की हालत और भी भयावह है, जहाँ लगातार कई सालों से सूखा पड़ने की वजह से बुंदेलखण्डी जनता भुखमरी की कगार पर खड़ी है. राजनेता यहाँ आ-आकर अपनी राजनीति तो खूब चमकाते हैं, किन्तु उन्हें यह शायद ही दिखता है कि यहाँ के लोगों का पलायन जोरों पर क्यों है? हालत ये है की बुंदेलखंड के गावों में नौजवान आपको ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे! अगर बुंदेलखंड क्षेत्र के गांव में कोई बचा भी है तो सिर्फ बूढी आबादी जो काम नहीं कर सकती और मजबूर है गांव में रहने को! केंद्र सरकार की तमाम योजनायें ऐसे में विफल रही हैं तो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकार की ज़मीनी योजनाएं भी हवा-हवाई ही साबित हो रही हैं. इस गर्मी में बुंदेलखंड की जनता किस तरह अपना जीवन-यापन करेगी, यह एक बड़ा प्रश्न इस क्षेत्र के लोगों के सामने मुंह बाए खड़ा है! ऐसे ही भोपाल में फरवरी से ही टैंकर पानी पहुंचाने लगे हैं, तो इंदौर में रोज पानी को लेकर विवाद हो रहे हैं. कोलकाता के 49 वार्डों को साफ पानी नहीं मिल पा रहा है तो चेन्नईवासी पानी पर रोज 50 लाख खर्च कर रहे हैं! अन्य शहरों की बात करें तो, लखनऊ करोड़ों लीटर भूजल निकालने के बावजूद पानी-पानी चिल्ला रहा है तो एक अन्य आंकड़े के मुताबिक 2021 तक दिल्ली को प्रतिदिन दो अरब गैलन पानी चाहिए होगा. मात्र नौ साल बाद इतना पानी कहां से आयेगा, यह चिंता अभी से दिल्लीवासियों को सता रही है!
अभी हाल ही में, हरियाणा में जात आंदोलन के कारण दिल्ली में जो क्षणिक जल संकट उत्पन्न हुआ था, उसने कई लोगों को भविष्य की ओर सोचने को मजबूर कर दिया था. जाहिर है, इस तरह की स्थितियां, विकास के हमारे दावों की सरे बाज़ार पोल खोल देती हैं. जिधर देखो उधर पानी के लिए हाहाकार मचा है. अभी तो ये शुरुआत भर है तो आगे और भी भयंकर स्थिति होने वाली है. अलग-अलग समय में हर एक ने कइयों उपाय करके देख लिए हैं, लेकिन यह संकट है कि थमता ही नहीं! और थमे भी कैसे, आखिर समस्या की जड़ तक पहुँचने की कोशिश भी तो नहीं हो रही. पहले समाज पानी को लेकर जागरूक था, पानी समाज की सम्पदा हुआ करता था,पानी को बचाना, उसकी सुरक्षा का काम समाज का है ऐसा मानता था! अंग्रेजों के आने से पहले देश के पांच लाख गांवों में 25 लाख तालाब थे, इन्हें किसी सिंचाई या जल विभाग ने नहीं बनाए थे बल्कि, इन्हें समाज ने अपने दम पर निर्मित किया था. समाज कई पीढ़ियों तक इनकी रखवाली करता था. कुएं, तालाब आदि जनभागीदारी से बनते थे और जनता ही उसकी मालिक होती थी. अपने आपको आधुनिक कहने वाले लोग इस परम्परा को भूल गए. आज हम सब बनी-बनाई सरकारी योजनाओं के सहारे पड़े हैं, पानी को लेकर हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है, ऐसे में किसी भी आपात स्थिति में हमारे जीने-मरने का संकट उत्पन्न हो जाता है! अंधाधुंध शहरीकरण ने प्रकृति के सिस्टम को बिगाड़ दिया है. नदियों पर लोग बाँध और अवैध कब्ज़े करके उसको नालों में तब्दील कर चुके हैं तो नाले और कुएं तो अब 'लुप्तप्राय' हो चुके हैं. आखिर, इन सम्पदाओं को किसी एलियन ने तो छिना नहीं है? इसे तो हमारे लालच और कुंठित स्वार्थ ने ही हमसे दूर किया है और इस कदर दूर किया है कि अब पृथ्वीवासियों के जीवन पर संकट आन खड़ा हुआ है. हम पानी के उपभोक्ता बन चुके हैं और सोचते हैं कि ये सारा जिम्मा सरकार का है, हमने वोट दिया है और सरकार कहीं से भी ला के हमें पानी दे! हमारी यह सोच सही है गलत है, इस बात का फैसला किया ही जाना चाहिए, क्योंकि सरकार की अपनी सीमाएं हैं. क्या यह सच नहीं है कि पानी बचाने का सबसे ज्यादा जिम्मा हमारा है तो अवैध कब्ज़े किसी भी रूप में हों, बाँध, धार्मिक स्थल, कार्यक्रम, हमें उसे रोकना ही होगा! हमें पानी चाहिए, हमारे लिए हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए पानी चाहिए तो पानी की सबसे ज्यादा चिंता भी हमें ही होनी चाहिए. अगर हम ठान लें कि हमें पानी बचाना है तो छोटे- छोटे उठाए गए कदम भी सार्थक सिद्ध होंगे! पानी की इस मुहिम को हमें घर-घर तक ले जाना चाहिए, स्कूलों तथा कालेजों में वाटर प्रिजर्वेशन कैंप द्वारा बच्चों को ये शिक्षा देनी चाहिए कि पानी बचाना कितना जरुरी है!
जल के उपयोग में संयम सुनिश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है तो जल प्रदूषण, जल का अति दोहन, यह संकल्प और सख्ती के बगैर सम्भव नहीं है. संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक, यदि इस वर्ष हमें जल के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, तो राज, संत और समाज को एक-दूसरे की ओर ताकना छोड़ना होगा और सबको साथ मिलकर कार्य करना होगा. आज भी जहाँ-जहाँ समाज ने मान लिया है कि ये स्रोत भले ही सरकार के हों, लेकिन इनका उपयोग तो हम ही करेंगे, वहाँ-वहाँ चित्र बदल गया है, वहाँ-वहाँ समाज पानी के संकट से उबर गया है. जहाँ-जहाँ, जिसने भी अपनी जिम्मेदारी संभाल ली, जल संसाधनों पर नैतिक हकदारी उसे स्वतः हासिल हो गई. जाहिर है, जो काम समाज स्वयं कर सकता है, उसे बढ़-चढ़ के उसे ही करना होगा, और अगर सरकार भी इसमें घूसखोरी और लूटपाट को बंद करने के प्रति कृत संकल्प हो जाए तो कोई कारण नहीं कि स्थितियां बदल जाएँ. इसी कड़ी में, प्लोस वन जर्नल में प्रकाशित एक शोध में कहा गया है कि एशिया महादेश में दुनिया की लगभग आधी आबादी रहती है, लेकिन यहां के लोगों को साल 2050 तक पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ेगा. इस शोध में स्पष्ट कहा गया है कि पानी की इस किल्लत का मुख्य कारण बढ़ती आबादी और वर्तमान पर्यावरण संबंधी व आर्थिक समस्याएं होंगी. अमेरिका की मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी की वरिष्ठ शोध वैज्ञानिक एडम स्क्लॉजर ने बताया, 'यह केवल जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नहीं है. हालांकि जलवायु का असर सबसे अधिक है जिसके कारण पर्यावरण पर दबाव बढ़ता जा रहा है. जाहिर है, जल संकट पर कार्य करने वाले पर्यावरणविदों के लिए यह एक बड़ा एंगल है.
जल का महत्व, जल संचय और जल उपयोग के बारे में हमारा गौरवमयी इतिहास रहा है, तो हमारे वेद-पुराणों में भी जल संचय का महत्व बखूबी बताया गया है. धर्मात्मा युधिष्ठिर के इस कथन में यह सीख स्वतः निहित है कि बहती नदी मिले या पानी का सागर, उसमें से प्यास भर पानी लो, पर उस पर अपना अधिकार न जताओ. कितना बड़ा सूत्रवाक्य है जल संचय और प्रकृति के संरक्षण का, किन्तु इसे तथाकथित अंधाधुंध विकास के वाहक समझेंगे, इस बात में बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है! अपने इतिहास को हम खंगालें तो दिखता है कि ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ शब्द बेशक आज ईजाद हुआ है, लेकिन महात्मा विदुर ने अपने इस कथन में वर्षा जल संचयन का महत्त्व कितना पहले बताया था - “यदि वर्षा हो और धरती उसके मोती समेटने के लिये अपना आंचल न फैलाये, तो वर्षा का महत्त्व नहीं.’’ इस उपलब्ध ज्ञान के बावजूद यदि हम भारतीय, जल संचय की जगह अर्थ संचय को अपनी प्राथमिकता बना रहे हैं, तो हमें अपने आप को आधुनिक और ज्ञानी नहीं बल्कि मूर्खों की श्रेणी में ही रखना चाहिए. मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं हो रहा कि हम भारतीय पानी के प्रति अज्ञानी अथवा जानबूझकर किए जा रहे कुप्रबंधन का शिकार है, हालाँकि जल पुरुष राजेंद्र सिंह जैसे कुछ एक प्रयास अवश्य ही सही दिशा में अग्रसर हैं. हालाँकि, ऐसे प्रयास जल माफियाओं की आँखों की किरकिरी बने हुए हैं तो अवैध कब्ज़े वाले लोग भी अपने निहित स्वार्थों की खातिर जल-संकट को बढ़ा ही रहे हैं! उम्मीद की जानी चाहिए कि इस गर्मी की शुरुआत में ही इन समस्याओं पर समाज और सरकार दोनों के ही स्तर पर चिंतन-मनन किया जायेगा और जल-संकट से मुक्ति का व्यवहारिक मार्ग भी प्रशस्त किया जायेगा. शायद तब ही हम 'सर्वे सुखिनः भवन्तु' के मन्त्र का खुलकर जाप कर सकते हैं, अन्यथा इस मन्त्र का प्रभाव क्षीण हो जायेगा, इस बात में दो राय नहीं!
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