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संघ मुक्त या 'कांग्रेस मुक्त भारत'! Congress Mukt Bharat ya Sangh Mukt Bharat, Hindi Article, Mithilesh

नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का जो नारा दिया, संयोगवश वह वर्तमान दशक के सबसे चर्चित नारों में से एक बन गया. कांग्रेस के लिए यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पहले 2014 में लोकसभा चुनाव और उसके बाद तमाम विधानसभा चुनावों में वह एक-एक करके हारती चली जा रही है. यही नहीं, उसकी सरकार को गए 2 साल पूरे होने को हैं, लेकिन अगस्ता वेस्टलैंड जैसे घोटाले के गम्भीर आरोप उस पर आज भी लग रहे हैं. कहा जा सकता है कि इस सबसे पुरानी पार्टी की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. कांग्रेस मुक्त नारे की ही तर्ज पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 'संघ मुक्त भारत' का नारा दिया, जो थोड़ा बहुत चर्चित भी हुआ, किन्तु हफ्ते भर में यह फुस्स भी गया, क्योंकि नीतीश के नारे लगाने में खुद कांग्रेस ने ही दिलचस्पी नहीं दिखाई. इन दोनों नारों की एकबारगी तुलना कर भी लें तो फिर कांग्रेस ही इसमें बैकफुट पर नज़र आ रही है और कोई यह माने या न माने, लेकिन कांग्रेस के क्षेत्रीय पार्टी के रूप में बदलने का संकट सामने दिख रहा है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रभाव-क्षेत्र और भी व्यापक होता जा रहा है. हालाँकि, कांग्रेस के बारे में इस आंकलन को कई लोग जल्दबाजी मान सकते हैं, किन्तु बड़े से बड़ा आशावादी भी वर्तमान हालात के अनुसार इस बात से इंकार नहीं कर सकता है कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' की नौबत भी आ जाए तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए. यह बात हवा-हवाई नहीं है, बल्कि इसके पीछे ठोस कारण और आंकड़े नज़र आते हैं. कहा जाता है कि अपनी गलतियों से सबक लेना चाहिए ताकि आगे गलतियां न हो, मगर कुछ लोग और संगठन ऐसे भी हैं, जो गलतियों से सीख नहीं लेते, बल्कि वो गलतियां बार-बार दोहराते हैं. ऐसा ही कुछ हाल है धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टी कांग्रेस का! 

2009 के चुनाव के बाद से पार्टी की लोकप्रियता में जबरदस्त कमी देखने को मिली,  जिसके पीछे घोटालों तथा भ्रष्टाचार का अहम हाथ था, जिसमें 2जी, कोल आवंटन, कॉमनवेल्थ गेम घोटाला जैसे कई घोटाले एक-एक करके सामने आये थे. इन सब मुद्दों पर कांग्रेस नेतृत्व का चुप्पी साधना उसकी कब्र खोदने का काम करने लगा और राष्ट्रव्यापी आंदोलन 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' खड़ा हुआ, जिसकी अगुवाई की 'अन्ना हज़ारे' ने! फिर 2014 के ही लोकसभा चुनाव में भाजपा ने नारा दिया "कांग्रेस मुक्त भारत" का, जो अब तक किसी न किसी रूप में लगातार जारी है. इससे पहले भी देश में कांग्रेस के खिलाफ आवाजें उठी हैं, विरोध भी हुआ है, जैसे लोहिया का 'काँग्रेस हटाओ' आन्दोलन, जेपी आन्दोलन, भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन! इन आंदोलनों ने भी कांग्रेस की नींव को उखाड़ के रख दिया था और जनता ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाया था. हालाँकि, पिछले तमाम आन्दोलनों में 'कांग्रेस मुक्त' जैसी शब्दावली और उसके 'अर्थ' ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि उस समय के कांग्रेस नेताओं की पार्टी के प्रति निष्ठा तथा दूरदर्शिता ने कांग्रेस को वापस खड़ा करने में अपनी अहम भूमिका निभाई. लेकिन मौजूदा समय में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है. लोगों का जैसे कांग्रेस से मोह भंग सा हो गया है और यह खाई लगातार गहरी होती जा रही है. इतनी विशाल पार्टी में कोई भी ऐसा नेता नहीं सामने नहीं आ पा रहा है जिसकी छवि ईमानदार और सक्षम नेतृत्व देने की हो और जिसके नाम पर वोट मांगे जा सकें. अधिकांश ही नहीं बल्कि समस्त कांग्रेसियों की छवि 'मोटी मलाई काटने' वालों के तौर पर पुख्ता होती जा रही है. हालाँकि, इस पार्टी में भी अच्छे लोग हो सकते हैं, किन्तु असल बात तो छवि की है और यह लगातार बिगड़ती जा रही है, इस बात में दो राय नहीं! 

यह भी सोचने वाली ही बात है कि पार्टी की गिरती साख से किसी को कोई मतलब है भी या नहीं! देश पर सर्वाधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस की हालत लगभग सारे ही राज्यों में ख़राब दिख रही है. अभी उत्तरांचल का मामला नया है और इस मामले में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई है, उसमें कही न कही पार्टी के आलाकमान की भी गलती रही है. जब आपके मुख्यमंत्री का नाम स्टिंग में आता है तो खुद कांग्रेस को चाहिए था हरीश रावत के खिलाफ स्टैंड लें, ताकि पार्टी की छवि पर कोई आंच न आये, लेकिन यहाँ कांग्रेस ने लचर रवैया अपनाया और लगातार 'स्टिंग' को झूठा करार देते रहे. इससे सरकार तो नहीं बची है, बल्कि कांग्रेस की छवि सत्ता लोलुप की और बनी. हालाँकि, इस मामले में केंद्र पर भी कुछ सवाल उठे हैं, किन्तु बड़ा नुक्सान तो कांग्रेस का ही हुआ है. असम जहाँ चुनाव संपन्न हो ही रहे हैं तो पश्चिम बंगाल में भी चुनाव खत्म होने ही वाला है, यहाँ भी विशेषज्ञों की माने तो कांग्रेस के लिए अच्छी खबर आने की सम्भावना न के बराबर ही है. अगर हम बात करें मध्य प्रदेश की जहाँ भाजपा की सरकार है तो वहां तो हालत और भी ख़राब है. इस राज्य में कांग्रेस की पहचान गुटों में रही है. यहां दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, सिंधिया, सुरेश पचौरी जैसे दिग्गजों का अपना गुट है और यहां जब भी चुनाव आते हैं, कांग्रेस के ये गुट सक्रीय हो जाते हैं. हालाँकि इनकी सक्रियता कांग्रेस को मजबूत करने की न होकर अपना-अपना राग अलापने वाली ज्यादा होती है. वहीं पंजाब में मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत बादल के रूप में कांग्रेस को एक तुरुप का इक्का हाथ जरूर लगा है, जिससे 10 साल से पंजाब की सत्ता से दूर कांग्रेस को सत्ता में आने का आस जगी थी. 

हालाँकि, आम आदमी पार्टी की मजबूत उपस्थिति का सीधा मतलब यही है कि वहां कांग्रेस का वोट बैंक ही खिसकेगा और बहुत कम सम्भावना है कि वहां भी कांग्रेस सत्ता में आये! जाहिर है भाजपा के नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा अपना असर समस्त भारत में दिखा रहा है, लेकिन इसके लिए भाजपा से ज्यादा जिम्मेदार खुद कांग्रेस पार्टी ही है. कुछ दिनों पहले की बात करें तो, बिहार में कांग्रेस पार्टी को महागठबंधन का थोड़ा बहुत फायदा जरूर मिला है, लेकिन वहां 'पिछलग्गू' की स्थिति से कांग्रेस को कुढ़न ही होती होगी. आखिर लालू और नीतीश जैसे क्षेत्रीय नेताओं की जूती के नीचे रहना 'कांग्रेस' जैसी पार्टी को क्या अच्छा लगेगा? यही हालत उत्तर प्रदेश में कोई लोकप्रिय चेहरा न होने की वजह से है. ओडिशा, आंध्र प्रदेश और बीजेपी शासित गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का भी यही हाल है, जहाँ कांग्रेस मुश्किल में ही रहने वाली है.  कुल मिला के देखा जाये तो समस्त भारत में कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जहां कहा जाये कांग्रेस मजबूत अवस्था में है. 

कहने को केरल, कर्णाटक, हिमाचल और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में उसके मुख्य्मंत्री जरूर काबिज़ हैं, लेकिन खुद कांग्रेसी भी इन राज्यों में आने वाले चुनावों में वापसी की उम्मीद खो चुके हैं. अगर एकाध में जैसे-तैसे वापसी हो भी जाए तो क्या फर्क पड़ जायेगा, यह बात समझ से बाहर है? अब समय आ गया है कि पार्टी के कर्ता-धर्ता, खेवनहारों तथा थिंकटैंक को गहराई से सोचना होगा... न... न... पार्टी को आगे बढ़ाने के बारे में नहीं, बल्कि राहुल गांधी को पीछे करके दूसरे काबिल लोगों को आगे बढ़ाने के बारे में, क्योंकि 21वीं सदी का भारत सिंहासन पर 'जूतियां' रख कर राज नहीं करने देगा. यह जनमानस की ऐसी मानसिकता है, जिसे कांग्रेस जितनी जल्दी समझ ले, उसका उतनी ही जल्दी भला हो सकता है. हाँ, राहुल प्रियंका जैसों को उनकी योग्यता के लिहाज से यह पार्टी स्थान जरूर दे, किन्तु उनको 'राजा' मानने की मानसिकता से निकलना ही होगा, अन्यथा 'कांग्रेस मुक्त भारत' जल्द ही बन जायेगा. कांग्रेस को अपने नेतृत्व को ले कर पुनः विचार करना ही होगा और समझना होगा की जबरदस्ती 'राहुल गांधी' को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने का सपना कहीं पार्टी के अस्तित्व को ही न खत्म क़र दे! सोनिया गांधी को पुत्र-मोह को किनारे क़र पार्टी के भविष्य के बारे में एक बार जरूर सोचना चाहिए. यही उचित होगा पार्टी और देश दोनों के लिए क्योंकि कांग्रेस मुक्ति की प्रक्रिया के साथ ही देश में मजबूत विपक्ष की तात्कालिक तौर पर कमी भी दिखने लगी है! भले ही आज नीतीश कुमार और अरविन्द केजरीवाल जैसे कुछ नाम आगे जरूर आ रहे हैं, लेकिन सभी जानते हैं कि वैसाखी के सहारे खड़े ये नेता राष्ट्रीय राजनीति में कितने दिन टिक पाएंगे भला! हालाँकि, राजनीति संभावनाओं का खेल है और आने वाले समय में यह दिखेगा भी, किन्तु वर्तमान हालात में तो 'कांग्रेस मुक्त भारत' बनने की सम्भावना दिन-ब-दिन प्रबल होती जा रही है, इस बात में दो राय नहीं!
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