नवंबर 2015 की एक घटना आंदोलन का रूप ले लेगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा होगा. बात तब की है जब एक महिला पूजा करने के लिए शनि मंदिर के उस स्थान तक पहुँच गयी, जहाँ शनि देव की प्राचीन मूर्ति स्थित थी और जहाँ महिलाओं का जाना वर्जित था. उसके बाद मंदिर के पुजारियों द्वारा उस स्थान का दूध तथा तेल से 'शुद्धिकरण' किया गया. इस घटना के बाद अचानक चर्चा में आई भूमाता ब्रिगेड ने, जो महिलाओं के बराबरी के अधिकार की लड़ाई की बात करते हुए शनि मंदिर समेत देश के वो सारे मंदिरों तथा धार्मिक स्थलों में प्रवेश को अपना मुहीम बना लिया. भारी संख्या में महिलाओं का प्रदर्शन हुआ शनि मंदिर के बाहर और भूमाता ब्रिगेड की लीडर तृप्ति देसाई को अरेस्ट तक होना पड़ा था. इस मामले में मुंबई हाई कोर्ट ने भी अहम फैसला सुनाया कि 'जहाँ मर्द जा सकते हैं वहां औरतें भी जा सकती हैं'. महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर अधिकार मिलना चाहिए. कुल मिला कर तृप्ति देसाई अपने मिशन में कामयाब हो गईं और शनि सहित त्र्यंबकेश्वर मंदिर के गर्भगृह तथा महालक्ष्मी मंदिर में भी उन्होंने प्रवेश किया. हालाँकि तृप्ति के लिए यह इतना आसान भी नहीं था और इस क्रम में, उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा. यहां तक की महालक्ष्मी मंदिर में तृप्ति के साथ झड़प भी हुयी, लेकिन अपने अडिग इरादे के चलते वो अपने मिशन में कामयाब हो गईं. इससे पहले तृप्ति को शायद ही कोई जानता होगा, लेकिन तृप्ति देसाई, शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की मांग को लेकर रातों- रात चर्चा में आ गईं.
अपने उत्साह से लबरेज तृप्ति ने ये ऐलान भी कर दिया कि वो और उनकी 'भूमाता ब्रिगेड' मशहूर हाजी अली दरगाह में भी प्रवेश करेगी. बताते चलें कि हाजी अली दरगाह में 2011 के बाद महिलाएं मजार तक नहीं जा सकती हैं. इसके खिलाफ़ बॉम्बे हाइकोर्ट में याचिका दायर की गई है, जिस पर फैसला आना अभी बाकी है. हालाँकि, असल ड्रामा तब शुरू हुआ, जब अपने तय कार्यक्रम के अनुसार तृप्ति कुछ लोगों के साथ हाजी अली दरगाह पहुंचती तो हैं लेकिन पुलिस द्वारा रोकने पर आंदोलन ख़त्म कर दिया जाता है. बड़ा प्रश्न उठा कि आखिर तृप्ति का ये आंदोलन वो धार क्यों नहीं पकड़ पाया जैसा शनि मंदिर में प्रवेश के समय था? पुलिस और दरगाह के कर्मचारियों के एक विरोध पर ही दरगाह में प्रवेश की मुहीम क्यों फीकी पड़ गयी? प्रश्न उठने लगे और 'एक देश एक कानून' की सुगबुगाहट भी उठी. प्रश्न यह भी उठा कि बराबरी का हक़ दिलाने वाली तृप्ति क्या सिर्फ हिन्दू धर्म में ही महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाएंगी? क्या सिर्फ हिन्दू धर्म में ही गुंजाइश है बदलाव की और दुसरे सम्प्रदाय या मान्यताएं कानून के दायरे में नहीं आती हैं? इस मामले पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी चुप्पी साध ली और वैसा त्वरित फैसला नहीं आया, जैसा शनि शिंगणापुर के मामले में आ गया! हिन्दू पण्डे, पुरोहितों और धर्मशास्त्रियों ने भी पुरजोर विरोध किया था अपने पुराने धार्मिक नियम को तोड़ने का किन्तु कोर्ट ने तुरंत फैसला सुना दिया कि महिलाओं को धार्मिक स्थलों पर प्रवेश का अधिकार होना चाहिए. वहीं बात जब इस्लाम की आती है तो जनता तो जनता कानून व्यवस्था भी टालमटोल करते नजर आने लगती है.
तृप्ति देसाई तो केवल एक बानगी भर हैं, देश में मुस्लिम महिलाओं की क्या हालत है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नामक संगठन में तमाम मुस्लिम महिलाएं एक छत्र के नीचे आंदोलन कर रही हैं, किन्तु उनकी सुनने वाला कौन है यहाँ? अपने सुख-सुविधा के कारण हर नियम तोड़ने वाले पुरुष रसूल और उसूल के साथ 'पर्सनल लॉ' की दुहाई देते हैं और कानून मूक-दर्शक बना देखता रहता है. प्रश्न उठता ही है कि 'संविधान' के सहारे हर हक़ और सहूलियत हासिल करने वाले लोग आखिर 'महिलाओं के अधिकार' के मामले में कानून मानने से इंकार कैसे कर सकते हैं और कानून ऐसे में बेबश क्यों बन जाता है? आखिर क्यों एक ही देश में कुछ महिलाओं को बराबरी का हक़ मिले और कुछ को नहीं क्योंकि उनका धर्म कट्टर है! तृप्ति देसाई ने इस प्रश्न को बड़ी शिद्दत से उठाया है, लेकिन उनके 'शनि शिंगणापुर' का जवाब तो मिल गया, किन्तु 'हाजी अली' के माध्यम से बड़ा जवाब कानून और संविधान के रखवालों को देना शेष है. अब यह जवाब कब मिलता है, इस बात का इंतजार तृप्ति के साथ समस्त मुस्लिम महिलाओं और उससे भी बढ़कर 'समस्त भारतीयों' को भी रहेगी, इस बात में दो राय नहीं!
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