कोई उन्हें विकास पुरुष कहता है तो कोई हिन्दू हृदय सम्राट, कोई उन्हें तानाशाह कहता है तो 'मौत के सौदागर की पदवी' भी उन्हें दी गयी, कोई उनमें भारत को 'विश्व गुरु' बनाने की सामर्थ्य देखता है तो कोई भारत की सवा सौ अरब आबादी को 'रोजी रोजगार' देने की आशा पाले हुए है. इतना ही नहीं, कोई उन्हें कॉर्पोरेट के नजदीक होने का इल्जाम लगाता है तो कई ऐसे भी हैं, जो उन पर इस बात के लिए हृदय से विश्वास करते हैं कि 'चाय वाले होने के कारण, देश के गरीब का दर्द वह बखूबी' समझते हैं. न जाने कितनी आशाएं, उम्मीदें और संशय के बीच प्रधानमंत्री मोदी के उदय के समय समूचे विश्व की निगाहें भारत पर टिक गयी थीं. आज कांग्रेस इतिहास के सबसे बुरे दौर में, मात्र 44 सांसदों के साथ खड़ी है तो इसमें नरेंद्र मोदी का ही योगदान है तो भारत में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का श्रेय उन्हें भारतीय ही नहीं, तमाम वैश्विक संस्थाएं निसंकोच दे रही हैं. इसकी चर्चा आगे की पंक्तियों में करेंगे, किन्तु उससे पहले यह दुहराता चलूँ कि जब 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा एक नारा 'आपने कांग्रेस को 60 वर्ष दिए, मुझे 60 महीने दीजिए', दिया तो शायद ही किसी को यह विश्वास रहा होगा कि यह व्यक्ति सत्ता में अपने दम पर आएगा! पर बीजेपी 31 फीसदी वोट और 282 सीटों के साथ सत्ता में आ गयी तो एक रिकॉर्ड भी बन गया, क्योंकि 1984 के बाद किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी ने बहुमत हासिल किया. नरेंद्र मोदी ने जो 60 महीने मांगे तो जनता ने उन्हें 60 महीने दिए भी! अब जब उन 60 महीनों में 24 महीने बीत गए हैं और अब केवल 36 महीने बचे हैं, तब उनके कार्यकाल का एक निष्पक्ष आंकलन जरूर होना चाहिए कि चुनाव के दौरान मोदी ने जो वादे किये थे, उस बड़ी लिस्ट में से कितने कार्य पूरे हुए और कितने पाइपलाइन में हैं? हालाँकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि घरेलू स्तर पर तमाम योजनाओं और कार्यक्रमों की शुरुआत नरेंद्र मोदी ने जरूर की है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वाहवाही बटोरने में भी कामयाब रहे हैं.
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हालाँकि, घरेलु योजनाओं-कार्यक्रमों की शुरुआत और अंतर्राष्ट्रीय वाहवाही के बीच ज़मीनी स्तर पर क्या कुछ हासिल हुआ है, इस बात पर बड़ा मतभेद दिखेगा, क्योंकि शुरुआत तो जरूर मोदी ने ठीक ठाक की है, किन्तु कुछ आगे चलकर वह लड़खड़ाते दिखे हैं. इसमें आप चाहे तमाम देशी योजनाओं की बात करें, अथवा शपथ-ग्रहण में सार्क नेताओं को बुलाने की उनकी शुरूआती रणनीति से आज तक का आंकलन करें! मोदी की विदेश यात्राओं के कारण भारत एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अहम भूमिका में जरूर आ गया दिखता है, अमेरिका से करीबी भी दिखी है, किन्तु चीन, पाकिस्तान और यहाँ तक कि नेपाल से हमारे सम्बन्ध उहापोह की स्थिति में नज़र आते हैं, जिनकी दिशा पहले से भी नीचे की ओर जाती दिख रही है. थोड़ा सकारात्मक ढंग से देखें तो, मोदी की अत्यधिक विदेश यात्राओं की आलोचकों द्वारा खूब आलोचना भी होती रही है, लेकिन कई जानकारों का यह भी मानना है कि मोदी ने ऐसे समय में विदेशों का दौरा किया, जब भारत को इसकी बहुत आवश्यकता थी, क्यूंकि विदेश नीति के मामले में यूपीए सरकार के सुस्त रवैये के कारण भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर कुछ खास नहीं कर पा रहा था, वहीं अलग-अलग देशों में जाकर नरेंद्र मोदी ने वहां माहौल बनाया, जिससे बड़ी कम्पनियाँ भारत में निवेश करें. इसका लाभ भी हुआ है, जिसकी वजह से मूडीज, एसएंडपी और फिच जैसी ग्लोबल क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने जो आम तौर पर भारत को नकारात्मक रेटिंग देती रही हैं वो भारत में उद्योग और व्यापार का माहौल बेहतर करने के लिए मोदी सरकार की तारीफ़ करती दिखी हैं. इस क्रम में, मूडीज ने भारत की क्रेडिट रेटिंग स्टेबल से पॉजिटिव कर दी है, तो एसएंडपी और फिच ने अब भी भारत की रेटिंग स्टेबल रखी हुई है. आर्थिक पक्ष के अतिरिक्त, अगर देश में काम की बात करें तो 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' की तर्ज पर काम कर रही मोदी सरकार ने कई सारी योजनाएं लांच की हैं, जिसमें जनधन योजना को बड़े लेवल पर प्रोजेक्ट किया गया. जनधन योजन दरअसल वित्तीय समावेशन की एक योजना है और प्रधानमंत्री ने इस योजना की घोषणा स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले के प्राचीर से की थी.
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औपचारिक रूप से योजना की शुरुआत 28 अगस्त 2014 को हुई और प्रधानमंत्री जनधन योजना की वेबसाइट के अनुसार 4 मई 2016 तक 21.74 करोड़ खाते खोले जा चुके हैं, तो लगभग 37 हजार करोड़ से ज्यादा रुपए भी जमा हो चुके हैं. जाहिर है, आम देशवासी जो बैंकिंग सर्विस से अब तक दूर थे, उनमें एक बड़ी संख्या जुड़ी, जिसका प्रभाव आज और भविष्य में बड़े स्तर पर नज़र आएगा, इस बात में दो राय नहीं! हालाँकि, लोगों का अकाउंट ओपन करने के बाद उनको बैंकिंग सर्विसेज के लिए जागरूक रखना होगा, ताकि वह साहूकारी से मुक्ति पाकर आर्थिक सशक्तिकरण की राह में कदम बढ़ा सकें. मोदी सरकार द्वारा, अन्य महत्वपूर्ण योजनाओं में प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना और अटल पेंशन योजना हैं. प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना के तहत 330 रुपए के सालाना प्रीमियम पर दो लाख रुपए का बीमा, तो प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना एक प्रकार की दुर्घटना बीमा है, जिसके तहत 12 रुपए के सालाना प्रीमियम पर दुर्घटना बीमा होगा. यह योजना 18 से 70 साल के लोगों के लिए है, जिसमें दुर्घटना में मौत होने या हादसे में दोनों आंखें या दोनों हाथ या दोनों पैर खराब होने पर दो लाख रुपए मिलेंगे. इसी तरह, अटल पेंशन योजना 18 से 40 साल के लोगों के लिए है, जो वैधानिक सामाजिक सुरक्षा योजना से वंचित लोगों के लिए है और उन्हें इसका लाभ मिलेगा. इसी तरह, "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ" के अंतर्गत सुकन्या समृद्धि योजना का आरम्भ किया गया जो वित्तीय वर्ष 2015-16 में 9.2 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की घोषणा के साथ भारत की सबसे ज्यादा लाभ प्रदान करने वाली बचत योजना बन गयी है. इस योजना में निवेश राशि के साथ ब्याज और परिपक्वता पर मिलने वाली राशि पर भी टैक्स छूट मिलती है. इस तरह यह योजना पीपीएफ के समकक्ष पहुंच गयी है, जिसमें तीन स्तरों पर टैक्स छूट मिलती है. यहां यह जोड़ना महत्वपूर्ण होगा कि ये सभी योजनाएं जनता को किस स्तर तक लाभ दे सकेंगी, यह अवश्य देखने वाली बात होगी. सिर्फ योजनाओं की बात हो तो सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं यूपीए के कार्यकाल में भी रहीं हैं, जो आज तक भी जारी हैं, किन्तु बावजूद इसके लोगों के जीवन स्तर में कुछ ख़ास सुधार कहाँ देखा गया? इसी क्रम में, स्वर्ण मौद्रीकरण योजना, डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटी योजना, 2022 तक सबको पक्के मकान का वादा, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, 111 नदियों में 'जलमार्ग' एवं नीली क्रांति की योजना एवं 2016 के मई महीने में लांच की गयी गरीबों के लिए फ्री गैस कनेक्शन की 'उज्ज्वल योजना' भी नरेंद्र मोदी सरकार की बेहद महत्वपूर्ण योजनाओं में शामिल हैं. अब देखना दिलचस्प होगा कि हमारी सरकार और नौकरशाही इन योजनाओं को 'नारों' तक ही सिमटा देती है अथवा इससे ज़मीनी हकीकत में कुछ बदलाव लाने में अपना सब कुछ झोंक देती है, क्योंकि असल बात यही से तय होगी!
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सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि मोदी राज में लोगों ने कल्पना की थी की महंगाई कम होगी, लेकिन एक दो चीजों को छोड़ दें तो महंगाई हर तरफ बढ़ी है. यहाँ तक कि अपने आप को गरीबों की सरकार कहने वाले मोदी के राज में दाल के दाम आसमान छूने लगे थे, तो पेट्रोल डीजल से लेकर ट्रेन के किराए तक बढ़ा दिए गए हैं. सत्ता में आने से पहले रोजगार को लेकर भी वादे किये गए थे लेकिन अभी तक कोई ठोस कदम दिखाई नहीं देता है, यह बात मोदी सरकार की बड़ी खामियों में शुमार हो सकती है, क्योंकि बड़ी संख्या में युवा भी नरेंद्र मोदी से उम्मीद पाले बैठा है. हालाँकि स्किल इंडिया जैसे प्रोग्राम जरूर आये हैं, लेकिन उनका कुछ विशेष लाभ मिलता नजर नहीं आता. इसी तरह, अपने भाषणों में मोदी हमेशा ही भारत को किसानों का देश कहते हैं, लेकिन अपने शासन के दो साल पूरा होने के बाद भी मोदी सरकार द्वारा कृषि और किसानों की स्थिति में कुछ खास बदलाव दिखा नहीं है, उलटे बदहाली के चलते किसान आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी ही हैं. हालाँकि, फसल बीमा योजना जरूर कुछ राहत पहुंचाएगी, किन्तु सवाल सिर्फ राहत का नहीं हैं, बल्कि बदलती परिस्थितियों से मुकाबला करने का है, जिसमें किसान समुदाय को सक्षम बनाना होगा और इस तरह नरेंद्र मोदी और उनकी टीम का कितना ध्यान है, यह बात सोचने वाली है. वहीं 'काले धन' के मामले में सरकार को सांप सूंघ गया है, तो सत्ता में आने के बाद एक बार भी काला धन वापिस लाने की चर्चा नहीं हो रही है. इसके साथ असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी, गौ माता, भारत माता जैसे विवाद जैसे विवाद सरकार की नाक में दम किये रहे और मोदी सरकार की पूरी लाचारी दिखी इन मुद्दों को नियंत्रित करने में! इसमें कोई शक नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी अभी भी देश के सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता हैं. अधिकांश जनमत सर्वेक्षणों ने दिखाया है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी 70 फ़ीसदी के आसपास है, जोकि निश्चित रूप से एक बड़ा आंकड़ा है. शायद जनता नरेंद्र मोदी को और समय देना चाहती है, क्योंकि कुछ और दिखे या न दिखे, पर यह तो दिख ही रहा है कि एक व्यक्ति रात-दिन, बिना छुट्टी के देश की भलाई के कार्य कर रहा है. हालाँकि, नरेंद्र मोदी की इतनी बड़ी लोकप्रियता इसलिए भी है, क्योंकि कांग्रेस के राहुल गांधी में ना तो करिश्मा है और ना ही वे सक्षम नजर आ रहे हैं, वहीं नीतीश और केजरीवाल जैसे नेताओं के पास क्षेत्रीय समर्थन भर है. हालाँकि, इस बात में दो राय नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के पास लोगों का जितना भरोसा है, उसके आसपास कोई दूसरा नेता टिक नहीं रहा है.
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देश भर में अगर बीजेपी लगातार मजबूत हो रही है और कांग्रेस अप्रासंगिक हो रही है तो इसमें मोदी का करिश्मा सर्वाधिक है. इसके साथ-साथ अगर द इकनॉमिस्ट जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका यह कहे कि भारत में 'क्रोनी वेल्थ' (राजनीतिक सांठ गाँठ से जमा की गयी पूँजी) 18% से घटकर 3% पर आ गयी है तो भ्रष्टाचार के ऊपर इस सरकार की सख्ती साफ़ नज़र आ जाती है. इकोनॉमिस्ट का यह आंकड़ा ऐसा है कि अगर 'क्रोनी वेल्थ' में 1% की गिरावट भी होती है तो सरकारें खुश हो जाती हैं और यहाँ तो 15% बताया जा रहा है. सिर्फ इस पत्रिका की रिपोर्ट ही क्यों, बल्कि आम जनमानस में भी मोदी सरकार की यही छवि गयी है कि एक तो नरेंद्र मोदी अपनी टीम के साथ रात-दिन मेहनत कर रहे हैं और वहीं दूसरी ओर अपने नेताओं और अधिकारियों के भ्रष्टाचार की सम्भावना को उन्होंने कड़ाई से कुचला है. शायद इसीलिए प्रधानमंत्री को जनता और समय देना चाहती है, जो व्यवहारिक भी है. लेकिन, आने वाले 3 साल नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के लिए निश्चित रूप से चुनौतीपूर्ण रहने वाले हैं, क्योंकि तब जनता उनसे 2014 के वादों का सीधा हिसाब मांगेगी, जो किसानों की आमदनी, युवाओं के रोजगार और भारत की विदेश नीति में असल पैठ के रास्ते से होकर गुजरेगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि बीते दो सालों में जो पौधा नरेंद्र मोदी ने लगाया है और भ्रष्टाचार के कीड़े से उसे बचाया है, आने वाले दिनों में वह फल और छाया के रूप में 'आर्थिक वृद्धि और रोजगार' दोनों देगा और तब शायद 2019 में 350 से ज्यादा सीटों पर नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी बेझिझक दावा कर सकेगी!
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1 टिप्पणियाँ
जैसा की सभी जानते हैं मोदी सरकार काम कर रही है और दो साल का समय ज्यादा नहीं होता है इस लिए थोड़ा समय जरूर देना चाहिए मोदी सरकार को.
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