यूं तो वैश्विक महाशक्ति अमेरिका की छोटी से छोटी बात भी वैश्विक मीडिया में चर्चा का कारण बनती है और यह तो राष्ट्रपति पद के चुनाव की बात है. लेकिन, यह सामान्य राष्ट्रपति पद का चुनाव नहीं है, बल्कि आने वाले समय में यह चुनाव अमेरिका की 'विश्व महाशक्ति' की साख पर 'बट्टा' लगा दे आश्चर्य नहीं होगा! न... न... इसका यह मतलब यह मुद्दा होना कदापि नहीं है कि डोनाल्ड ट्रम्प जैसे व्यक्ति की समझ पर कोई प्रश्नचिन्ह है या नहीं, क्योंकि अमेरिकी राजनीति में और भी लोग होंगे तो राष्ट्रपति बनने की हालत में खुद ट्रम्प ने 'राजनीतिज्ञ अनुभवी' व्यक्ति को उपराष्ट्रपति बनाने की बात कही है. इसके अतिरिक्त, कांग्रेस के तमाम सीनेटर्स और अमेरिकी डिपार्टमेंट्स के तमाम काबिल अधिकारी उनकी सलाह के लिए मौजूद रहेंगे ही. मुख्य प्रश्न 'ट्रम्प' के राष्ट्रपति बनने से थोड़ा 'जुदा' है, जो अमेरिकी नागरिकों की बदलती सोच से जुड़ा हुआ है, जिसको 'ट्रम्प' ने हवा दी है. अब वह राष्ट्रपति बनें या न बनें, किन्तु अमेरिका की आगामी राजनीति इस 'विशेष सोच' से अवश्य ही प्रभावित रहेगी, और यह अमेरिका को लेकर कई क्षेत्रों में भारी असंतुलन पैदा कर सकता है, इस बात में दो राय नहीं. हालाँकि, कई विशेषज्ञ ट्रम्प को उस चालाक शख्स की श्रेणी में रख रहे हैं, जो चुनाव जीतने के लिए तमाम टोटके अपना रहा है और चुनाव जीतते ही वह व्यवहारिक हो जायेगा. इस आंकलन की झलक भी डोनाल्ड ट्रम्प ने तब पेश की, जब लन्दन का पहला मुस्लिम मेयर चुना गया. इस मामले में ट्रंप ने कहा है कि सादिक़ खान को अमरीका में मुसलमानों के आने पर प्रतिबंध से छूट होगी. हालाँकि, इस छूट को उन्होंने 'अपवाद' बताकर अपने चुनावी फायदे को नुक्सान होने से बचाया है, किन्तु यह उनकी नीतियों के समय आने पर व्यवहारिक होने का संकेत तो देता ही है. हालाँकि, लंदन के मेयर सादिक़ ख़ान ने डॉनल्ड ट्रंप के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है. सादिक़ खान ने आगाह किया है कि अमरीकी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में शामिल डॉनल्ड ट्रंप के इस्लाम के बारे में "अज्ञानता से भरे विचारों" से "दोनो देशों की सुरक्षा कम हो सकती है."
खैर, किसकी सुरक्षा कम होगी और किसकी अधिक यह बात अपनी जगह है, किन्तु दुनिया भर के मुसलमान अमेरिका को बहुत पहले से अपना 'दुश्मन न.1' घोषित किये हुए हैं, इस बात में दो राय नहीं! हाँ, पिछले लगभग दो दशकों से अमेरिकी नेताओं और वहां की कौम ने इसे अपनी ओर से कभी जाहिर नहीं होने दिया था, लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प ने इस 'अंदरूनी राजनीति और चिढ़न' से पर्दा हटा दिया है और अब अमेरिकी जनता और वहां का राजनीतिक-तंत्र 'इस्लाम को खुलकर' अपना शत्रु बताने में संकोच नहीं कर रहा है. अब ट्रम्प बेशक बाद में मुसलमानों के बारे में अपने बयान और अपनी सोच बदल लें (जो बदलना ही पड़ेगा व्यवहारिकता के नियम के कारण), किन्तु जनता के दबाव में उन्हें और दुसरे नेताओं को आना ही पड़ेगा, इस बात में दो राय नहीं! भारत में नरेंद्र मोदी के उभार से अगर 'ट्रम्प के उभार' की तुलना करें तो काफी कुछ समानता नज़र आएगी, किन्तु प्रधानमंत्री बनते ही व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी ने शायद ही मुसलमानों के विरुद्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कुछ कहा या इशारा किया हो, किन्तु चुनाव के पहले जो माहौल बना था, वह सरकार बनने के दो साल बाद तक कभी 'असहिष्णुता', तो कभी 'भारत माता की जय' के रूप में नरेंद्र मोदी की नाक में दम किये रहा. हालाँकि, आप ध्यान से इन मसलों पर निगाह दौड़ाएं तो देख पाएंगे कि नरेंद्र मोदी का जितना दायरा था, उससे आगे बढ़कर उन्होंने संघ और अपनी पार्टी के तमाम नेताओं को बयानबाजी से चुप कराया है तो दुसरे अतिवादी गुटों के खिलाफ कड़ा सन्देश दिया है. ट्रम्प या कोई और बेशक अमेरिका का राष्ट्रपति बने, वहां के तमाम राजनीतिक दबावों का उन्हें भी मोदी की तरह सामना करना ही होगा, इस बात में दो राय नहीं! हालाँकि, शायद ही विश्व का कोई नेता या एजेंसी हो, जो डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति न बनने की बात विश्वास से कह सके! रिपब्लिकन पार्टी से अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार बनने के करीब पहुँच चुके डोनाल्ड ट्रंप पार्टी में चल रहे तमाम विरोध के बावजूद अपनी लोकप्रियता और पार्टी के 56 प्रतिशत वोट के साथ एक नए मुकाम पर पहुंच गए हैं, वहीं साप्ताहिक चुनाव रूझान सर्वेक्षण के अनुसार हिलेरी के समर्थन में 43 फीसदी पंजीकृत मतदाता है वही 37 प्रतिशत मतदाता ट्रम्प का भी समर्थन कर रहे है.
देखा जाय तो इन आंकड़ों में ज्यादा फर्क नहीं है. अब तक ट्रम्प हिलेरी से छह अंक ही पीछे हैं, जबकि रिपब्लिकन पार्टी की ओर से उम्मीदवारी की दौड़ में शामिल सीनेटर टेड क्रूज पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन से 14 अंक पीछे हैं. यह सर्वेक्षण इंडियाना प्राइमरी चुनाव के परिणाम के बाद का है . जिसके बाद अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप के करीबी प्रतिद्वंदी टेड क्रूज को रिपब्लिकन उम्मीदवार बनने की दावेदारी को वापस लेना पड़ा और जिससे ट्रंप की दावेदारी लगभग तय हो गई है. ट्रंप ने इंडियाना प्राइमरी चुनाव जीतने के बाद अपने समर्थकों से कहा, ‘‘मैं रिपब्लिकन पार्टी का संभावित उम्मीदवार बनकर सम्मानित महसूस कर रहा हूं. यह हमारी पार्टी को एकजुट करने और हिलेरी क्लिंटन को शिकस्त देने का समय है.’’ इसी क्रम में, ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवार की दावेदारी को देखते हुए दुनिया के बड़े बड़े नेता भी उनके सपोर्ट में आ रहे हैं, जो कल तक ट्रंप की बातों से सहमत नहीं थे, आज उनके सुर में सुर मिलाने को तैयार हैं. खैर, यह एक राजनीति की जरूरत है, जिसे राजनेताओं को पूरा करना ही पड़ता है. बताते चलें कि ट्रंप ने एक बयान में कहा था कि 'जब तक हमारे देश के प्रतिनिधि यह पता नहीं लगा लेते कि क्या चल रहा है, तब तक अमेरिका में मुसलमानों का प्रवेश पूरी तरह से रोक दिया जाए.' इस बयान की हर जगह निंदा हुई, तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने इस टिप्पणी से 'पूरी तरह असहमत होते हुए इसे 'विभानकारी, गैरमददगार और गलत' करार दिया था. वही प्रधानमंत्री डेविड कैमरन जापानी प्रधानमंत्री शिजो अबे के साथ एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में डोनाल्ड ट्रंप की तारीफ करते हुए कहते हैं कि ट्रंप रेस्पेक्ट के काबिल हैं. इतना ही नहीं कैमरन के सलाहकार को ट्रंप की आलोचना करने पर माफ़ी भी मांगनी पड़ी. सिर्फ यही एक बयान नहीं, बल्कि ट्रम्प ने तमाम विवादित बयान ऐसे दिए हैं, जो संकेत देते हैं कि उनके अमेरिका के राष्ट्रपति बनने की स्थिति में वैश्विक राजनीति में बड़ी उथल पुथल मचने की भूमिका तैयार हो सकती है.
कुछ दिन पहले ही ट्रम्प ने जापान को यह कह कर हैरान कर दिया कि जापान के पास उनका अपना 'परमाणु बम' होना चाहिए! अब उनके इस बयान को नासमझी कहा जाय, परमाणु निरस्त्रीकरण की राह में रोड़ा कहा जाय या चीन के साथ 'दोस्ताना संकेत' माना जाय, इस बाबत विदेश नीति के विशेषज्ञ अपना दिमाग खूब दौड़ा रहे होंगे! ट्रंप ने अमेरिका के नाटो में उसकी भागीदारी पर भी बयान दिया और उन्होंने कहा कि, ‘‘सेना ने मुझे बताया कि हमें 20-30 हजार सैनिकों की जरूरत है. ऐसे में 'मैं 20 हजार सैनिक तैनात नहीं करूंगा! इसके साथ ही ट्रंप ने इसके आर्थिक प्रभाव को भी बताया है और कहा है कि 'हम उस स्थिति से भी पीछे चले गए हैं, जहां हम 15 साल पहले थे'. ट्रंप ने अमेरिका की अर्थव्यवस्था की खराब हालत का जिक्र करते हुए देश की स्वास्थ्य सेवा, व्यापार संधियों आदि को भी खराब बताया है. अब यह समझना बेहद मुश्किल है कि एक तरफ तो आप पूरी मुस्लिम कम्युनिटी से खुलकर शत्रुता लेना चाह रहे हो, ताल ठोंककर और दूसरी ओर युद्ध और वैश्विक राजनीति पर 'धेला' खर्च नहीं करना चाहते, ऐसे में तो यह 'विरोधाभाषी' विचार ही कहे जायेंगे! उनके इसी विरोधाभाषी विचारों से कई जगहों पर हलचल सी मची है और विश्व भर के अख़बार रंगे पड़े हैं, तो नेताओं के बयान भी आते ही रहते हैं. इस क्रम में ब्रिटेन के लेफ्ट विंग का अखबार द गार्डियन ने लिखा कि 'इमिग्रेंट्स से भरपूर देश का नेता (ट्रम्प) अगर इस तरह की बात करता है तो यह अमेरिका के लिए बुरा दिन है'. ऐसे ही, अरबी अखबार अल हयात कहता है कि 'कुछ लोगों के लिए ट्रंप की मौजूदगी ही अमेरिका को लेकर उनके सबसे बड़े डर को पक्का करता है'. इसी कड़ी में, साउथ अफ्रीका के सिटी प्रेस में एक लेख का शीर्षक दिया गया कि 'अगर ट्रंप जीतते हैं तो ईश्वर हमें बचा लेना', तो साउथ कोरिया का बड़ा अखबार जूंगआंग इलबो लिखता है कि 'हम अवाक हैं कि ट्रंप जैसे विचारों वाला शख्स अमेरिकी प्रेजिडेंट पद की रेस का प्रमुख कैंडिडेट बन गया है.'
जाहिर है, चिंताएं हर ओर से हैं, यहाँ तक कि जर्मनी का डाय वेल्ट डेली अखबार भी कहता है कि 'यूएस प्रेजिडेंशल इलेक्शन का सबसे ज्यादा पागलपन से भरा कैंपेन शुरू हो गया है, जिसे सोच भी नहीं सकते थे, वह होने जा रहा है.' हालाँकि, जैसे जैसे डोनाल्ड ट्रम्प आगे बढ़ेंगे, लोगों के सुर भी बदलेंगे और वैश्विक राजनीति में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती भी मिलेगी. आखिर, अमेरिका के जो तमाम दोस्त हैं, जिनमें ब्रिटेन, जापान, साउथ कोरिया के साथ तमाम यूरोपियन और एशियाई देश आशंकित है. खैर जो भी हो, लेकिन 69 वर्षीय ट्रंप को 1237 डेलीगेट का आंकड़ा छूने के लिए मात्र 200 डेलीगेट की और दरकार है. उनके सामने अब भी ओहायो के गवर्नर जॉन कैसिच की चुनौती बची है जिनके पास 200 से भी कम डेलीगेट हैं. हालाँकि, नवंबर में ट्रंप का मुकाबला डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बनने की शीर्ष दावेदार हिलेरी क्लिंटन से होने की संभावना है और पूरे विश्व की निगाहें 'ट्रम्प-कार्ड' के चलने या न चलने पर टिकी हुई हैं. देखना ये है कि इतनी आलोचनाओं और विरोध के बावजूद ट्रंप चुनाव जीतते हैं या नहीं! हालाँकि, यह बात भी तय है अगर वह हार भी गए, तो उनकी नीतियों के प्रभाव से नयी राजनीति प्रभावित जरूर होगी और अगर जीत गए तो फिर 'पूछना ही क्या'?
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1 टिप्पणियाँ
ट्रंप की सोच के लिए तो कुछ नहीं कह सकते लेकिन उनके दिए गए बयान अमेरिका के पुराने दोस्तों को इससे अलग थलग करने वाला प्रतीत होता है
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