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मथुरा में हुई भयानक 'कंसलीला' की ख़बर सबने देख सुन ली है. जिस तरह से प्रशासनिक अफसरों को घेर कर, वह भी सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस रैंक के अफसर की, शहर के बीचो बीच हत्या की गयी है, उसने 'चम्बल घाटी' के लुटेरों की याद दिला दी है. पर इन सबके बीच सवाल यह है कि पचास के दशक से टेक्नोलॉजी और दूसरी ख़ुफ़िया दक्षताओं में हम कहाँ से कहाँ आ गए हैं, लेकिन एक शहर की निगरानी और उसमें कहाँ क्या हो रहा है, इसकी ख़बर तक किसी को नहीं थी. या फिर ख़बर सबको थी, लेकिन रामवृक्ष यादव जैसे अपराधियों को कड़ा राजनीतिक संरक्षण हासिल था? अखिलेश यादव का व्यक्तिगत तौर पर मैं प्रशंसक रहा हूँ, लेकिन समाजवादी पार्टी सरकार द्वारा अपराध को बढ़ावा देने वाली नीतियों का समर्थन कोई अँधा भी नहीं कर सकता! इस घटना के पश्चात अखिलेश यादव यह कहकर बड़ी आसानी से निकल गए हैं कि जवाहर बाग़ में ख़ुफ़िया-तंत्र फेल हुआ है, लेकिन यह कोई ख़ुफ़िया तंत्र की बात ही नहीं थी, क्योंकि जिस उग्रवादी समूह से आधा शहर परेशान था, उसकी दबंगई से त्रस्त था, उसके लिए किसी ख़ुफ़िया जानकारी की आवश्यकता ही कब थी? लोग कहते हैं कि बिहार में जंगलराज है, लेकिन यह क्या कोई कम बड़ा जंगलराज है?
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आज तक हमने सिर्फ किताबों में पढ़ा था सत्याग्रह के बारे में लेकिन मथुरा में आँखों के सामने सत्याग्रह का नया रूप देखने को भी मिल गया, लेकिन ये सत्याग्रह वैसा कतई नहीं है जैसा गांधी जी किया करते थे. गांधी जी तो देश की आजादी के लिए अंग्रेज़ों के समक्ष अपनी बातें रखते थे, जबकि अंग्रेज उन सत्याग्रहियों पर बर्बरता पूर्वक लाठियां बरसाते थे. लेकिन यहाँ तो मामला बिलकुल ही उल्टा था, अपने आप को 'तथाकथित सत्याग्रही' कहने वालों ने एक नया ही नजारा पेश किया है. मथुरा के जवाहरबाग में इन 'तथाकथित सत्याग्रहियों' ने जो तांडव किया है वह न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि पुलिस प्रशासन के लिए शर्मनाक भी है! आखिर, जिस तंत्र में खुद एसपी और दारोगा मार दिए जाएँ तो वहां आम लोगों की खैर-खबर की बात बेमानी हो ही जाती है. वैसे भी इन भू-माफियाओं की बातों से कभी नहीं लगा कि ये सत्याग्रह कर रहे हैं, और इसलिए मामला और भी गम्भीर हो जाता है. आखिर, जिन अपराधियों से वहां के सभी लोकल लोग परेशान थे, उनके बारे में प्रशासन को अंदर तक की खबर न हो, ऐसा कैसा हो सकता है? जरा इनकी मांगो को तो देखिये, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का चुनाव रद्द किया जाए, तो देश में चल रही मुद्रा यानी 'करेंसी' की जगह आजाद हिंद फौज की मुद्रा का इस्तेमाल किया जाए. इतना ही नहीं, एक रुपये में 60 लीटर पेट्रोल और एक रुपये में 40 लीटर डीजल बेचने की मांग भी इन्होंने रखी थी! साफ़ तौर पर ये अपराधी भी जानते थे कि एक लोकतान्त्रिक देश में ये सब संभव नहीं है, लेकिन वहां का प्रशासन इन बातों से अनभिज्ञ बना रहा! गौरतलब है कि इन अपराधियों और भूमाफियाओं ने कई लोगों को बरगलाकर लगभग 2 साल पहले मथुरा के जवाहर पार्क में एक दिन ठहरने की परमिशन ली थी, लेकिन तब से ही लगातार सरकारी जमीन पर वह अड्डा जमाए हुए थे. लोगबाग साफ़ तौर पर कह रहे हैं कि पिछले दो सालों में इन 'तथाकथित सत्याग्रहियों' ने अपना साम्राज्य ही बना लिया था और एक तरह से सामानांतर सरकार चला रहे थे.
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अवैध कब्जा करने वाले ये अपराधी करीब दो साल पहले मध्यप्रदेश के सागर से दिल्ली आए थे. मथुरा में जिस जवाहर बाग में ये ठहरे थे वह उद्यान विभाग का है और इस कब्जे की वजह से विभाग को लाखों का नुकसान भी उठाना पड़ा है. और तो और ये लोग स्थानीय जनता को भी जब तब परेशान करते थे. इनकी इसी करतूत के चलते एक स्थानीय व्यक्ति ने कोर्ट में गुहार भी लगायी थी, जिसके चलते इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मथुरा के जवाहर बाग की सरकारी 270 एकड़ जमीन से अवैध कब्ज़ा हटाने का आदेश दिया था. यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है कि एक आपराधिक गैंग द्वारा सरकारी ज़मीन से कब्ज़ा छुड़ाने के लिए हाई कोर्ट तक के आदेश की जरूरत पड़ गयी! खैर, उसके बाद पुलिस वहां पहुंची थी, लेकिन ये अपराधी तो पहले से ही तैयार थे पुलिस का सामना करने के लिए, जैसे उन्हें पता था कि क्या होने वाला है! प्रश्न यहीं उठता है कि क्या कोई प्रशासन का व्यक्ति भी अपराधियों के लिए कार्य कर रहा था, अन्यथा उन्हें इतनी तैयारी करने का अवसर किस प्रकार मिलता? फिर पुलिस के ऊपर असलहे, गोला-बारूद और पत्थरों की बौछार की गयी, जिसमें सिटी एसपी मुकुल द्विवेदी और थाना प्रभारी संतोष कुमार की मौत हो गई तथा 12 पुलिस वाले घायल हो गए, साथ ही 27 लोग और भी मारे गए हैं. आखिर इतनी निर्दोष जानें किस कारण से गयीं और इसकी जवाबदेही किसकी है?
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जहाँ तक इस संगठन के नेता रामवृक्ष यादव की बात है तो ये शख्स मूलरूप से उत्तर प्रदेश के गाजीपुर का रहने वाला है. इसके बारे में कहा जा रहा है कि पहले यह जयगुरुदेव का अनुयायी था, लेकिन बाबा जयगुरुदेव की मृत्यु के बाद वहां के आश्रम पर कब्ज़ा ज़माने के आरोप में उसे वहां से निकाल दिया गया था. जाहिर है मामला बेहद गम्भीर प्रवृत्ति का पहले से ही रहा है. इतना ही नहीं, इन सत्याग्रहियों के खिलाफ कई संगीन मामले भी दर्ज हो चुके हैं. लेकिन, यह आश्चर्य ही है कि पुलिस इन पर कार्रवाई करने में असफल रही है. इस कड़ी में, सन 2011 में बाबा जयगुरुदेव आश्रम निवासी रवि, सुरेशचंद्र पर इन्होंने कथित तौर पर हमला किया था, जिसमें रामवृक्ष यादव समेत 15 लोगों पर नामजद मुकदमा दर्ज किया गया था. सन 2014 में जिला उद्यान अधिकारी मुकेश कुमार ने सरकारी संपत्ति को कब्जा करने, क्षति पहुंचाने बदसलूकी करने का आरोप लगाते हुए एफआईआर कराई थी, तो जनवरी 2015 में थाना प्रभारी प्रदीप कुमार पांडेय ने सरकारी कार्य में बाधा डालने, सरकारी संपत्ति को कब्जा करने की शिकायत दर्ज करवाई थी. इसी कड़ी में, मई 2015 में जवाहरबाग में तैनात कर्मचारी जगदीश प्रसाद ने रामवृक्ष यादव, चंदनबोस समेत 20 लोगों के खिलाफ मुकदमा कराया था. इतना ही नहीं, लगभग एक महीना पहले ही यहां के लोगों ने तहसील सदर के अमीन चंद्रमोहन मीणा और अजय प्रताप मीणा को बंधक बना लिया था, तो इसके साथ ही में पुलिस के कुछ कर्मचारियों को भी बंधक बना लिया था. बताते चलें कि तहसील परिसर में भी घुस कर इन अपराधियों ने हंगामा किया था. अब सवाल उठता ही है कि पिछले 2 साल से सरकार की नाक के नीचे सरकारी जमीन पर इतना खतरनाक संगठन 'धर्म और सत्याग्रह' के नाम पर अपनी मनमानी कर रहा था और सरकार को इसकी भनक तक नहीं लगी!
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इतनी बड़ी घटना पर क्या कहेंगे मुख्यमंत्री 'अखिलेश यादव' कि किसने भड़काया है ये दंगा? जैसाकि हम सब सुनते रहे हैं कि सपा की सरकार बनते ही गुंडे-माफियाओं की चांदी हो जाती है और मथुरा के इस वाकये से इसमें काफी सच्चाई भी नज़र आ रही है. कई बार जहां एक चाकू के मिलने भर से यूपी पुलिस आर्म्स एक्ट की सख्त धाराओं के तहत लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज देती है, वहीं मथुरा शहर के बीचों-बीच सालों से जमे एक कुख्यात संगठन के लोग हथियारों का जखीरा इकट्ठा करते रहे और सब कुछ जानते हुए भी पुलिस उन्हें रोक नहीं सकी. कहाँ थी पुलिस की इंटेलिजेंस या फिर जानबूझ कर सच्चाई से मुंह फेरने की लापरवाही की गयी, या फिर बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्या की बातों को सच मान लिया जाये कि इस संगठन के सरगना रामवृक्ष यादव को यूपी के ताकतवर कैबिनेट मंत्री और सीएम अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव का संरक्षण हासिल था! आखिर बिना किसी शह के सत्याग्रह के बैनर तले दंगाई हथियार इकट्ठा करते रहे, जनता को परेशान करते रहे, प्रशासन को तंग करते रहे, फिर भी उन पर किसी प्रकार की कार्रवाई से बचा क्यों गया? युवा सीएम अखिलेश चाहे जितनी भी विकास की बातें कर लें और उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का दावा कर लें, लेकिन यह घटना एक बार फिर प्रदेश में गुंडाराज पर सपा सरकार द्वारा आँख मूंदने की ओर इशारा कर रही है. पिछले दिनों हरियाणा में संत रामपाल का भी ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें इस तथ्य की सुगबुगाहट भी सामने आयी थी कि उन्हें भी हरियाणा में एक पार्टी के नेताओं का मजबूत संरक्षण हासिल था. जाहिर है, अखिलेश यादव इस घटना के बाद बुरी तरह घिर चुके हैं तो मथुरा की स्थानीय सांसद हेमा मालिनी भी इस घटना के बाद अपनी आने वाले फिल्म की शूटिंग तस्वीरें ट्विटर पर अपलोड करते हुए आलोचना झेल चुकी हैं. हालाँकि बाद में उन्होंने तस्वीरें जरूर हटा लीं, लेकिन सवाल तो जानकारी और संवेदनशीलता का है! हेमा मालिनी को घटना की जानकारी सम्भवतः नहीं रही होगी, इसलिए उन्होंने ट्विटर पर फ़िल्मी तस्वीरें अपलोड कर दी होंगी और यूपी सरकार को 2 साल तक इस गिरोह की स्थिति की जानकारी नहीं थी, इसलिए उसने अपना एक एसपी, एक दरोगा पुलिसकर्मी खो दिया तो जनता बिचारी, हमेशा की मारी जाती ही है! उसका हाल चाल भला कौन पूछने वाला है यहाँ!
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