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यूपी चुनाव में बसपा, सपा, भाजपा और कांग्रेस का दांव! UP Election 2017, Complete Analysis, New Hindi Article, Mithilesh



जैसे-जैसे उत्तरप्रदेश में चुनाव नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे सभी पार्टियां अपने-अपने पत्ते खोलना और फेंटना शुरू कर चुकी हैं. इनमें सबसे दिलचस्पी कांग्रेस पार्टी के बारे में बनी थी, इसलिए नहीं कि वह यूपी में सरकार बना लेगी, बल्कि इसलिए क्योंकि राजनीतिक-कंसल्टेंट के रूप में खुद को साबित कर चुके प्रशांत किशोर ने प्रियंका गांधी को यूपी की राजनीति (UP Election 2017, Complete Analysis) में उतरने की दिलचस्प सलाह दी थी. अब यूपी में बेशक कांग्रेस चौथे नंबर पर खड़ी दिख रही हो, किन्तु राष्ट्रीय पार्टी तो है ही! खैर, कांग्रेस ने यूपी चुनाव के चेहरों से पर्दा हटा दिया है और इसके लिए उसने दांव लगाया है अपनी बुजुर्ग राजनेता 'शीला दीक्षित' पर! जी हाँ, कांग्रेस पार्टी ने उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में शीला दीक्षित का नाम आगे करके लोगों को थोड़ा ही सही, मगर चौंकाया जरूर है. हालाँकि, प्रियंका गांधी को अभी आगे के अवसरों लिए बचाकर रखा गया है, पर खुदा जाने वह 'अवसर' कब आएगा या फिर आएगा भी अथवा नहीं! इसी क्रम में, फिल्म अभिनेता रहे राज बब्बर को यूपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है, जिस पर एक वरिष्ठ पत्रकार ने चुटकी लेते हुए ट्वीट किया कि 'बस अब कांग्रेस महाराष्ट्र प्रदेश की कमान गोविंदा के हाथों में दे दे और इस तरह इन सबसे बड़े और उसके बाद दुसरे सबसे बड़े राज्यों से कांग्रेस की समस्या समाप्त हो जाएगी'. जाहिर है, कांग्रेस का यूपी के सन्दर्भ में फैसला नया जरूर है, किन्तु इसके राजनीतिक स्तर पर क्या लाभ होंगे, यह जरूर सोचने वाली बात है. 

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पहले से ही कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर है और इस बुरे दौर में एक तरह से 'बाहरी राजनेता शीला दीक्षित' को उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी कितना स्वीकार कर पाते हैं, यह लगभग स्पष्ट ही है. हालाँकि, जम्मू कश्मीर के पूर्व सीएम ग़ुलाम नबी आज़ाद को यूपी का चुनाव प्रभारी बनाया गया है और इन निर्णयों के पीछे कांग्रेस में प्रशांत किशोर ने अपना दखल स्पष्ट किया है, इस बात में दो राय नहीं! कहने को तो इससे कांग्रेस ने जातीय समीकरण को साधने की कोशिश की है, पर क्या वाकई यूपी के ब्राह्मण शीला दीक्षित को अपना चेहरा मानने को तैयार होंगे, जहाँ मुश्किल से वह तीन-चार साल राजनीति में (UP Election 2017, Complete Analysis) सक्रीय रह सकेंगी, तो उनका राजनीतिक आधार दिल्ली ही रहा है. हालाँकि, शीला दीक्षित का यूपी से पुराना नाता भी है, क्योंकि वह कांग्रेस के बड़े नेता उमाशंकर दीक्षित की बहु हैं. इसके साथ-साथ शीला दीक्षित यूपी के कन्नौज ज़िले से 1984 में सांसद भी रह चुकी हैं, पर इतने लम्बे अंतराल के बाद वह भी कांग्रेस के बुरे दौर में 'शीला दीक्षित' शायद ही आने वाले चुनाव में विश्वसनीयता हासिल कर पाएं. हाँ, प्रचार के जरिये उनके बड़े पोस्टर, सोशल मीडिया पर कैम्पेन प्रशांत किशोर जरूर चला सकते हैं, पर क्या सिर्फ इतना काफी होगा कांग्रेस को जिताने के लिए. हालाँकि, शीला दीक्षित लगातार 15 सालों तक दिल्ली की मुख़्यमंत्री भी रह चुकी हैं और उन्हें राजनीतिक तालमेल का पूरा अनुभव रहा है, पर जिस तरह 'भ्रष्टाचार' के प्रति लोगों के रोष का फायदा उठाते हुए दिल्ली में उभरी एक नयी-नवेली पार्टी ने दिल्ली से शीला दीक्षित का बोरिया-बिस्तर पैक किया, उस छवि से यूपी में भी कांग्रेस के विरोधी उसे घेरने की कोशिश अवश्य ही करेंगे. 


तो अब राजनीति 'पीआर' के सहारे ही होगी? 

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ऐसे में यूपी की राजनीति में शीला की राहों में रोड़े नहीं बल्कि बड़े-बड़े पत्थर हैं. यहाँ उनके सामने सपा की तरफ से वर्तमान सीएम अखिलेश यादव के रूप में युवा और मजबूत चेहरा है, तो बसपा की तरफ से मायावती जैसी धुरंधर और जनाधार वाली पूर्व मुख़्यमंत्री से सामना है. उत्तरप्रदेश के चुनाव में बराबर दखल रख रही बीजेपी भी 2017 में अपनी सरकार बनाने के लिए हर दांव इस्तेमाल कर रही है, जिसके लिए छोटी-छोटी पार्टियों से तालमेल पर उसकी सटीक नज़र है. ऐसे में कहीं न कहीं यह जरूर लगता है कि शीला दीक्षित के लिए कुछ खास स्कोप नहीं है और उन्हें मिलनी वाली संभावित हार के लिए 'बलि के बकरे' के रूप में इस्तेमाल किया गया है. वहीं, राज बब्बर भी राजनीतिक रूप से चतुर व्यक्ति नहीं हैं, हालाँकि वह विपक्षियों का विरोध 'फ्रंट-फुट' पर आकर जरूर करते हैं. कांग्रेस में आने से पहले राज बब्बर सपा में थे और दो बार सांसद भी रह चुके हैं. वह तब खासे चर्चित हुए थे, जब 2009 में कांग्रेस को ज्वाइन करने के बाद फ़िरोज़ाबाद से चुनाव लड़कर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह की बहू डिंपल को चुनाव में हराया था. इसके साथ ही वो ओबीसी से भी आते हैं. यहाँ बीजेपी के पार्टी अध्यक्ष केशव मौर्या की छवि के ऊपर राज बब्बर थोड़े भारी जरूर पड़ेंगे, पर भाजपा और संघ का मजबूत कैडर कांग्रेस को शायद ही लाभ उठाने दे. 

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गुलाम नबी आजाद के रूप में बड़े मुस्लिम चेहरे से कांग्रेस को मुस्लिम-वोटों में शायद ही कोई फायदा हो, क्योंकि मुसलमान अधिकतर सपा की ही ओर झुके रहेंगे तो कुछ जगहों पर बसपा के खाते में भी जा सकते हैं, जहाँ मुस्लिम कैंडिडेट के जीतने की सम्भावना हो. ऐसे में कांग्रेस के लिए यूपी में मुस्लिम वोट खींच पाना एक दिवा-स्वप्न ही होगा. हालाँकि, कई जगहों पर सपा की आपसी खींचतान में मुख्तार अंसारी जैसे नेता सपा से नहीं जुड़ पा रहे हैं, वह कांग्रेस से जरूर नजदीकी दिखा सकते हैं, जैसा मुख्तार अंसारी ने बीते लोकसभा चुनाव में वाराणसी से कांग्रेस उम्मीदवार (UP Election 2017, Complete Analysis) को समर्थन देकर किया था. पर कांग्रेस के लिए ऐसे दबंग और आपराधिक मुस्लिमों से खुलेआम हाथ मिलाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल होगा, पर यह राजनीति है और राजनीति में कुछ भी 'नामुमकिन' नहीं होता है. प्रियंका गांधी के बारे में कहा जा रहा है कि वह प्रदेश भर में प्रचार करेंगी और ऐसा होने पर उनकी जनसभाओं में भीड़ भी जुट सकती है, पर बात वही है कि क्या वह भीड़ कांग्रेस को 'वोट' देगी और क्यों देगी? उत्तरप्रदेश में लगभग अपना आधार खो चुकी कांग्रेस के लिए ये रणनीति कितनी कारगर होगी ये तो वक़्त ही बताएगा, लेकिन कांग्रेस के इस दाव से बीजेपी की मुश्किलें जरूर बढ़ गईं है और अब उनके ऊपर भी मुख़्यमंत्री के नाम की घोषणा का दबाव बढ़ गया है. 

चुनाव, भारतीय युवा एवं सोशल मीडिया में उभरते मौके

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हालाँकि, भाजपा अभी तक इस मुद्दे पर बचती नज़र आ रही है, पर वह भीतर ही भीतर तैयारी में जुटी हुई है. इसी क्रम में, पार्टी ने अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल को केंद्रीय-मंत्रिमंडल में स्थान देकर जरूर चुनाव के माहौल को गर्माया है, क्योंकि अपना दल में अब दो फाड़ हो गया है जिसमें एक तरफ अनुप्रिया हैं तो दूसरी तरफ उनकी माँ कृष्णा पटेल हैं. हालाँकि, भाजपा यह मानकर चल रही है कि उसकी इस रणनीति से चुनाव में फायदा मिल सकता है. लगे हाथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात भी कर लेते हैं, किन्तु राष्ट्रीय नेता की छवि के लिए ज़ोर लगा रहे नीतीश, बिहार चुनाव में मिली सफलता को यहाँ शायद ही भुना पाएं. यहाँ उत्तरप्रदेश में वह अकेले पड़ते दिख रहे हैं, क्योंकि उनकी एक सहयोगी कांग्रेस (UP Election 2017, Complete Analysis) पहले ही ऐलान कर चुकी है कि वो यूपी का चुनाव अपने अकेले के दमपर लड़ेगी. तो वहीं राजद प्रमुख लालू यादव भी इस बार यूपी चुनाव में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं. कयास लगाया जा रहा है कि मुलायम के घर में बेटी देने की वजह से लालू हिचकिचाहट में हैं, आखिर रिश्तेदारी तो रिश्तेदारी है और लालू इसकी मर्यादा बखूबी समझते हैं. इसके अतिरिक्त, अजीत सिंह की पार्टी का जदयू में विलय टलने से नीतीश को ज़ोर का झटका धीरे से लगा होगा. 

संगम के किनारे भाजपा की चुनावी रणनीति कितनी कारगर!

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वैसे 'पीस-पार्टी' नीतीश कुमार के साथ है और गुजरात के नेता हार्दिक पटेल द्वारा भी इस पार्टी के प्रचार की खबर है, पर यह सब 'वोट की राजनीति' से ज्यादा 'चर्चा की राजनीति' ही प्रतीत होती है. अगर यूपी चुनाव के चुनावी समीकरणों की बात करें तो बसपा की सम्भावनाएं बेहतर नज़र आ रही हैं, तो पार्टी अपने पूरे दमखम से चुनाव की तैयारियों में लगी है. हालाँकि, इस पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ देने से थोड़ा दबाव जरूर है, किन्तु मायावती के आगे उनका वोटर और किसी को नहीं पहचानता है, यह बात भी उतनी ही सच है. इसके साथ यूपी सरकार की नाकामी या 'एंटी-इंकम्बेंसी' का लाभ भी सीधे बसपा को ही मिलेगा, इस बात में दो राय नहीं है. दुसरे नंबर पर अखिलेश यादव अपनी सरकार के कामकाज गिना रहे हैं और अगर ईमानदारी से देखा जाए तो 'कानून-व्यवस्था' के मोर्चे को छोड़कर बाकी हर मोर्चे पर अखिलेश ने बेहतर हासिल किया है. 

अपराध के राजनीतिक संरक्षण पर अखिलेश का 'वीटो'!

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मुख्तार अंसारी की पार्टी 'कौमी एकता दल' के विलय को जिस तरह मुख्यमंत्री ने ज़िद्द करके तोड़ दिया, उससे उनकी छवि भी जरूर सुधरी है. कांग्रेस के लिए इस चुनाव में खोने को कुछ ख़ास नहीं है, वह जितना भी पा जाए, उसे अपनी उपलब्धि के तौर पर ही पेश करेगी और अगर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनी तो उसके विधायक सपा या बसपा के साथ भी आसानी से जा सकते हैं. 

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शायद यही रणनीति प्रशांत किशोर और गुलाम नबी आज़ाद की है कि कैसे भी 50 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल किया जाए और ऐसे में कांग्रेस 'किंगमेकर' की भूमिका में जरूर आ सकती है. जहाँ तक सवाल भाजपा का है तो पिछले साल भर से 'मुख्यमंत्री पद' के लिए इसके नेता मारामारी कर रहे हैं. इस जंग से भाजपा के नुक्सान ही हुआ है और इस उहापोह में सबसे ज्यादा उलझन भी इसी की है. देखना दिलचस्प होगा कि बसपा, सपा और अब कांग्रेस के बाद भाजपा अपने पत्ते (UP Election 2017, Complete Analysis) कब खोलती है. खोलती भी है या वैसे ही चुनाव में जाती है. पर केंद्रीय भाजपा नेताओं को यह बात बखूबी पता होगी कि वह हरियाणा की तरह यूपी में मजबूत स्थिति में नहीं है और इसलिए बिना किसी चेहरे के मैदान में उतरना उसे लड़ाई से बाहर भी कर सकता है. तीनों विपक्षी पार्टियां उससे सिर्फ 'सीएम उम्मीदवार' की मांग करेंगी और ऐसे में उसे हर बार जवाब देना मुश्किल होता जायेगा! हालाँकि, अभी समय है और सभी पार्टियां अपने पत्ते कई बार खोलेंगी और कई बार फेंटेंगी भी. शायद भाजपा भी इसी रणनीति पर चल रही हो!

- मिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली.



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