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चुनावी समय में 'सिद्धू' के भाजपा छोड़ने की जवाबदेही किसकी? Navjot Singh Sidhu, Aam Aadmi Party, Punjab Election, Akali Dal, BJP, Amit Shah, Kejriwal, Hindi Article



भारतीय जनता पार्टी वैसे ही पंजाब में अकाली दल की पिछलग्गू है और ऐसे में जब उसके पास क्षेत्रीय नेताओं का अकाल है, तब नवजोत सिंह सिद्धू जैसे एक बड़े चेहरे को पार्टी छोड़ने कैसे दिया गया, वह भी चुनावी साल में! हालाँकि, राज्यसभा सदस्य बनाकर सिद्धू को संतुलित करने की कोशिश भाजपा ने की थी, किन्तु क्या वाकई इतना पर्याप्त था? जवाब भी अब आ गया है कि नहीं! जैसे ही खबर आयी कि बीजेपी सांसद 'नवजोत सिंह सिद्धू' ने राज्यसभा सदस्य (Rajyasabha member) पद से इस्तीफा दे दिया, एक बार के लिए हर कोई चौंक गया था. वैसे ये बात तो हम सभी जानते थे कि सिद्धू (Aam Aadmi Party) बीजेपी से नाराज चल रहे थे, जिसके पीछे अकालियों से उनकी पुरानी कटुता की मुख्य भूमिका थी, किन्तु उनको राज्यसभा सदस्य बनाए जाने के बाद लगा था कि अब सब ठीक हो गया है. पर कुछ ही दिनों के अंतराल पर भाजपा को यह दूसरा बड़ा राजनीतिक झटका मिला है, जो उसके राजनीतिक-प्रबंधन पर बड़ा सवाल खड़ा करता है. पहला झटका, अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के बागी-विधायकों का भाजपा की मुट्ठी में आकर फिसल जाना था. हालाँकि, इससे पहले भी उत्तराखंड में जाने किन बागियों के सहारे भाजपा ने हरीश रावत सरकार को गिरा देने का मंसूबा पाल लिया था, जो समय आने पर फ़ुस्स हो गया. 

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कहते हैं कि अमित शाह बड़े राजनीतिक-प्रबंधन में माहिर हैं, किन्तु हालिया घटनाओं से तो उनके राजनीतिक-कुप्रबंधन की झलक ही मिल रही है. वैसे भी, जिस चुनावी जीत से उनको 'मैन ऑफ़ दी मैच' का खिताब मिला था, उस जीत के पीछे मोदी लहर, हिंदुत्व, प्रशांत किशोर का प्रबंधन, आरएसएस का सपोर्ट, विकास मॉडल इत्यादि सैकड़ों कारण गिनाए जा चुके हैं. बाद में हरियाणा और महाराष्ट्र में भी भाजपा की सरकार जरूर बनी, किन्तु वहां कांग्रेस ही मुख्य मुकाबले में रही थी, जिसको अपनी छवि सुधारने की चिंता न कल थी और न ही आज दिखती है. वह तो 'राहुल-प्रियंका' (Rahul Priyanka) के नाम की माला अब भी उसी तन्मयता से जप रही है. खैर, यहाँ बात भाजपा के पूर्व चेहरे नवजोत सिंह सिद्धू की हो रही है, जो न केवल पंजाब में, बल्कि खिलाड़ी और लोकप्रिय टेलीविजन शो (The Kapil Sharma Show) के कारण देश भर में घर-घर पहचाने जाते हैं. नवजोत सिंह सिद्धू न केवल पंजाब में, बल्कि भाजपा के लिए वह देश भर में प्रचार करते रहे हैं और आज उनके इस्तीफे के बाद लोग यह सोचने को मजबूर हो रहे हैं कि आखिर वो कौन सी वजह है, जिसने सिद्धू को बीजेपी से अलग होने पर मजबूर कर दिया. वहीं इस मुद्दे पर सिद्धू का कहना है कि "सही और गलत की लड़ाई में आप न्यूट्रल नहीं रह सकते हैं". उन्होंने यह भी कहा कि बीजेपी और अकाली दल के एक साथ चुनाव प्रचार करने का कोई तुक नहीं है, पहली बार इंसान गलती कर लेता है, और हमें यह पता है, तो हम गलती नहीं दोहराएंगे. 

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जैसा कि यह सर्वविदित है कि पंजाब में सिद्धू और बादल परिवार के बीच रिश्ते नार्मल नहीं हैं. अकाली दल से सिद्धू की तकरार हरियाणा चुनावों के दौरान भी दिखी थी, तो सिद्धू खुलेआम अकाली सरकार पर पंजाब को बर्बाद (Drugs in Punjab) करने का आरोप लगाते रहे हैं. वहीं एक बात और सामने आ रही है कि प्रधानमंत्री द्वारा मंत्रिमंडल के हालिया फेरबदल में सिद्धू को कोई स्थान न मिलना भी उन्हें नागवार गुजरा है. दरअसल 2014 के लोकसभा चुनाव से ही सिद्धू अपने आपको पार्टी के द्वारा उपेक्षित महसूस कर रहे थे. उनकी नाराजगी अमृतसर से लोकसभा टिकट काटे जाने से शुरू हुई थी, जहां उनकी जगह अरुण जेटली को चुनाव में उतारा गया था और मोदी लहर के बावजूद जेटली चुनाव हार गए. इसके बाद सिद्धू को भाजपा ने लगभग साइडलाइन ही कर दिया. राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय पड़े सिद्धू ने मनोरंजक शो 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' और बाद में 'दी कपिल शर्मा शो' में अपनी भागीदारी बढ़ा ली. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सिद्धू ने अपने बलबूते खुद को जीवित रखा है, अन्यथा भाजपा-नेतृत्व ने उनकी भरपूर अनदेखी की है. अब यह बात लगभग साफ़ हो चुकी है कि वह आम आदमी पार्टी में शामिल होने जा रहे हैं, जिसने अरविन्द केजरीवाल सहित अन्य आप नेताओं के उत्साह को आसमान तक पहुंचा दिया है. वैसे भी, आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) पूरे दम-खम से पंजाब विधानसभा चुनाव में उतर रही है. उसके नेता अरविंद केजरीवाल पंजाब का लगातार  दौरा भी कर रहे हैं. 

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ऐसा कयास भी लगाया जा रहा है कि आम आदमी पार्टी में शामिल होने की स्थिति में नवजोत सिंह सिद्धू को आम आदमी पार्टी मुख्यमंत्री पद का चेहरा (navjot singh sidhu joins aap) बना सकती है, किन्तु इससे कहीं न कहीं 'आप' में ही फूट पड़ सकती है, जो केजरीवाल कतई नहीं चाहेंगे. इसी क्रम में संजय सिंह और भगवंत मान भी सिद्धू के मुख्य्मंत्री पद की दावेदारी से इंकार कर चुके हैं. हालाँकि, अरविन्द केजरीवाल सिद्धू के भाजपा छोड़ने से कितने उत्साहित है, यह उनके एक के बाद एक ट्वीट्स में नजर आ जा रहा है. उन्होंने अपने एक ट्वीट में नवजोत सिंह सिद्धू को सच्चाई के लिए त्याग करने वाला बता दिया, जो पंजाब की भलाई के लिए राज्यसभा की सीट को ठोकर मार चुका है. अपने एक दुसरे ट्वीट में केजरीवाल ने भाजपा के शीर्ष-नेतृत्व पर तानाशाही का आरोप लगाते हुए हमला बोल और कहा कि सच्चे लोगों का भाजपा में दम घुट रहा है. इन संकेतों से तो यही प्रतीत होता है कि अरविन्द केजरीवाल नवजोत सिंह सिद्धू का भरपूर इस्तेमाल करना चाहेंगे और सभी जानते हैं कि पंजाब में जीत मिलने पर अरविन्द केजरीवाल एक राष्ट्रीय नेता की छवि रखने वाले व्यक्तित्व बन जायेंगे. ऐसे में, वह पंजाब में हस्तक्षेप करके सिद्धू को 'सीएम-कैंडिडेट' बना भी दें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. ऐसी स्थिति बीजेपी-अकाली गठबंधन के लिए कतई ठीक नहीं है, क्योंकि नवजोत सिंह सिद्धू कि छवि एक बेदाग नेता की है और वो पंजाब में नशा-मुक्ति के लिए कई अभियान चला चुके हैं. 

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जाहिर है, सिद्धू से आम आदमी पार्टी की स्थानीय विचारधारा तो मिलती ही है, साथ ही साथ अकाली दल के खिलाफ मजबूत और धारदार हमला करने वाला एक व्यक्ति उन्हें मिल जायेगा. सिद्धू के खिलाफ, भाजपा का प्रचार करना भी मुश्किल होगा, क्योंकि इसके लिए भाजपा के पास कुछ ठोस कहने को नहीं है. एक विश्लेषक ने अपनी त्वरित टिपण्णी में फेसबुक पर लिखा कि "पंजाब में भाजपा-अकाली की हार सुनिश्चित कर दी है अमित शाह‬ ने! क्या नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu), अनुप्रिया पटेल जैसों से भी कम अहमियत के थे, जो उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया जा सका, या फिर इतनी राजनीतिक समझ वाले व्यक्ति भाजपा में हाशिये पर धकेल दिए गए हैं. चुनावी राज्य से आपकी पार्टी का सबसे बड़ा स्थानीय चेहरा नाराज हो जाता है और फिर भी आपके पास ‎चुनावप्रबन्धक‬ का तमगा है, इससे बड़ी बिडम्बना क्या होगी?" यह विश्लेषण कहीं गलत नहीं दिखता और अगर कोई चमत्कार नहीं हुआ तो अरविन्द केजरीवाल की पार्टी पंजाब में सत्ता पर काबिज़ होने जा रही है. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि अगर पंजाब में केजरीवाल की पार्टी जीत गयी तो इसे वह अकालियों की हार नहीं, बल्कि मोदी की हार बताएँगे और फिर बिहार में मुंह की खाने के बाद पंजाब में प्रतिकूल परिणाम आने से 'मोदी-लहर' के समाप्त होने की घोषणा भी होने लगेगी. रही बात यूपी की तो, इस बात में दो राय नहीं है कि सपा और बसपा तो छोड़िए, अमित शाह के तथाकथित 'चुनाव और पार्टी-प्रबंधन' ने उसे कांग्रेस से भी पीछे ला खड़ा किया है. 

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इस बात में शक नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यों और उनकी छवि (PM Narendra Modi works) से देश की जनता अभी खुश है, किन्तु अमित शाह से भाजपा नेता, उसके कार्यकर्त्ता और सहयोगी दल बिलकुल 'कम्फर्टेबल' नहीं हैं. वैसे भी 'गुजरात-गुजरात' कॉम्बिनेशन पार्टी में नकारात्मक ऊर्जा फैला रहा है और इसकी झलक बिहार में हार के बाद अमित शाह के खिलाफ हमलों से नज़र आ गयी थी. जहाँ तक, पंजाब का मामला है, तो भाजपा-अकाली और कांग्रेसियों को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि कहीं केजरीवाल की पार्टी वहां दिल्ली की ही तरह 'क्लीन-स्वीप' न कर दे. पहले से ही मजबूत हालत में दिख रही पार्टी को नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) के रूप में 'तुरुप का पत्ता' हाथ लगने वाला है, इस बात में दो राय नहीं! पंजाब में 'आप' की जीत से राष्ट्रीय समीकरण भी निश्चित तौर पर बदलेंगे. ज्यों-ज्यों अरविन्द केजरीवाल उभरेंगे, वह न केवल भाजपा के मजबूत प्रतिद्वंदी के तौर पर उभरेंगे, बल्कि कांग्रेस के लिए तो यह अत्यन्त खतरनाक स्थिति होगी और यह कितनी खतरनाक स्थिति होगी, यह पंजाब चुनाव के परिणामों से बेहद साफ़ हो जायेगा. भाजपा के लिए अब पंजाब में खोने-पाने को कुछ ख़ास नहीं रह गया है और वह अपने 'तीसमार खाँ टाइप चुनाव-प्रबंधकों' से जवाबदेही ले ले, यही उसके लिए अमृत-तुल्य होगा.

- मिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली.



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