भारत अमेरिका के बढ़ते सम्बन्धों के बीच जाते-जाते बराक ओबामा ने भारतीय प्रधानमंत्री को एक बार और बुलावा भेजा है. हालाँकि, इस यात्रा का मकसद क्या है यह बात खुलकर अभी सामने नहीं आ सकी है, लेकिन कहने वाले तो यह जरूर कह रहे हैं कि अमेरिका में होने वाले चुनाव को लेकर डेमोक्रेट्स भयभीत हैं, खासकर डोनाल्ड ट्रम्प को मिल रही चर्चा और समर्थन से. ऐसे में अगर रिपब्लिकन पार्टी की ओर से ट्रम्प उम्मीदवार घोषित हो जाते हैं तो फिर डेमोक्रेट्स को उन्हें मात देने के लिए जान लगा देनी होगी. जाहिर है, ऐसे में एक अच्छी खासी संख्या में प्रभावशाली भारतीयों का रोल भी मायने रखेगा और उन भारतीयों पर नरेंद्र मोदी की पकड़ से ओबामा खूब वाकिफ है. आखिर, मैडिसन स्क्वायर पर मोदी के भाषण को अमेरिकी कहाँ भूले होंगे! अमेरिकी चुनावों के बिलकुल पास आने पर मोदी को बुलाकर बराक ने एक तरह से हिलेरी क्लिंटन के पक्ष में अपरोक्ष प्रचार कराने का दांव चला है, हालाँकि इन बातों से अलग औपचारिक रूप से अमेरिका और भारत द्वारा यही कहा जा रहा है कि 21वीं सदी की बदलती जरूरतों के कारण भारत-अमेरिका लगातार करीब आते जा रहे हैं. यह बात कुछ हद तक ठीक भी हो सकती है, किन्तु सवाल उठता है कि इन तमाम कवायदों से भारत को क्या हासिल हो रहा है अथवा क्या हासिल होने जा रहा है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर भारत सरकार को साफगोई से विचार करना होगा, क्योंकि अमेरिका अपनी पाकिस्तान और चीन के सम्बन्ध में भारतीयों हितों को एक तरह से नजरअंदाज ही करता आया है. चीन ने जब यूएन में आतंकी अजहर मसूद के पक्ष में वीटो किया तो अमेरिका जैसे सुपर पावर ने चुप्पी साध ली. वहीं, पाकिस्तान को एफ-16 के रूप में तोहफा देना भी उसका तथाकथित 'भारत-प्रेम' हो सकता है.
व्यापार के समबन्ध में भी बात की जाय तो अमेरिका में भारतीय आईटी कंपनियों पर लगे टैक्स को भारी मात्रा में बढ़ाया गया है, जिसको लेकर आईएमएफ की बैठक में गए अरुण जेटली नाराजगी जता चुके हैं. ऐसी स्थिति में भारत को सिर्फ इस बात के लिए खुशफहमी क्यों पालनी चाहिए कि 'चीन से निपटने में अमेरिका भारत का साथ देगा'? ऐसा कोई एक वाकया भी अब तक सामने नहीं आया है, जिससे प्रतीत हो कि अमेरिका भारत के सैन्य और आर्थिक हितों के प्रति अपनी नीतियों में बदलाव ला रहा है. ले देकर जार्ज बुश और मनमोहन सिंह के ज़माने में हुए असैन्य परमाणु समझौते को हम भारत-अमेरिका के बीच उपलब्धि बता सकते हैं, किन्तु आज भी इस समझौते के तहत कितनी बिजली और कहाँ उत्पन्न की जा रही है, यह शोध का विषय हो सकता है. हाल ही में अमेरिकी सेना के साथ, लॉजिस्टिक सपोर्ट समझौता किया है भारत ने, किन्तु यह पूरी तरह से अमेरिका के पक्ष में झुका हुआ दिख रहा है तो आने वाले भविष्य में भारत की स्वाय्यत्ता को भी नुक्सान पहुंचा सकता. इस बारे में मैंने अपने पिछले लेख में विस्तार से ज़िक्र किया है. ऐसे में सिर्फ 'शोमैनशिप' करने भर से ज़मीनी हालत में कुछ ख़ास परिवर्तन आ जायेगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता है. हालिया प्रस्तावित यात्रा के सम्बन्ध में, उम्मीद की जा रही है कि इसी साल जून के पहले सप्ताह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर अमेरिका के दौरे पर होंगे. इससे पहले भी वो तीन बार अमेरिका जा चुके है, लेकिन इस बार का दौरा खास बताया जा रहा है क्योंकि इस बार बुलावा स्वयं अमरीकी राष्ट्रपति के तरफ से आया है स्टेट विजिट के लिए. बताते चलें कि स्टेट विजिट दो देशों के बीच रिश्तों की मजबूती के लिए अहम माना जाता है.
औपचारिकता के रूप में देखें तो, स्टेट विज़िट के दौरान ऑफिसियल डिनर और अन्य कई तरह के आयोजन किये जाते हैं. गौरतलब है कि अमेरिका में स्टेट विजिट की परम्परा पहले से रही है, जिसमें अपने सहयोगी राष्ट्रों को सम्मानित किया जाता है. पीएम मोदी की ये पहली स्टेट विजिट है, हालाँकि इससे पहले स्टेट विजिट के तौर पर साल 2009 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी गए थे. सकारात्मक ढंग से देखा जाय तो, पीएम की प्रस्तावित यात्रा दोनों देशों के संबंधों के लिहाज से मील का पत्थर साबित हो सकती है. सैद्धांतिक रूप में देखा जाए तो, भारत और अमेरिका का गठजोड़ इसलिए अहम है कि दोनों देशों के नागरिक न्याय और समानता में विश्वास रखते हैं, तो तमाम वैश्विक परिस्थितियों के बीच भारत और अमेरिका के बीच भरोसे का रिश्ता भी अवश्य ही बना है, किन्तु अमेरिकी नीतियां देशों का इस्तेमाल करके उन्हें छोड़ देने की ही रही हैं और इस बात से भारत को बेहद सजग रहना होगा. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अगर अमेरिका पाकिस्तान पर आतंकवाद को लेकर सख्ती दिखाए तो तमाम आतंकी गुटों को घुटने टेकने पड़ेंगे, किन्तु उसे भारत का यह दर्द नहीं दिखता है. हाँ, अगर ओसामा बिन लादेन को मारना हो तो अवश्य ही नेवी सील के दस्ते पाकिस्तान की अस्मिता कुचल देते हैं, किन्तु दाऊद समेत हाफिज सईद और दुसरे आतंकी गुटों को अमेरिका ने 'अनदेखा' करने की रणनीति क्यों अपना रखी है, यह बात समझ से बाहर है. वैसे, विशेषज्ञ कह रहे हैं कि दोनों देशों के बीच साझेदारी मजबूत, विश्वसनीय और लंबे समय तक चलने वाली है और साझा प्रयासों से इन दोनों ही देशों का फायदा हो रहा है. जैसाकि सभी जानते हैं कि बराक ओबामा और नरेंद्र मोदी कई बार अपनी दोस्ती दुनिया के सामने जाहिर कर चुके हैं और कई मंचों पर दोनों के बीच अच्छी ट्यूनिंग भी दिखी हैं!
अब देखना ये है कि इस दोस्ती भरे माहौल में इस बार क्या नीतियां बनती हैं और कौन-कौन से नए करार किये जाते हैं, तो नीतिगत मामलों में क्या खुलकर सामने आता हैं. असैन्य परमाणु करार से आगे आर्थिक सहयोग, व्यापार और निवेश सहित व्यापक मुद्दों पर चर्चा होती ही रही है और मोदी ने अमेरिका में भारतीय सेवा क्षेत्र की पहुंच को सुगम बनाने की मांग भी पिछले मुलाकातों में किया था, हालाँकि इसका असर कितना हुआ, यह तो वहां की भारतीय आईटी कंपनियां और अरुण जेटली ही बेहतर समझ रहे होंगे! सरकार ने भारत की उर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए भगवा क्रांति की शुरुआत की है. मोदी सरकार ने 2022 तक 100 गिगावॉट सौर उर्जा हासिल का लक्ष्य तय किया है. इसके लिए लगभग 100 बिलियन डॉलर के निवेश की जरूरत होगी तो मोदी की पुरजोर कोशिश होगी कि इस योजना के लिए फंड के रास्ते अमेरिका में तलाश किये जाएँ. इससे पहले की मुलाकातों में "नासा-इसरो मार्स वर्किंग ग्रुप" की स्थापना की बात की गयी थी, ये ग्रुप मंगल अभियानों के लिए दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ाने संबंधी क्षेत्रों की पहचान करेगा.' हालाँकि, अभी ये योजना भी अधर में ही है. देखना है इस मुलाकात का क्या नतीजा निकल कर सामने आता है. हालाँकि, नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत उपलब्धि के साथ भारत के लिए भी यह गर्व का विषय हो सकता है कि उन्हें अमेरिकी संसद के संयुक्त-सत्र को सम्बोधित करने का मौका मिल जाए. कुछ सांसद इसके लिए ज़ोर लगा रहे हैं और मोदी की टीम इन मामलों में तो कई कदम आगे है और यह बात कई बार साबित भी हुई है!
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स्टेट विजिट का इस्तेमाल अमेरिका अपने कूटनीतियों के लिए भी करता है,उम्मीद है भारत के साथ सब सकारात्मक हो.
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