कई बार लगता है कि 'लेखों और आलोचनाओं' से कहीं ज्यादा विश्व भर में आतंकी हमले होने लगे हैं. कलम उठाकर जैसे ही एक आतंकी घटना की आप निंदा करते हैं, वहीं दूसरी घटना को आतंकी अंजाम दे देते हैं. इनका कार्य-क्षेत्र अब समूचा विश्व हो चुका है, जबकि इसके रूप भी संगठित-आतंकवाद से व्यक्तिगत आतंकवाद तक फ़ैल चुके हैं. अब कोई जरूरी नहीं है कि आतंकवादी 'इस्लामिक-स्टेट या अल-कायदा' जैसे खतरनाक संगठनों से सीधे ही जुड़े हों, बल्कि कई हमलावर तो उनके बारे में सुन-सुन कर, उनकी बातें इंटरनेट पर पढ़कर ही हमला कर बैठते हैं. कोई अकेला व्यक्ति ही बन्दूक हाथ में लेकर भीड़ पर गोलियां बरसा देता है तो कोई 'नेशनल डे' मना रहे लोगों पर 'ट्रक' ही दौड़ा देता है. अभी हाल ही में हुई फ़्रांस पर आतंकी घटना की खबर (Anti Terrorism Organizations) आप सब तक पहुँच ही चुकी होगी और ऐसे में हमें अपनी समझ का दायरा व्यापक करने की जरूरत है. हालाँकि, इस डायलॉग का यहाँ ज़िक्र करना थोड़ी असंवेदनशीलता होगी, किन्तु इससे मामले को समझने में कुछ आसानी जरूर हो सकती है. बॉलीवुड अभिनेता सलमान खान की फिल्म 'दबंग' का एक डायलॉग है कि 'हम तुममें इतने 'छेद' करेंगे कि कन्फ्यूज हो जाओगे कि 'सांस' कहाँ से लें, और 'पादें' कहाँ से!' इसके ह्यूमर पर मत जाइये और इस डायलॉग को आतंकवाद से तुलना करके देखिये कि ख़ास लोगों की मानसिकता 'चरमपंथ के रास्ते आतंकवाद' तक कुछ इस कदर पहुंची है कि उसमें 'छेद' ही 'छेद' हो चुके हैं. अब इतने छेदों से कन्फ्यूजन स्वाभाविक ही है और ऐसे में विश्व-बिरादरी यह समझने में असफल सिद्ध हो रही है कि आतंक क्या है, आतंकी कौन हैं, चरमपंथी कौन हैं, इस्लामिक जेहाद क्या है, पाकिस्तान कौन है, इस्लामिक स्टेट कौन है बला, बला... !!
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ऐसे में इन 'छेदों को हमें भरना ही होगा, पूरे विश्व को मिलकर इन छेदों को भरना होगा, अन्यथा परिणाम भी समूचे विश्व को ही भुगतना होगा, जिसका नज़ारा अब रोज ही कहीं न कहीं देखने को मिलने लगा है. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश-दौरों की खूब आलोचना की जाती रही है, किन्तु हमारे पीएम जहाँ भी बाहर गए हैं 'आतंक के खिलाफ' पूरे विश्व को एकजुट करने की कोशिशों में लगे हुए हैं. वह बार-बार दुनिया को, यहाँ तक कि यूनाइटेड नेशन तक में यह बात कहते हैं कि 'अच्छे आतंकवाद, बुरे आतंकवाद' में भेद करना छोडिए, क्योंकि जो आतंकवादी फ़्रांस में हमला करते हैं और जो कश्मीर में हमला करते हैं, उनमें मूलतः कोई भेद नहीं है. हमारे पीएम बार-बार इशारा करते हैं कि 'पाकिस्तान' जैसे कुछ और देश आतंकियों की फैक्ट्री हैं, पर क्या मजाल जो किसी के कान पर 'जूं' तो रेंग जाए! ऐसे में दुसरे देश 'हमें क्या' वाला रवैया अख्तियार कर लेते हैं और किसी कबूतर की मानिंद तब तक आँखें मूदे रहते है, जब तक कि उन पर हमला (Anti Terrorism Organizations) न हो जाए! अभी हाल ही में कश्मीर में एक कुख्यात आतंकी बुरहान वानी मारा गया और पाकिस्तान की सरकार और सेना उस आतंकी की खुलकर तारीफ़ करते नज़र आए. इतना ही नहीं, वह कई वैश्विक मंचों पर कश्मीर मुद्दे के बहाने मानवाधिकारों की बात पर घड़ियाली आंसू बहा रहा है, पर क्या मजाल जो कोई उससे पूछे कि 'क्या पाकिस्तान के पास मानवाधिकारों के बारे में बात करने की न्यूनतम योग्यता भी है? लेकिन, ओसामा बिन लादेन से लेकर हाफ़िज़ सईद जैसे अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादियों की शरणस्थली बने इस देश को इन मुद्दों पर भला कब शर्म आयी है, जो आज आ जाएगी. ऐसी स्थिति में 'आतंक के समर्थकों' पर पूरे विश्व समुदाय द्वारा कड़ाई बरते जाने की आवश्यकता है.
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सऊदी अरब जैसे इस्लामिक राष्ट्र पूरी दुनिया में वहाबी-विचारधारा को पालने पोसने में रुचि लेते रहे हैं, जो अंततः आतंकवाद की ओर ही चली जाती है, किन्तु क्या मजाल जो अमेरिका खुलकर इसका विरोध कर सके. ऐसे में तो यही लगता है कि दुनिया में आतंकवादी और 'छेद' करने वाले हैं, आतंकी हमलों की श्रृंखला बढ़ने ही वाली है. यदि सिर्फ 2016 में हुए आंतकवादी हमलों की ही बात करें तो जनवरी 2016 से लेकर जुलाई 2016 तक विश्व में 21 से ज्यादा बार हमला हुआ है, जिसमें लगभग 520 लोगों की मौत हुई है, जबकि हज़ारों की संख्या में लोग घायल हुए हैं तो इससे हुए ख़ौफ़ज़दा लोगों की संख्या तो पूछिए ही मत! इस साल 2 जनवरी को भारत के पठानकोट एयरबेस में हुए हमले से शुरू हुए वैश्विक आतंकवाद (Anti Terrorism Organizations) ने कई देशों में कहर बरपाया है. यह बात भी हमें समझनी होगी कि जब किसी देश पर आतंकी हमला होता है, तब वहां का प्रशासन और आम जनता इसको मिटाने के लिए बेचैन हो जाते हैं, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, फिर से सब कुछ सामान्य हो जाता है. जाहिर है, ऐसी स्थिति को बदलना होगा और आतंक के खिलाफ हमें 24 घंटे, 365 दिन सजग रहना होगा. यह दुर्भाग्य ही है कि ऐसे में पड़ोसी देश भी सहानुभूति जता कर अपने आप में व्यस्त हो जाते हैं, जिससे नासूर बन चुके आतंकवाद का सामना करना बेहद मुश्किल दिखता है.
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भारत को इस मामले में तो खास सजगता बरतने की जरूरत है, क्योंकि जो बातें कुछ खबरों में आयी है, उसके अनुसार बांग्लादेश की राजधानी ढाका में हुए हमले के बाद उसका सरगना भारत के पश्चिम बंगाल में छुपा बैठा है. यदि ऐसा है तो भारत सरकार के साथ पश्चिम-बंगाल सरकार को अपने संशाधन झोंक कर उसे पकड़ना चाहिए, ताकि दूसरे देशों के लिए एक नज़ीर बन कर दिखाया जा सके. ऐसे ही विश्व के अलग अलग देशो में हो रहे इस तरह के हमलों से बचने के लिए समूचे विश्व को एक साथ जमीनी स्तर पर काम करना होगा. हो सकता है कि कई देश इसमें शामिल न हो, क्योंकि वह खुद आतंकवाद को संरक्षण देते हैं, पर उनको पूरे विश्व के सामने अलग-थलग करने में कोई कसर नहीं छोड़नी होगी. इसके अतिरिक्त आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए सबसे जरूरी कदम अाज की पीढ़ी की सोच को बदलना है. ज़ाकिर नाईक का मसला आज कल खूब उछल रहा है और इस बात में कोई शक नहीं है कि इस्लाम के प्रचार के नाम पर ऐसे लोग अंततः दूसरों के खिलाफ नफरत ही फैलाते हैं, तो मुस्लिम युवाओं के मन में आतंकवाद (Anti Terrorism Organizations) का बीज बोते हैं और उसका पोषण भी करते हैं. पूरे विश्व में ऐसे लोगों के खिलाफ प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए. आज अमेरिका, चीन, भारत, जापान, रूस, ब्रिटेन इत्यादि सभी देश आर्थिक उदारीकरण के नाम पर हायतौबा मचाए रहते हैं, ओपन-इकॉनमी की बात करते हैं, ग्लोबल-विलेज की बात करते हैं, लेकिन 'आतंकवाद के नाम पर एकजुट' होने में इनमें अधिकांश को सांप क्यों सूंघ जाता है, यह समझ से बाहर है.
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ज़ाकिर नाईक ब्रिटेन में तो अपने उग्र और भड़काऊ भाषणों के कारण प्रतिबंधित है, किन्तु दूसरे देशों में क्यों नहीं? आखिर, वह अफ़्रीकी देशों में, सऊदी अरब जैसे इस्लामिक राष्ट्रों में जिन बच्चों को आतंकवाद की राह पर धकेलेगा, क्या गारंटी है कि वह बच्चे बाद में आतंकवादी बनकर ब्रिटेन या अमेरिका पर हमला नहीं करेंगे? आतंकवाद के मामले में हमें यह समझना होगा कि जितने भी हमले हुए हैं, उनमें अधिकांश हमलावरों की उम्र 18 से 25 साल ही देखी गई है. अब प्रश्न है कि युवाओं की सोच को कौन दूषित कर रहा है? ऐसे मामले भी सामने आए है, जिसमें कई माँ-बाप को पता भी नहीं होता है कि उनका बच्चा कब 'आतंकवादी' बन गया! हालाँकि, उन्हें भी जागरूक रहना चाहिए किन्तु इंटरनेट की दुनिया में, ग्लोबलाइज़ेशन की दुनिया में एक सऊदी अरब में बैठा ज़ाकिर नाईक जैसा व्यक्ति भारत या बांग्लादेश के किसी बच्चे के मन में ज़हर (Anti Terrorism Organizations) भर सकता है, इस बात में दो राय नहीं! तो क्या, वैश्विक-स्तर पर आतंकियों के विचारों को रोकने के लिए 'साझा-प्रयासों' की आवश्यकता नहीं है? पूर्व में, संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन इसलिए ही तो हुआ था कि फिर 'विश्व-युद्ध' जैसी कोई विनाशक घटना न घटे, किन्तु आज 'आतंकवाद', 'विश्व-युद्ध' से भी बड़ी समस्या बन चुका है. आप विश्व-युद्ध में हुआ जानमाल के नुक्सान का आंकड़ा और लगभग 1970 से शुरू हुए 'वैश्विक आतंकवाद' में अब तक हुए जानमाल के नुक्सान का आंकड़ा देखेंगे तो वह आपके रोंगटे खड़ा कर देगा.
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ऐसे में आतंकवाद रोकने, उसके प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी किसी वैश्विक-संस्था के निर्माण की जरूरत आन पड़ी है. 'योग' के नाम पर समूचे विश्व को एक झंडे के नीचे ला चुके हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस मामले में भी 'इनिशिएटिव' लेना चाहिए और शुरू में 50 देश ही सही, मिलकर 'एंटी टेररिज्म नेशन्स आर्गेनाईजेशन (ATNO)' की स्थापना करना चाहिए, जिसका मुख्यालय भारत में ही बनाया जाए, आखिर भारत से ज्यादा इसका पीड़ित और कौन रहा है? चूंकि समूचा विश्व आतंकवाद के मामले में कन्फ्यूज है और भारत के पास इस कन्फ्यूजन को दूर करने की पर्याप्त समझ पहले से ही है, जिसके कारण उसे इस संभावित संगठन की कमान भी अपने हाथ में लेनी चाहिए. वैसे भी तमाम 'आर्थिक गतिविधियों' के लिए कहीं यूरोपियन यूनियन, कहीं ब्रिक्स तो कहीं कुछ और बने ही हैं, तो आतंकवाद के खिलाफ क्यों नहीं ऐसा एक 'वैश्विक-संगठन' बने (Anti Terrorism Organizations)! इस संगठन के बैनर तले, विश्व के हर एक नागरिक को जागरूक किया जाए तो उसका अपेक्षित योगदान भी लिया जाए. यह एक बेहतर प्रयास होगा, जो आने वाले समय में आतंकवाद के खिलाफ सबसे मजबूत रक्षा-कवच के रूप में कार्य कर सकता है, इस बात में दो राय नहीं! इसके साथ जो महत्वपूर्ण बात जुड़ी है कि भारत इसके जरिये पहली बार वैश्विक समस्याओं के प्रति आगे खड़ा रहकर नेतृत्व करता दिखेगा, तो आतंकवाद के खिलाफ उसके नजरिए और दुर्भाग्य से उसके पीड़ित होने के अनुभव का अहसास भी दुनिया को मिल सकेगा!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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