भारतीय राजनीति भी बेहद अजीब चीज है. कई लोग इससे नफरत करते हैं, इसकी आलोचना करते हैं और अंततः इसी समुद्र में कूदने को बेताब भी रहते हैं. हालाँकि, कइयों के लिए राजनीति एक समुद्र ही साबित होती है और समुद्र को भला कोई पार कर पाया है, तो स्वाभाविक परिणाम होता है 'डूबने' का! इस क्षेत्र में कई महापुरुष सफल भी रहे हैं, किन्तु असफल और कीचड़ फैलाने वालों की संख्या कहीं ज्यादा रही है. ऐसे ही कीचड़ और दूसरी राजनीतिक व्याधियों से त्रस्त होकर आंदोलन भी शुरू होते हैं, जो अंततः सत्ता परिवर्तन के बाद ठन्डे पड़ जाते हैं. नए लोग सत्ता की चाशनी में डूब जाते हैं (Yogendra Yadav Swaraj Abhiyan, Politics Entry, Hindi Article) और फिर यही कहानी बार-बार, कई बार दुहरायी जाती है. 2016 से कुछ साल पीछे जाते हैं तो अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल-आंदोलन के माध्यम से पूरे देश में एक बड़ी क्रांति आयी और उस क्रांति का बड़ा असर भी हुआ कि केंद्र में शासन करने वाली भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस रसातल में जा पहुंची. इसी असर का प्रतिफल था कि आज़ादी के बाद से ही किसी न किसी रूप में राजनीति करने वाली भाजपा (व संघ) पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हुई. यहाँ रूक कर थोड़ा सोचना होगा कि अन्ना आंदोलन के सबसे बड़े वादे 'भ्रष्टाचार, काला धन, लोकपाल' पर केंद्र सरकार ने क्या रूख अपनाया?
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ईमानदार आंकलन के बाद हम देख पाते हैं कि 'भ्रष्टाचार' की ऊपरी परत पर प्रधानमंत्री का डर जरूर हावी है, किन्तु हर जगह भ्रष्टाचार रूक गया है, यह सोचना बचकाना ही होगा. इसकी रोक के लिए लोकपाल नहीं तो, लोकपाल-सदृश एक 'व्यवहारिक सिस्टम' की जरूरत जरूर थी. जहाँ तक बात काले धन की है, तो यह एक 'जुमला' ही साबित हुआ और अगर हम 'घोटालों' की बात करें तो यह 5 साल के बाद ज्यादा पता चलता है. वैसे भी पिछली यूपीए सरकार के घोटाले उसके दुसरे कार्यकाल में ही सामने आये थे. कहा जा सकता है कि अन्ना आंदोलन के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभावों के कारण सत्ता में आने हेतु मदद पाने वाली भाजपा सरकार (BJP Central Government after Anna Movement) का परिणाम अभी मिला-जुला ही है और आने वाले दिनों में यह और साफ़ होता चला जाएगा. इसी 'अन्ना आंदोलन' का दूसरा परिणाम आया 'अरविन्द केजरीवाल एंड टीम के उभार' के रूप में, जिसके फलस्वरूप 'आम आदमी पार्टी' का गठन हुआ. इसमें अरविन्द केजरीवाल के साथ-साथ मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, संजय सिंह, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे नाम शामिल थे. दिल्ली में इस पार्टी को 'भयंकर' बहुमत भी मिला, किन्तु केजरीवाल के बढ़ते वर्चस्व के साये में अन्य पार्टियों की ही तरह उभरे मतभेद और महत्वाकांक्षाओं की वजह से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को आम आदमी पार्टी से ही निकाल दिया गया. योगेंद्र यादव के लिए यह एक सदमे जैसी स्थिति थी, क्योंकि जो आम आदमी पार्टी सत्ता में आयी थी, उस पार्टी का 'चाणक्य' योगेंद्र यादव को एक सुर में माना गया था.
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योगेंद्र यादव एक काबिल और मृदुभाषी व्यक्ति हैं और अपने उपनाम 'चाणक्य' के ही अनुरूप योगेंद्र ने प्रशांत भूषण और अन्य समाजिक कार्यकर्ताओं, जो केजरीवाल से नाराज (Arvind Kejriwal Hindi Articles) थे, के साथ मिलकर 14 अप्रैल, 2015 को स्वराज अभियान नामक संगठन बनाया और धीरे-धीरे उसे देश के सैकड़ों जिलों तक फैलाया भी. आम आदमी पार्टी से निकाले जाने के बाद 'स्वराज अभियान संगठन' के लिए योगेंद्र ने ज़मीन पर मेहनत भी की और अब एक नई राजनीतिक पार्टी की नींव रखने के लिए वह खुद को मना चुके हैं. हालाँकि, योगेंद्र की व्यक्तिगत काबिलियत अपनी जगह है, किन्तु सवाल उठना लाजमी है कि योगेंद्र यादव का स्वराज अभियान राजनीति में आखिर 'नया' क्या करेगा? जो शुरूआती बातें सामने आयी हैं, उसके अनुसार इस पार्टी का उद्देश्य भी आम आदमी पार्टी की तरह सच्चाई और ईमानदारी के साथ 'आम आदमी' की सेवा करना होगा, किसानों-मजदूरों का हित देखना उसकी जिम्मेदारी होगी, बला.. बला! पर यह समझना काफी कठिन है कि पिछली पार्टी में अरविन्द केजरीवाल के तानाशाही व्यवहार एवं कुछ हद तक अपनी महत्वाकांक्षा का शिकार हो चुके योगेंद्र यादव आखिर इस बात की गारंटी कैसे ले सकते हैं कि 2 अक्टूबर को गठित होने वाली नयी पार्टी में प्रशांत भूषण या खुद वह तानाशाही की स्थिति में (Yogendra Yadav Swaraj Abhiyan, Politics Entry, Hindi Article) नहीं होंगे? नई पार्टी के धरातल पर काम करने की जो बात अभी हो रही है, तो इसे एक बार राजनीतिक पार्टी बनने भर की ही देर है, उसके बाद उसे राजनीति के रंग में रगने से भला कौन बचा सकेगा? अब तक यह बात कई-कई बार प्रमाणित हो चुकी है कि राजनीतिक पार्टी का गठन सत्ता की भूख से ज्यादा कुछ नही है.
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पूछने वाले तो पूछेंगे ही कि यदि सच में योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की जोड़ी सक्रिय तौर पर कुछ करना ही चाहती थी, तो वह आम आदमी पार्टी में रह कर भी कर सकती थी और इसके साथ ही केजरीवाल पर भी दबाव रहता. अरविन्द केजरीवाल तानाशाह जरूर बन गए थे, किन्तु उन्हें वैसे करने की छूट तो पहले योगेंद्र और प्रशांत जैसे लोगों ने ही दी थी. आज योगेंद्र यादव कहते फिर रहे हैं कि राजनीतिक पार्टी बनने के बाद (Political Parties in India) वह बड़बोलापन नहीं करेंगे, झूठ और नौटंकी नहीं करेंगे. उनका इशारा शायद अरविन्द केजरीवाल की दिल्ली में चल रही 'नौटंकी' पर रहा होगा, किन्तु अरविन्द की नौटंकी में भला उनका हिस्सा क्यों न माना जाए? जब अरविन्द आंदोलन के दौर से ही बाबा रामदेव उसके बाद किरण बेदी जैसी हस्तियों को किनारे लगा रहे थे, तब तो योगेंद्र यादव का एक भी बोल नहीं फूटा. कहते हैं, अगर 'कुत्ते को आप काटना सिखाओगे तो कभी न कभी आपको भी काटेगा ही' और योगेंद्र यादव के साथ यही तो हुआ. थोड़ा तार्किक ढंग से बात की जाय तो बेशक अरविन्द केजरीवाल 'नौटंकी' कर रहे हों, किन्तु अपनी पार्टी पर उनका नियंत्रण तो है. वह योगेंद्र यादव से तो बेहतर ही हैं, जिन्हें उन्हीं के द्वारा स्थापित पार्टी से बाहर कर दिया गया. यह राजनीतिक समझ और मजबूती की भी बात है, जिसकी जरूरत राजनीति में कदम-कदम पर पड़ती ही है. राजनीति में एक से एक गलत और सही लोग मिलते हैं, ऐसे में प्रश्न उठना लाजमी है कि जब अपने ही बनाये अरविन्द केजरीवाल पर वह नियंत्रण या उनसे तालमेल नहीं कर पाए तो फिर आगे तो दुनिया बहुत बड़ी है. खैर, राजनीतिक दल बनाना सबका संवैधानिक अधिकार (Making Political Parties, Hindi Article) है और योगेंद्र यादव भी अपने इस अधिकार का प्रयोग कर रहे हैं तो कुछ गलत नहीं है, पर उनके जैसे सम्मानित विश्लेषक को समझना चाहिए कि 'राजनीतिक पार्टियों' के उभार का उचित समय क्या होता है.
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आखिर, राजनीति में एक के खिलाफ लोगों के मन में क्रोध/ विरोध आएगा, तभी तो आप उसे रिप्लेस करने का प्रयत्न कर सकते हैं, लोगों को आंदोलित कर सकते हैं. इससे भी बड़ी जो एक और ख़ामी नज़र आ रही है, वह यह है कि योगेंद्र यादव के पास अभी कोई 'ठोस मुद्दा' (Political Issues are important at alll) भी नज़र नहीं आ रहा है, जिससे लोग कनेक्ट हो सकें. ऐसे में योगेंद्र यादव जैसे व्यक्ति का सामाजिक 'स्वराज अभियान' से इतनी जल्दी 'राजनीतिक पार्टी' बनाने का निर्णय व्यवहारिक प्रतीत नहीं होता है. बाकी, यह जनता है और अगर कोई विश्लेषक इसे पूर्ण रूपेण समझने का दावा करे तो यह उसकी नादानी ही कही जाएगी और इस आधार पर योगेंद्र एंड कंपनी अपनी टीम में 'आशावाद' (Hope for good politics) का संचार तो कर ही सकती है, किन्तु यह आशावाद व्यवहारिकता में कैसे बदलेगा, यह देखना निश्चित तौर पर दिलचस्प रहने वाला है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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